पुष्यमित्र
देश में बिहार की पहचान उसकी जलसंपदाओं की वजह से है। दक्षिण बिहार की नदियां भले गरमियों में सूख जाती रही हैं, मगर उत्तर बिहार में नेपाल से आने वाली नदियों का जाल पूरे इलाके को शुष्क और खेती-किसानी के लिए बेहतर क्षेत्र बनाता है। नदियों के जाल और हर साल आने वाली बाढ़ ने इस इलाके की छवि ऐसी बना दी कि जैसे यहां हर तरफ जल ही जल हो। महज डेढ़ दशक पहले तक सचमुच ऐसी स्थिति थी भी। भरी नदियां, पग-पग पर मिलने वाले पोखर, चौर- आप जहां नजर दौड़ाते पानी ही पानी नजर आता।
भारत सरकार ने जो नदी जोड़ो परियोजना शुरू की थी उस वक़्त नीति नियंताओं के दिमाग में जरूर यह बात रही होगी कि बंगाल, बिहार और असम के जल संपन्न इलाकों से अतिरिक्त जल लेकर देश के दूसरे शुष्क इलाकों में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करायी जायेगी। मगर साल 2001 के बाद मौसम कुछ इस तरह बदला कि देश के दूसरे इलाकों की तरह यहां की मुख्य नदियां भी गरमियों में सूखने लगीं। सहायक नदियां, छोटी-छोटी धाराएं और चौर, सपाट मैदान में बदल गये और लोगों ने उन पर कब्जा कर खेत और मकान बना लिये। कभी इस इलाके में नेपाल से 206 धाराएं प्रवेश करती थीं, आज की तारीख में उनमें से तीन चौथाई से अधिक का अस्तित्व मिट गया है। दक्षिण बिहार की नदियों का भी यही हाल है। यही वजह है कि कभी नदी मातृक क्षेत्र के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र बड़ी तेजी से सूखे वाले इलाके में बदल रहा है।
उत्तर बिहार की प्रमुख नदियों की सहायक नदियां
1. कोसी (21)- बेती-धेमुरा, पुरइन, तिलावह, सोनेह, परवाने, चिलौनी धार, सुरसर धार, हइया धार, कोदई-गुलेला, लच्छा, इरन, फरियानी, कजला, गेरुआ-कमताहा, गोरोभगड़, चकरदाहा, नागर, हिरन, लिबरी, कारी कोसी और सौरा धार।
2. बूढ़ी गंडक(15)- हरहा, कापन, मसान, रामरेखा, बाणगंगा, पंडई, धोरम, करटहा, उरई, कोनहरा, झरही, तेलाबे, तियर, अनुरवा और धनौती.
3. कमला बलान (10)- कमला बछराजा, जीवछ कमला, पैठघाट कमला, सोनी, धौड़ी, बलान व अन्य धाराएं.
4. गंडक (7)- कुसुमा, बरिगड, त्रिसूली, वृद्ध गंडकी, मर्सिय गंडी, दारा मादी गंडी, सेती गंडकी।
5. बागमती(6)- लालबकेया, चकनाहा, सिपरी धार, छोटी बागमती, कोला, लखनदेई.
6. करेह(9)- अवधारा, हरदी, मरने, बघोर, मुरहा, धाउस, बेलौती, जमुने, थोमने।
नदियों के जानकार गजानन मिश्र कहते हैं, महज 15-20 साल पहले तक उत्तर बिहार में बगहा से लेकर किशनगंज के आखिरी सिरे तक 475 किमी की लंबाई में फैले इलाके में लगभग हर दूसरे-तीसरे किलोमीटर पर कोई न कोई छोटी या बड़ी नदी मिल जाती थी। नक्शे में आप देखेंगे तो ये शिराओं की तरह नजर आती हैं। ये शिराएं ही राज्य का सबसे बड़ा खजाना थीं। यह हमें पीने और सिंचाई करने के लिए जलराशि तो देती ही थीं, नमी, मछलियां और दूसरे जलजीवों से संपन्न बनाती थीं। ये नदियां इलाके के तालाबों और चौरों को भरती थीं। लोग मखाने की खेती करते थे। बारिश के दिनों में इन जलधाराओं में पानी के बंट जाने से बाढ़ की भयावहता भी कम हो जाती थी और सूखे के दिनों में छोटी-छोटी नदियां और चौर, मुख्य धाराओं को जल वापस कर देते थे। इससे मुख्य नदियां गरमियों में भी पानी से भरी रहती थीं। मगर इन धाराओं के सूखने से इलाके का पारिस्थितिकीतंत्र ही नष्ट हो गया है। कभी पानी ही हमारी सबसे बड़ी संपत्ति हुआ करता था, मगर आज हमारी पूरी खेती बोरवेल पर निर्भर हो गयी है। न नदियों में पानी है, न नहरों में और न तालाबों में।
वे कहते हैं, कोसी, कमला बलान, बागमती, घाघरा, फल्गु और बूढ़ी गंडक ऐसी नदियां हैं, जो एक साथ कई-कई धाराओं में बहती रही हैं। कोसी की 21, घाघरा की 13, कमला बलान की 10, फलगू की नौ, बूढ़ी गंडक की 15, करेह की नौ, गंडक की सात, बागमती की छह और महानंदा-कनकई की छह धाराओं का जिक्र हवलधार त्रिपाठी सहृदय ने अपनी पुस्तक ‘बिहार की नदियां’ में किया है। इसके अलावा इन सहायक नदियों से जगह-जगह पर कई धाराएं फूटती रही हैं। जल संसाधन विभाग के नक्शे पर अगर आप देखें तो पायेंगे कि पूरा बिहार इन जलशिराओं से भरा है। मगर आज इन शिराओं में जल नहीं है। कमला की सहायक नदियां बछराजा कमला और जीवछ कमला जो कभी कमला की मुख्य धाराएं हुआ करती थीं, आज सूखी पड़ी हैं। पूर्णिया जिले में कोसी की कई धाराओं का यही हाल है। चाहे कारी कोसी हो या हिरण धार या फरियानी धार। इनमें सालों से पानी नहीं है।
