अरविंद दास
विद्रोही जी नहीं रहे। जेएनयू का एक कोना हमेशा-हमेशा के लिए सूना हो गया। जेएनयू में एक लंबा दौर ऐसा रहा है, जिसमें विद्रोही जी विचरते रहे हैं। उनसे जिसने संवाद किया उनकी यादों में भी और जिन्होंने उन्हें बस दूर से ही अपनों में खोया देखा, उनकी यादों में भी… विद्रोही जी हमेशा रहेंगे। ये ब्लॉग अरविंद दास ने सालों पहले लिखा था, जब विद्रोहीजी हमारे बीच में थे, अब वो नहीं है तो इस आलेख का ‘काल’ बदल कर हम उनकी यादों को ताजा कर रहे हैं… उन्हीं के अंदाज में।
उदय प्रकाश ने केदारनाथ सिंह की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा है– ‘वे एक उदास गिरगिट से बात कर सकते हैं।’ दोनों ही बड़े नाम हैं। लेकिन मैं जिनकी बात कर रहा हूं, वे केदारनाथ सिंह के छात्र और उदय प्रकाश के समकालीन एक अलक्षित कवि रह गए। आपने शायद ही रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविताओं को सुना हो, अगर आप जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बाहर रहते हैं। पर जेएनयू परिसर में ‘विद्रोही’ आपको जब-तब गोपालन की कैंटीन में, टेफ्ला के बाहर और शाम को गंगा ढाबे पर एक अंधेरे कोने में मिल जाया करते।
सालों तक लगभग हर शाम इस अंधेरे कोने में अपनी मंत्र कविताओं को बुदबुदाते विद्रोही जी मुझे एक उदास गिरगिट से बात करते दिखे थे। चेथड़ी लपेटे, रसहीन चाय के प्याले को हाथ में थामे वे कहते- ‘मैं तुम्हारा कवि हूं।’ वे अपनी लय और ताल में रहते-
आसमान में धान बो रहा हूं
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूं, पगले!
अगर जमीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।’
विद्रोही जी केदारनाथ सिंह की कविता ‘नूर मियां’ से आपको आगे ले जाते और बार-बार पूछते- ‘क्यों चले गए नूर मियां पाकिस्तान/ क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियां के!’
अडर्नो ने पूछा था कि ‘आश्वित्ज’ (Auschwitz) के बाद कैसे कोई कविता लिख सकता है!’ इस सवाल में ध्वनि यह थी कि कैसे ‘आश्वित्ज’ यातना शिविर की भयावहता को हमारे सामने रखा जा सकेगा। इस कविताहीन, बिकाऊ समय में सवाल मौजूं है कि कैसे कोई कवि नूर मियां की पीड़ा को शब्द दे सकेगा। पर विद्रोही जैसे कवियों को सुनते हुए आशा बची रही।
युवा फिल्मकार नितिन पमनानी ने एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई थी- ‘मैं तुम्हारा कवि हूं।’ इसके केंद्र में विद्रोही थे। कवि विद्रोही और उनकी कविताओं के ताने-बाने से हमारे समकालीन समाज और व्यवस्था पर यह वृत्तचित्र एक सार्थक टिप्पणी है।
करीब तीन दशकों तक विद्रोहीजी ने जेएनयू को अपना बसेरा बनाए रखा। अगस्त 2010 में जब उन्हें जेएनयू प्रशासन ने अभद्र भाषा के इस्तेमाल के आरोप में परिसर से निकाल दिया था, तब मैं उनसे जेएनयू के नजदीक मुनिरका में मिलने गया था। एक आशियाने की तलाश में वे भटक रहे थे। एक छात्र के अंधेरे बंद कमरे में वे एक कुर्सी पर उंकड़ू बैठे थे। परिचय देते हुए जैसे ही मैंने कहा कि मैं बीबीसी के लिए लिखूंगा, तो छूटते ही उन्होंने कहा- ‘तुम्हें देख मुझे प्रसाद की पंक्ति याद हो आई है…‘कौन हो तुम बसंत के दूत, नीरस पतझड़ में अति सुकुमार….!’
मुझे लगा कि अगर एक कवि विक्षिप्त भी हो तो वह गाली नहीं देता, कविता की पंक्तियां दुहराता है। उन्होंने कहा था- ‘जेएनयू मेरी कर्मस्थली है। मैंने यहां के छात्रावासों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुजारे हैं। हर विश्वविद्यालय में दो-चार पागल और सनकी लोग रहते हैं, लेकिन उन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती, मुझे इस तरह निकाला गया जैसे मैं जेएनयू का एक छात्र हूं।’ कुछ दिनों के बाद जेएनयू ने अपना निर्णय वापस ले लिया और विद्रोही जी परिसर वापस लौट आए थे।
एक दिन शाम को गंगा ढाबे पर विद्रोही जी मिले तो मैंने उनसे कहा- ‘बधाई हो, नितिन की फिल्म को मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री पुरस्कार मिला है।’ चाय की प्याली थामे जैसे उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी और उसी अंधेरे कोने में वे पहले की तरह एक उदास गिरगिट से बात करने लगे…!
अरविंद दास। पत्रकार एवं शोधार्थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में स्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता में डिप्लोमा। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी। ‘हिंदी में समाचार’ नामक पुस्तक लिखी। आप उनसे [email protected] पर संवाद कर सकते हैं।