उमेश कुमार
लगभग डेढ़ साल पहले 04 दिसम्बर2014 को बरेली से लखनऊ की बस यात्रा के दौरान अखबार में छपी एक खबर पर मेरी नजर पड़ी । खबर का शीर्षक था- भट्टे से भागे मजदूर, मालिक पर लगाये गम्भीर आरोप । खबर को जब पूरा पड़ा तो मुझे लगा है कि यह बंधुआ मजदूरी का मामला है जिसे पुलिस व श्रम विभाग की मिलीभगत के चलते ऐसे ही निपटा दिया गया है। मुझे लगा कि इस मामले की शिकायत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से करनी चाहिए ।
उच्चतम न्यायालय ने बंधुआ मजदूरी उत्सादन अधिनियम 1976 के अंतर्गत इस कानून के क्रियान्वयन पर नजर रखने की जिम्मेदारी इसी आयोग को सौंपी हुई है। अगले दिन अख़बार की इसी कतरन के साथ एक चिट्ठी आयोग को भेज दी। लगभग15 दिन बाद इसी पत्र पर कार्यवाही करते हुए आयोग ने बरेली के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब दाखिल करने को कहा।
ऐसे मामलों में जैसा अक्सर होता आया है, उसी तरह श्रम विभाग और पुलिस ने ईंट भट्टे के मालिक का पक्ष लेते हुए यह जवाब दिया कि मजदूर अपनी मर्जी से काम कर रहे थे और जो बंदूकधारी लोग भट्टे के आस-पास रहते थे, उन्हें मजदूरों की सुरक्षा के लिए रखा गया था। पुलिस ने भी अपनी रपट में कहा कि उन्हें पूरी मजदूरी दी गयी थी और उनका कोई शोषण नहीं हुआ। इस जवाब के बाद आयोग ने जिलाधिकारी, बरेली से 16 सवाल पूछे। इन सवालों में ईंट भट्टे का पंजीकरण, मजदूरों की संख्या, सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी दिए जाने सम्बन्धी रिकार्ड, अनुसूचित जाति/ जनजातिके मजदूरों की संख्या, उन्हेंमासिक और पाक्षिक रूप से दिए जाने वाले भत्ते की स्थिति, दिए जाने वाली मजदूरी से सम्बन्धित रजिस्टर की फोटो कापी आदि शामिल थे ।
इन सवालों के जवाब में उपश्रमायुक्त बरेली ने जो जवाब दाखिल किये वो अपने आप में ही विरोधाभासी निकले । 2 फरवरी 2016 को दाखिल इस जवाब में उपश्रमायुक्त ने कहा कि मजदूरों को भुगतान साप्ताहिक तौर पर किया जाता था और मालिक पर किसी भी मजदूर का कोई रुपया बकाया नहीं था. अतःझूठी शिकायत दर्ज करवाई गयी है. जबकिश्रम विभाग के अधिकारी आयोग के समक्ष कोई भी ऐसा रजिस्टर प्रस्तुत करने में असमर्थ जिससे यह पता चले कि उन्हें नियमित, साप्ताहिक या मासिक रूप से कोई मजदूरी दी जाती थी. अखबार में छपी खबर में यह लिखा गया था कि मजदूरों की शिकायत के बाद श्रम विभाग के अधिकारीयों ने पुलिस थाने में मालिक को बुलाकर मजदूरों को पैसे दिलवाए थे और वहां रिकार्ड तैयार करवाया था. आयोग ने पुछा कि यदि साप्ताहिक तौर पर मजदूरी दी ही जा रही थी तो थाने में भुगतान के लिए मजदूरों और मालिक को क्यों आना पड़ा।
राष्ट्रीयमानव अधिकार आयोग ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए 25 अप्रैल2016 को जिलाधिकारी बरेली को निर्देशित किया कि इन सभी 36 मजदूरों को बंधुआ मानते हुए बंधुआ मजदूरी उत्सादन अधिनियम 1976 के अंतर्गत कार्यवाही सुनिश्चित की जाए और सभी मजदूरों को मुक्ति प्रमाण पत्र दिए जाएँ ताकि इनके गृह जनपद में इन मजदूरों का पुनर्वास सुनिश्चित हो सके । ज्ञात रहे कि उपरोक्त अधिनियम के तहत मुक्ति प्रमाण पत्र के सहायता से प्रत्येक मुक्त बंधुआ मजदूर को 20 हजार रूपये की आर्थिक सहायता मुहैया कराई जाती है और सरकारद्वारा चलायी जा रही विभिन्न योजनाओं का लाभ प्राथमिकता के आधार पर मिलता है।
उमेश कुमार/ माखनलाल पत्रकारिताविश्विद्यालय के 2001 बैच के छात्र रहे हैं.विकास से जुड़े मुद्दों अपर सक्रिय लेखन.नोबल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी के साथ सक्रिय रूप से काम करने का लगभग डेढ़ दशक का अनुभव. वर्तमान में लखनऊ में कार्यरत)
Waah bahut hi badhiya.