दक्षिण बिहार की नदियों की सहायक नदियां
1. घाघरा(13)- वासिष्ठी, ठुलाभेरी, सेती, भेरी, बवई, काली और शारदा, मनोरमा, कुटिला, कुवानो, राप्ती, छोटी गंडकी, झरही, दाहा।
2. पुनपुन(7)- आद्रि, मादर, बिलारो, नेरा, सिनेने, पंगछारा, मुरहर।
3. फल्गु(9)- निरंजना, सरस्वती, मोहाने, सूनर, भुरभुरी, मनसिंघी, ननयांग, जलवार, पेंगवार।
4. कियूल, चानन, अंजना(6)- मउरा, उलाई, नगिनी, इंद्राणी, कसमऊ, हरोहर।
5. सोन, कर्मनाशा, काव आदि नदियां।
हिरण धार तो पूरी तरह खेत में बदल गया है। वहां जाने पर कोई समझ भी नहीं सकता कि यहां से कभी कोई नदी बहती थी। पूर्णिया जिले के कप्तान पुल के नीचे से बहने वाली कोसी के कछार में इन दिनों मकान खड़े हो रहे हैं। बागमती और बूढ़ी गंडक की सहायक नदियां भी पस्त हाल हैं। ऐसा क्यों हुआ? इस मसले पर विशेषज्ञों की राय अलग-अलग है। जहां गजानन मिश्र तटबंधों को इसका जिम्मेदार बताते हैं तो वहीं जाने-माने नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र जिन्हें इन दिनों ‘नमामि गंगे परियोजना’ के थिंक टैंक में शामिल किया गया है, इसे ग्लोबल वार्मिंग और मौसम के बदलाव का प्रतिफल मानते हैं।
गजानन मिश्र कहते हैं कि यह सबकुछ एक झटके में नहीं हुआ। अंग्रेजों के समय से ही गाहे-बगाहे लोगों के मन में नदियों के खिलाफ गलत भावनाएं भरी जाने लगी थी। कहा जाने लगा था कि नदियां बेकार हैं। इनकी वजह से बाढ़ आती है, और लोगों को परेशानी होती है। इसलिए नदियों को तटबंधों से घेर कर रखना चाहिये। 1950 की राष्ट्रीय बाढ़ नीति में भी इस बात की वकालत की गयी और आनन-फानन में कोसी, कमला बलान, बागमती, महानंदा और बूढ़ी गंडक के दोनों तरफ तटबंध बनाने का काम शुरू हो गया। हालांकि इन्हें बांधने में वक्त लग गया और संरचनात्मक त्रुटियों की वजह से इनका संपर्क अपनी सहायक नदियों से बना रहा। मगर जैसे ही ये तटबंध मजबूत हुए, इन बड़ी नदियों का सहायक नदियों, धारों और छाड़न से संपर्क खत्म हो गया और ये बरसाती नदियां बनकर रह गयीं। सालों भर प्रवाह के अभाव ने इन नदियों के किनारे में अतिक्रमण को बढ़ावा दिया और इन्हें पाट कर खेतों और मकानों में बदला जाने लगा।
दिनेश मिश्र तटबंधों को इसकी वजह नहीं मानते। वे कहते हैं कि हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक ये 206 धाराएं सीधे नेपाल से ही बिहार में प्रवेश करती हैं। सच यही है कि पिछले पंद्रह सालों में इस इलाके में बारिश में काफी कमी आयी है। मुख्य नदियों का भी जलस्तर गिरा है। कभी 8-9 लाख क्यूसेक जल प्रवाह को देख चुकी कोसी नदी में पिछले 20-25 सालों से कभी 4 लाख क्यूसेक पानी नहीं बहा। दूसरी नदियों का भी वही हाल है। इन नदियों के सूखने की वजह ग्लोबल वार्मिग या मौसम में तेजी से आ रहा बदलाव ही है, हालांकि उत्तर बिहार में आने वाला यह बदलाव गंभीर चिंता का विषय है। तीन-चार हजार साल की अपनी सभ्यता के दौरान कभी यहां की महिलाओं के सिर पर पानी का मटका नजर नहीं आया। मगर जो हालात बन रहे हैं, हमें बहुत जल्द यह दृश्य देखने के लिए तैयार हो जाना चाहिये।
वजह चाहे तटबंध हों या ग्लोबल वार्मिंग, मगर उत्तर बिहार की आठ-नौ मुख्य नदियों से जुड़ी दो सौ के करीब धाराओं का मिट जाना इस इलाके के लोगों के लिए बड़ी चिंता का विषय है। कभी पग-पग पोखर और मछली-मखान के लिए जाना जाने वाला यह राज्य बड़ी तेजी से धूल के मैदान में बदल रहा है। गजानन मिश्र कहते हैं, दुर्भाग्यवश यह बदलाव किसी को परेशान नहीं कर रहा, न सरकार को, न जन प्रतिनिधियों को, न बौद्धिक समाज को और जनता तो हर हाल में जी ही लेती है। एक पानी ही तो हमारी ताकत था, वह भी खत्म हो जायेगा तो पहले से ही गरीबी की मार झेल रहा यह इलाका और कंगाल ही होगा।
(साभार-प्रभात ख़बर)
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।
नदियों के स्रोत ही सूख रहे हैं… पढ़ने के लिए क्लिक करें