यारों को वीराने में छोड़ गए वीरेन

श्रद्धांजलि

viren-dangwal-2तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे।

(कविता-आएंगे, उजले दिन आएंगे ज़रूर)

‘उजले दिनों’ की जबरदस्त आंकाक्षा के साथ सांसें लेने वाले कवि की सांसों ने उनका साथ छोड़ दिया। वीरेन डंगवाल हमारे बीच नहीं रहे। 28 सितंबर की सुबह 4 बजे बरेली के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। पाठकों को कवि के खो जाने का ग़म है और उनके दोस्तों को उन महफ़िलों में सन्नाटा छा जाने का सदमा, जो वीरेन के न होने मात्र से वीरान हो गई हैं। फक्कड़ मिजाज के वीरेन डंगवाल ने साहित्य और संवेदनशील पत्रकारिता के बीच एक रिश्ता बनाया और निभाया। उनकी कविताओं में यदा-कदा पत्रकारिता के पतन का दर्द भी छलका।

‘इतने मरे’
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।

(कविता-पत्रकार महोदय)

निजी जिंदगी में भी वीरेन डंगवाल भावनाओं की कद्र करते और हर दिल में उठती लहरों को महसूस करते। वो स्त्री, जिससे वो प्रेम करते थे, उनकी शिकायतों को कुछ यूं आवाज़ दी।

प्यारी
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना
फूले मुँह से उसाँसे छोड़ती है फू-फू
कभी-कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हँसी-खेल नहीं
आदमी लोग को क्या पता
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती आँखें
बिना मुझे छोटा बनाए हल्का-सा शर्मिन्दा कर देती है
प्यारी
(कविता- प्रेम कविता)

viren-dangwal-1हम औरतें

रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में

हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएँ

हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं

हम हैं इच्छा-मृग

वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !

पौड़ी जिले के कमांद गांव के वासी वीरेन डंगवाल बाद के दिनों में बरेली में आ बसे थे। यहीं वो लंबे वक्त तक हिंदी के व्याख्याता रहे और बाद में पत्रकारिता भी की। मुंह के कैंसर से वो पिछले कई सालों से जूझते रहे थे और इसी बीमारी ने उनके प्राण हर लिए। ताज्जुब होता है कि पांव में चुभने वाले भात का मर्म समझने वाले कवि ने कैंसर जैसे रोग को अपने शरीर में जगह दी तो कैसे?

किस्सा यों हुआ
कि खाते समय चप्पल पर भात के कुछ कण

आगमन- 05 अगस्त 1947  / अलविदा- 28 सितंबर 2015
आगमन- 05 अगस्त 1947  / अलविदा- 28 सितंबर 2015

गिर गए थे
जो जल्दबाज़ी में दिखे नहीं ।
फिर तो काफ़ी देर
तलुओं पर उस चिपचिपाहट की ही भेंट
चढ़ी रहीं
तमाम महान चिन्ताएँ ।

(कविता-चप्पल पर भात)

वीरेन डंगवाल

मुख्य काव्य कृतियाँ-इसी दुनिया में (1990), दुष्चक्र में सृष्टा (2002), स्याही ताल
सम्मान- रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994), शमशेर सम्मान (2002), साहित्य अकादमी पुरस्कार (2004) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।



 श्रद्धासुमन

पशुपति शर्मा। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए, एमफिल। संप्रति पत्रकारिता में सक्रिय।