लोकतंत्र में जनता के प्रतिनिधियों के राजसी ठाठ-बाट की चर्चा अक्सर सुनी जाती रही है। ऐसे परिवारों में शादी-विवाह की तामझाम भी अखबारों की सूर्खियां बनती रही हैं। इस आलेख की पहली कडी में आप तेजस्वी यादव के सरकारी बंगले की साज-सज्जा के संदर्भ में आजादी से पहले जूनागढ़ के नवाब के शौक के बारे में पढ़ चुके हैं। आज दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है मैसूर रियासत के महाराजा के राजमहल की गाथा, जिसका उल्लेख विश्व विख्यात लेखक और पत्रकार डोमिनीक लापिएर, लैरी कालिन्स की पुस्तक फ्रीडम ऐट मीड नाईट में किया गया है।
अतीत के झरोखे से वर्तमान का अवलोकन पार्ट- 2
वैसे भी हमारा देश भारत भवन निर्माण के मामले में प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रहा है। तभी तो चीनी यात्री ह्वेनसांग ने मगध सम्राट अशोक के राजमहल के खंडहर को देख कर कहा था कि अभी यह खंडहर स्वर्ग में इन्द्र के महल से ज्यादा भव्य है, जब यह निर्मित हुआ होगा तब कैसा रहा होगा ? अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भी बड़े- बड़े राजा-महाराजाओं के महल अपने आकार और लागत में ताजमहल से टक्कर लेते थे। महाराजा मैसूर का 600 कमरों का महल वायसराय-भवन से भी बड़ा था। उस घर के बीस कमरों में तो केवल वे शेर, चीते, हाथी और जंगली भैंसे रखे हुए थे जो तीन पीढ़ियों के दौरान इन महाराजाओं ने राज्य के जंगलों में मारे थे। रात को जब उसकी छत पर और खिड़कियों में हजारों बिजली की बत्तियां जगमगा उठती थीं, तो ऐसा लगता था कि किसी बहुत बड़े समुद्री जहाज पर कोई उत्सव मनाया जा रहा है और यह जहाज भटक कर न जाने कैसे इस भूखंड पर आ गया है। मैसूर के महाराजा के सिंहासन में 28 मन सोना लगा हुआ था और उस पर चढ़ने के लिए ठोस सोने की नौ सीढियां बनाईं गई थी, जो भगवान विष्णु के उन नौ कदमों की प्रतीक थी, जो उन्होने सत्य की मंजिल तक पहुंचने के लिए उठाए थे।
मैसूर के महाराजा अपने को चंद्रमा का वंशज बताते थे। वर्ष में एकबार शरद पूर्णिमा के दिन वे अपनी प्रजा के लिए ईश्वर का साकार रूप हो जाते थे। नौ दिनों तक हिमालय की किसी गुफा में समाधि लगाए हुए साधु की तरह अपने महल के किसी अंधेरे कमरे में सबकी आंखों से अदृश्य हो जाते थे। इस अवधि में वे न दाढी बनाते थे, न स्नान करते थे। उन्हें न कोई छू सकेता था और न देख सकता था, क्योंकि उनके इस गुप्त वास की अवधि में यह माना जाता था कि उनके शरीर में ईश्वर का वास होता है। नौ दिन बाद वह बाहर निकलते थे। सुनहरी झूल डालकर एक हाथी सजाया जाता था उसके माथे पर पन्नो से जड़ा एक पत्तर लगाया जाता था। फिर उस हाथी पर बैठ कर महाराजा साहब मैसूर के घुड़-दौड़ के मैदान में पहुंचते। उनके साथ घोडों और ऊंटों पर सवार, भाले लिए हुए बहुत से सिपाही चलते थे। वहां उनकी प्रजा की भीड़ दर्शन के लिए पहले से खड़ी रहती थी। फिर ब्राह्मण, पुजारी मंत्रों का पाठ करके उनके बाल कटवाते। उन्हें नहलाकर भोजन कराया जाता । सूर्यास्त के बाद जब घुड़-दौड़ मैदान में अंधेरा छाने लगता, तब महाराजा के लिए श्याम वर्ण का घोड़ा लाया जाता। जैसे ही वे उस घोड़े पर सवार होते, मैदान के चारों ओर हजारों मशालें जल उठतीं । उन मशालों की झिलमिलाती गुलाबी रोशनी में काले घोड़े की पीठ पर सवार महाराजा साहब पूरे मैदान का चक्कर लगाते थे। प्रजा तालियां बजा कर उनका अभिवादन करती थीं और इस बात के लिए आभार प्रकट करती थी कि चंद्रवंशी महाराजा अपनी प्रजा के बीच लौट आए हैं।
अगली कड़ी में महाराजा ग्वालियर के उस शाही शौक की कहानी जिसमें उन्होंन अपने महल के छत की मजबूती जांचने के लिए अपना सबसे भारी हाथी क्रेन से महल की छत पर चढवाया था।