सत्येंद्र कुमार यादव
अगर हम सवाल करें कि दिल्ली में बैठे पत्रकार आदिवासियों के बारे में कितना समझते हैं तो शायद उत्तर मिलेगा बहुत कम । देश की कुल जनसंख्या में करीब 9 फीसदी भागीदारी आदिवासियों की है । छत्तीसगढ़ समेत कुछ राज्य ऐसे हैं जहां आदिवासियों संख्या 60 फीसदी से भी ज्यादा है । फिर भी वो हर क्षेत्र में वो उपेक्षित हैं । आदिवासियों की समस्याएं जानने के लिए उनके बीच जाना जरूरी है ।
जब मुझे पिछले दिनों मौका मिला तो मैं छत्तीसगढ़ में आदिवासी पत्रकारों से मिला । 26 जून को रायपुर प्रेस क्लब में विनय तरुण स्मृति व्याख्यानमाला में मुझे भी शामिल होने का सौभाग्य मिला। वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी, गौतम बंद्योपाध्याय, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति एमएस परमार, दंतेवाड़ा के पत्रकार मंगल कुंजाम, प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार कमल शर्मा, न्यूज नेशन के वरिष्ठ पत्रकार और दस्तक के सदस्य पशुपति शर्मा को सुनने को मिला।
‘आदिवासी और हमारी पत्रकारिता’ विषय पर चर्चा हुई। सवाल उठा कि पत्रकारिता में कितने आदिवासी? जवाब मिला लगभग नगण्य। लंबे समय तक आदिवासी इलाकों की रिपोर्टिंग और लेखन कार्य करते रहे वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने सवाल उठाया कि ‘कितने आदिवासी पत्रकार भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं..एक, दो, तीन या एक भी नहीं? अगर एक दो लोग हैं तो उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है।’ वहीं कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्याल के कुलपति एमएस परमान ने आश्वसन दिया कि आदिवासी पत्रकारिता के लिए हर संभव मदद करेंगे। आदिवासी छात्रों को रहने और पढ़ने की व्यवस्था और प्रोत्साहन के लिए समुचित उपाय करेंगे। परमार ने कहा कि ‘विश्वविद्यालय में आदिवासी पत्रकारिता को लेकर कई पहल की जा रही है ताकि आदिवासी क्षेत्रों के पत्रकार राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर काम कर सकें, आदिवासी क्षेत्रों की समस्या को सही और संतुलित तरीके से सामने ला सकें, सरकार और आदिवासी पक्षों को ध्यान में रखते हुए सच्चाई को सामने लाने का काम कर सकें।’
सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंद्योपाध्याय ने सवाल उठाया कि ‘जब तक पत्रकारिता में आदिवासी क्षेत्रों के पत्रकारों की सहभागिता नहीं होगी तब तक मुख्य धारा की पत्रकारिता अधूरी रहेगी। इन्हें आगे लाना होगा। इसके लिए ठोस रणनीति बनानी होगी और लिखने की आजादी देनी होगी तभी आदिवासी क्षेत्रों की सही बातें सामने आएगी। अभी हाल ये है कि आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे पत्रकार एक दूसरे को ही पसंद नहीं कर रहे हैं। एक दूसरे से अपनी बात साझा करने में डर रहे हैं। ऐसा इसलिए कि सभी को लगता है कि अगला या तो पुलिस का मुखबीर है या नक्सलियों का । जान जाने का डर हमेशा बना रहता है। पुलिस की सच्चाई बताओं तो पुलिस किसी तरह से मरवा देगी, नक्सलियों के बारे में लिखने पर नक्सली हत्या कर देते हैं। ऐसे में आदिवासी पत्रकारों को लिखने की छूट होनी चाहिए। ऐसा ना हो कि लिखने के बाद उन्हें जेल में डाल दिया जाए।’
