शिरीष खरे
इन दिनों में रिसर्च के कामम से गोवा भ्रमण पर हूं और खासकर ग्रामीण परिवेश और स्कूलो के बदलते स्वरूप को देखने का मौका मिल रहा है, यकीन मालिये हिंदुस्तान के पूर्वी राज्यों के सरकारी स्कूलों से यहां की शिक्षा व्यवस्था की गुना ना सिर्फ बेहतर है बल्कि वक्त के हिसाब से ठीक भी है।पणजी से 40 किमी दूर मूलगांव के शासकीय स्कूल जाने कामका मिला और जो कुछ देखा और समझा वो एक उम्मीद जगाती है कि अगर सरकार या फिर इंसान चाह ले तो क्या कुछ नहीं कर सकता ।
यहां कोंकणी, मराठी और हिंदी भाषी बच्चों की क्लास को पढ़ाना कोई समस्या नहीं, बल्कि ऐसी ताकत है जिसने शिक्षिकाओं का काम काफी हद तक आसान कर दिया है। बच्चे खुद ही एक-दूसरे से भी बहुत कुछ सीख और समझ लेते हैं, क्योंकि यहां शिक्षिका का काम समूह में कुछ गतिविधि कराना और अंत में मुख्य बिंदुओं का विश्लेषण करना भर होता है.
आमतौर पर घर, खेत, खलिहान और दुकानों पर काम करने वाली महिलाओं के काम को काम नहीं माना जाता है. बच्चों को पालने और उन्हें बड़े करने तथा आर्थिक गतिविधियों में सहयोग करने के बावजूद ऐसी महिलाओं को नहीं लगता कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में कुछ विशेष किया है. पर, पणजी से करीब पचास किलोमीटर दूर के हसापुर पिरणा गांव के लोगों ने अपने समुदाय की साठ पार साठ ऐसी ही महिलाओं की एक सूची बनाई है. यहां के बच्चे इन महिलाओं को या तो स्कूल में आमंत्रित करते हैं या घर जाकर उनका सत्कार करते हैं. ये इन महिलाओं के संघर्ष की कहानी को समझने के लिए समूह में एक प्रश्नावली भी बनाते हैं और उनसे बातचीत करते हैं. गृह-कार्य के माध्यम से स्कूल बच्चों के साथ उनके परिजनों से जुड़ता है, पर गोवा के इस सरकारी स्कूल का यह कार्यक्रम स्कूल को पूरे गांव से जोड़ रहा है.
आमतौर पर ग्राम-पंचायत जैसी संस्थाएं स्कूल को बदलने की कोशिश करती हैं. लेकिन, गोवा के कुछ स्कूल कुछ-कुछ मुद्दों पर ऐसी संस्थाओं की सोच और कार्य-पद्धति को बदलने की कोशिश कर रहे हैं. शासकीय प्राथमिक शाला-शिरगांव, डिचोली, गोवा
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।