गांधी के इस देश में हम कहें चाहें कुछ भी लेकिन जब बड़े मौके आते हैं तो हम अहिंसा के धर्म का पालन नहीं करते। हिंसा के बूते ही अपनी बात मनवाने पर आमादा हो जाते हैं। हिंसा और ऐसे हमलों की निंदा की जानी चाहिए। इधर या उधर, इस गुट या उस गुट में बंटे बगैर। पटियाला हाउस कोर्ट में छात्रों के साथ हुई हिंसा, पत्रकारों के साथ हुई मारपीट देश के लोकतंत्र और उसके मिजाज के लिए ख़तरा है। जेएनयू को लकर चर्चा की किस्त में कुछ और फेसबुकिया टिप्पणी।
न अफ़सोस… न शर्मिंदगी… धमाल कर कमाल कर दिया
प्रभाकर मिश्रा
सब खामोश हैं ! कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही है ! आये भी तो क्यों ! इसमे नया क्या है ! हम तो हैं ही इसी के लिए ! जिसको जब मन में आया गाली दे दिया ! जब जहाँ मन में आया पीट दिया ! न किसी को कोई अफ़सोस है न कोई शर्मिंदा है न किसी को #असहिष्णुता की शिकायत है ! और हो भी क्यों ? हम हैं ही ऐसे ?
हमें वहां जाने की जरूरत ही क्या है जहाँ भारत विरोध के नारे लगें, लोग अधिकारवश देश के टुकड़े करने की मांग करें ! हमें वहां जाना ही क्यों जहाँ ‘ राष्ट्रवादी’ ताकतें अपने #राष्ट्रवाद का नंगा नाच करें। हमें तो #MakeInIndia पर ध्यान देना चाहिए ! हमें तो #EkSaalBemisal पर बलाईयाँ लेनी चाहिए ! तो हम पीटे जाएं, इसमें ग़लती हमारी है! #SelfiWithPM और#SelfiWithCM जब हमें चाहिए तो इतनी कीमत चुकानी ही होगी!
एक बात और ! जब पीड़ित के घरवालों को ही कोई चिंता नहीं तो फिर दूसरा कोई क्यों छाती पिटेगा। हमें तो उम्मीद थी कि अपने बच्चे मार खाएं हैं, तो परिवार वाले विरोध जताएंगे ! टीवी वाले इसे लोकतंत्र पर ख़तरे की तरह पेश करेंगें। बगदादी वाले स्लॉट में पाटियाला हाउस के वकीलों का नंगा नाच दिखाएंगे ! अख़बार वाले इसे लोकतंत्र का काला दिन बताएँगे ! लेकिन हम ग़लत थे !! क्योंकि हम तो हैं ही पीटे जाने के लिए !!
शांति पाठ से कुछ तो सबक लीजिए
अजय प्रकाश
संघी हिंसक नहीं होते। कभी संविधान के ख़िलाफ़ नहीं जाते। वे विश्वशांति के चहेते होते हैं। भाजपाई सिर्फ विचार की लड़ाई लड़ते हैं और एबीवीपी उन विचारों पर आदर्श अनुसरण करती है। उसी अनुसरण का सीन है इस फ़ोटो में। फ़ोटो में नजर आ रहा टकला सिर दिल्ली के भाजपा विधायक ओपी शर्मा का है जो सीपीआई के नेता अमिक जमी को पटियाला कोर्ट परिसर में एबीवीपी के मासूम बालकों के साथ मिलकर शांति का पाठ पढ़ा रहे हैं। इस मौके पर पुलिसकर्मियों की उपस्थिति में संघ के शांतिदूतों ने शांति का प्यारा पाठ दस पत्रकारों को भी पढ़ाया। ऐसे में अब आपको तय करना है कि इस शांतिपाठ का सबक किस रूप में लेना चाहते हैं।
‘अहिंसा’ का ‘वामपंथी’ ढोंग कब तक ?
अरव चौहान
देश के फ़र्ज़ी साम्यवादी दोस्तों की एक बात शुरु से गुदगुदाती है। जब अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने की बात हो, तो मार्क्स का हवाला देकर बंदूक की बात करते हैं। और जब पिछवाड़े पर पुलिस का डंडा चलता है, तो ‘गांधी-गांधी’ चिल्लाते हैं। अब ये ढोंग नहीं चलेगा।
काली वर्दी वाले क़ानून का सम्मान तो करते हैं न?
रंजीत सिंह श्रीनेत
#JNU के छात्रों और शिक्षकों का तो पता नहीं पर दिल्ली के लीगल रिपोर्टर्स को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ क्योंकि मैं उनमें से एक था, हूँ और रहूँगा। मौके पर मौजूद न रहने के बावज़ूद, मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि पटियाला हाउस कोर्ट की घटना में पत्रकारों की ओर से किसी तरह की कोई ऐसी बात नहीं हुई होगी जिसे कोई भड़काऊ कह सकें। उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने बेबाक काम की कीमत चुकानी पड़ी। वकीलों को डर था कि अदालत के नियमों के ख़िलाफ़, भरी कोर्ट रूम में की जा रही उनकी काली करतूतें, अगले दिन के अख़बार में छपेंगी और चैनल्स की हेडलाइन बनेंगी। इसीलिए उन्होंने मीडिया के हमारे साथियों पर इस तरह ग़ैर क़ानूनी हरक़त की और वो भी कोर्ट रूम के अंदर।
अब ज़रुरत है कि बार काउन्सिल ऑफ़ इण्डिया, दिल्ली बार काउन्सिल, को-ऑर्डिनेशन कमिटी ऑफ़ ऑल दिल्ली डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन और दूसरी सभी वकीलों की संस्थाएं आगे आएं और साबित करें कि वो न्याय के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ते हैं और देश की अदालतों का वो सम्मान करते हैं। बाकी , हम पत्रकार अपनी लड़ाई अपने तरीके से लड़ने में सक्षम हैं, और लड़ेंगे।
क़लम से ही क़ातिलों के सर क़लम करें लेखक… पढ़ने के लिए क्लिक करें