दंतेवाड़ा से आए आदिवासी पत्रकार मंगल कुंजाम ने भी यही बात कही। मंगल कुंजाम ने कहा कि, ‘मैं सिर्फ अपने अखबार की हेडलाइन्स के लिए काम नहीं करता। मेरा प्रयास होता है कि मेरी खबर सभी अखबारों में छपे। देश के लोगों तक आदिवासियों की असल समस्या पहुंचे। देश इस पर चर्चा करे कि आखिर हमारे साथ हो क्या रहा है। नक्सली और आदिवासी में फर्क किया जाए। आदिवासी भी विकास चाहता है लेकिन उनके स्कूलों को बंद करके नहीं, रास्तों को उड़ा कर नहीं, हमारे हकों को मारकर नहीं। हमें साथ लेकर देश का विकास हो या हमारे क्षेत्र में। सरकार करोंड़ों रुपए आदिवासी शिक्षा पर खर्च करने का दावा करती है। लेकिन आदिवासी बच्चों के स्कूलों में फोर्स कैंप डाले पड़ी है। बालआश्रम में पुलिसवालों का कब्जा है। जो बचा था उसे नक्सलियों ने उड़ा दिया। पहले नक्सली स्कूलों पर हमला नहीं करते थे। लेकिन जब से सीआरपीएफ की टुकड़ियां स्कूलों, बालआश्रमों में कैंप करने लगी तब से बच्चों के स्कूल बंद हैं और बाकी स्कूलों को नक्सली इसलिए उड़ा देते हैं ताकि फोर्स उन स्कूलों में कैंप ना करे। दोनों ओर से नुकसान हमारा हो रहा है। हमारे छोटे भाई बहन स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। ऐसे में किसी भी क्षेत्र में हमारी भागीदारी नहीं हो सकती। पहले स्कूलों से फोर्स को हटाया जाए। स्कूलों से हटकर दूसरी जगह कैंप लगाया जाए ताकि स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई शुरू हो सके। यही नहीं हमारी आवाज को दबाने की जो कोशिश की जा रही है उसे बंद किया जाए। अगर हम कोई बात लिख देते हैं तो हमें जेल में बंद कर दिया जाता है। नक्सलियों के खिलाफ लिखते हैं तो हमारी हत्याएं हो जाती हैं। ऐसे में आदिवासी पत्रकार हतोत्साहित हो जाते हैं। हम चाहते हैं कि हमारी आवाज दबाई ना जाए, देश के लोगों के बीच पहुंचाई जाए। सरकार कहती है कि आदिवासी क्षेत्रों में हम सड़क बनवा रहे हैं। लेकिन मेरा सवाल ये है कि किसके लिए? आदिवासियों के लिए या उद्योगपतियों के लिए ? अगर आदिवासियों के लिए सरकार इतनी चिंतित होती तो सड़क के किनारे बसे गांव पानी के लिए कोसों दूर नहीं जाते। पानी के लिए परेशान नहीं होते। चूंकि सड़क से कच्चा माल लाना है तो सरकार ने सड़क बनवा दिया लेकिन किनारे बसे गांवों के लिए क्या किया? विकास के नाम पर उद्योगपतियों के लिए रास्ता बनाना आदिवासियों के साथ छलावा है।’
प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि, ‘आदिवासी समस्या को सिर्फ बस्तर के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। सरगुजा पर चर्चा किए बिना आदिवासियों की समस्या का हल नहीं निकलेगा। बस्तर जहां गर्त में है तो वहीं सरगुजा आदिवासी क्षेत्र होते हुए भी बस्तर से बेहतर है। विकास तभी होगा जब सड़कें बनेंगी। बस्तर में ऐसा नहीं होने दिया जाता। वहीं सरगुजा में बस्तर जैसा विरोध नहीं होता।’
विनय तरुण स्मृति व्याख्यानमाला-7 में और वक्ताओं ने भी इस मुद्दे पर बात की और आदिवासी पत्रकारों को मेन स्ट्रीम में लाने के लिए कहा। इस दौरान वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने कई महत्वपूर्ण सवाल भी उठाए। जैसे आदिवासी क्षेत्रों में सांस्कृतिक हमला, उनके साथ बाहरी लोगों को व्यवहार। शुरुआती भूमिका में मैंने इसका जिक्र किया लेकिन उस पर विस्तार से अगले लेख में आपको बताऊंगा और रामशरण जोशी की बात को आपको सुनाऊंगा भी। इसे सुनना इसलिए जरूरी है ताकि आप समझ सकें कि आदिवासियों के साथ हम लोग क्या कर रहे हैं? ऐसा होना चाहिए या नहीं ?
सत्येंद्र कुमार यादव, एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय । माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय के पूर्व छात्र । सोशल मीडिया पर सक्रियता । मोबाइल नंबर- 9560206805 पर संपर्क किया जा सकता है ।