विनोद कुमार मिश्र
साल 2007 में संयुक्त राष्ट्र संघ में विकलांगों के अधिकार आधारित व्यवस्था के निर्माण हेतु जब घोषणा पत्र जारी हुआ तो हस्ताक्षर करने वालों में भारत अग्रणी देशों में शुमार था। आज 8 वर्षों के बाद इसका अनुपालन करने वालों में भारत पिछलग्गुओं में सम्मिलित है। वर्ष 1995 में विकलांग कानून पारित हुआ, लेकिन उसकी कई धाराएं भ्रामक थीं और इसमें अनेक शर्तें शामिल थीं। पर धीरे-धीरे विभिन्न उच्च-न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेशों में इसकी धाराओं की स्पष्ट व्याख्या की और 8 अक्टूबर 2013 को अपने ऐतिहासिक आदेश में भारत सरकार को निर्देश दिया कि सभी सरकारी विभागों व सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में विशेष भर्ती अभियान द्वारा सभी श्रेणियों के खाली भरे पदों पर भर्ती पूरी करे। सरकार अभी तक यह नहीं कर पाई है, जो सरासर अदालत के फ़ैसले की अवमानना और अवहेलना है।
अक्सर देखा गया है विकलांगों को भर्ती करते समय, (विशेष कर उच्च पदों पर) उन्हें कार्य दायित्व के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया जाता है तथा पिछले दरवाजे से पदोन्नति या प्रतिनियुक्ति द्वारा सामान्य व्यक्तियों की भर्ती कर ली जाती है। इस पर अंकुश लगाने के लिए बॉम्बे उच्च न्यायालय ने 4 दिसंबर 2013 को आदेश दिया कि सभी सरकारी विभागों व सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में पदोन्नति व प्रतिनियुक्ति में भी विकलांगों के लिए सीटें आरक्षित की जाय। इसी प्रकार का आदेश दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी पारित किया।
भारत सरकार ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी पर न्यायालय ने 12 सितंबर 2014 अपील खारिज कर दी। आज एक अरसे बाद भी भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त फैसले को लागू करने के लिए विभिन्न सरकारी विभागों व सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को कोई निर्देश नहीं जारी किये हैं। जब मुंबई उच्च न्यायालय में अवमानना का मुकदमा दायर किया गया तो भारत सरकार के कार्मिक विभाग ने अपनी मजबूरियां गिनवा दीं। अवमानना के मामले में न्यायालय के फैसले के बाद भी सरकार की मजबूरियां समाप्त हो पाएंगी, इसमें संदेह है। लगता है सरकार विकलांगों से अधिक मजबूर है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में विकलांगों के लिए अधिकार आधारित व्यवस्था के निर्माण हेतु घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने के साथ ही यह सरकार का दायित्व बन गया है कि वह विकलांगों के लिए नया कानून पारित करे जो अधिक स्पष्ट व बाध्यकारी हो। लंबी जद्दोजहद के बाद यह निर्णय किया गया कि पुराने कानून में पैबंद लगाने के स्थान पर नए कानून के लिए प्रारूप तैयार किया जाय। नया विधेयक तैयार हुआ भी, पर वह वर्ष 2012 से भारतीय संसद में धूल फांक रहा है। इस बीच सरकार बदल गई। पर विधेयक के अच्छे दिन नहीं आए।
आज आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी व्यवस्था तैयार की जाय जिसमें विकलांगों के लिए अवसरों की कमी न हो।उन्हें किसी का मुंह ताकना न पड़े। इसके लिए अवरोध मुक्त समाज की आवश्यकता है। विडंबना यह है कि इस संबंध में विकसित अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का अनुपालन शहरों विशेष कर उन व्यवस्थाओं में तो हो रहा है जिनका उपयोग उच्च या उच्च मध्यम वर्ग के लोग ही करते हैं पर ग्रामीण या कस्बाई व्यवस्था अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रही है। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे, मेट्रो रेल, बड़े रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, उच्च विशेषज्ञता वाले अस्पताल, बड़े शिक्षण संस्थान तो अवरोध मुक्त हो चले हैं पर ग्रामीण व कस्बाई बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, स्कूल, डिस्पेंसरियों तक गंभीर विकलांग जन पहुंच ही नहीं पाते या उन्हें बड़ी मुश्किलें झेलनी पड़ती है।
कुशाग्रबुद्धि विकलांग बच्चे विशेष कर लड़कियां न तो विज्ञान विषय ले पाते हैं और न ही आईटीआई, पॉलीटेक्नीक और अन्य कौशल विकास केन्द्रों का लाभ उठा पाते हैं। कला विषयों की पढ़ाई उन्हें रोजगार से दूर कर देती है। सरकार ने सभी प्रकार के शिक्षण संस्थानों में जो सीटें विकलांगों के लिए आरक्षित की है, वे खाली पड़ी रह जाती हैं। डिग्री लेने के बाद भी जब विकलांग जन खाली घूमते हैं तो अनेक प्रकार की कुंठाओं का शिकार हो जाते हैं। दूसरी ओर अनेक बड़ी कंपनियां जिनमें आईबीएम भी शामिल है, जब अपने यहां काम करने के लिए विकलांगकर्मी ढूंढ़ते हैं तो उन्हें भी निराशा ही हाथ लगती है।
एक समय में चीन में विकलांगों की दशा अत्यंत दयनीय थी, पर आज वहां के 85 प्रतिशत कार्य करने योग्य आयु के विकलांगजन रोजगार में लगे हुए हैं। वहां पर ग्रामीण तथा शहरी दोनों ही क्षेत्रों में विकलांगों की औसत आय राष्ट्रीय औसत का लगभग 40 प्रतिशत है। तथा उन्हें हाथ फैलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। क्या भारत सरकार इस क्षेत्र में चीन से कोई सबक लेगी। अच्छे दिन तभी आ सकते हैं जब समाज में व्याप्त भौतिक अवरोधों के साथ मानसिक अवरोध भी समाप्त हो जाएं। इसके लिए अब तक न्यायालयों के प्रयास तो सराहनीय हैं पर राजनैतिक दल के साथ ही सामान्य जन और समाज सोया पड़ा है।
विनोद कुमार मिश्र। लेखक । ‘‘विकलांगों के जीवन प्रबंधन में सहायक युक्तियों की भूमिका-भारतीय संदर्भ में एक अध्ययन’’ पर शोध प्रबंध। इस अनुसंधान पर आधारित उनकी पुस्तक ‘‘विज्ञान की विकलांगता पर विजय’’ भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद’’ (आई.सी.एम.आर.) द्वारा प्रथम पुरस्कार से नवाजी गई।
दिव्यांग स्कूली बच्चों का शारीरिक श्रम का पाठ… रिपोर्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें
Its is the fact but we hope that we shall give full attention and care to them who deserve for a huge support from society and they are not less than anybody in any case.
In the article, Views are Very Well Expressed about present situation with Corrective Actions , however governance now a days trying their best efforts for the inclusion of person with different disabilities in the workforce of different government units , yes its true that situation is not pleasant still at present , as required but yes picture is now starting to change beshak slowly slowly.
We can hope for the best and more and more attempts from Union/State Governments with integration , once the new bill on disability will execute and implement effectively as yet in pipeline and due for review .
Brilliant expression of words…
I hope this article will enlighten the thoughts and more attention will be effectively implemented on the said issue. Let’s hope the desired results will be equally efficient.
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