डॅा० जयकान्त सिंह ‘जय’
हमार गतर-गतर गँवई गरिमा के गवाही देला। रोंआँ-रोंआँ ओकरे रिनी (ऋणी) बा। हमार मन-मिजाज आ दिल-दिमाग हर घरी ओही गँवई गंध-सुगंध में बोथाइल-गोताइल रहेला। नोकरी-चाकरी के चक्कर में भलहीं शहर में रहेला ई देह। बाकिर, आजुओ गाँवे के घर-परिवार, अँगना-दुआर, पड़ोस-पटिदार, दोस्त-इयार, खेत-बधार वगैरह सबमें लपटाइल-अझुराइल रहेला नेह-सनेह।
हमरा ऊ लोग फुटलो आँखि ना सोहालन, जिन लरिकाईं से लेके बय अवस्था तक गाँवे गोदी में पलइलें-पोसइलें, ओकरे हाथ से नहइलें- खइलें, ओकरे माटी देहे मल- मल के सगेयान भइलें, ओकरे पानी के पाके पम्ह भींजल आ ओकरे दूध पी-पी के नगदे गभरु जवान भइलें, अउर ओकर बह भरे आ नीख देवे के बारी त ओकरा डँहकत- कुहकत, कंगाल-फटेहाल बना के शहरी बन गइलें। तीज-तेवहार भा घर के कवनो मंगल-उत्सव वगैरह में जब कबो गाँव आवे के होला त पहिले त कवनो बहाना बना के बारे के कोशिश करेलें, बाकिर, जब कबो गाँवे आवल मजबूरी हो जाला त गाँवे आ के गाँव के पिछड़ला पर लामा- लामा भाषण झारेले। पानी पी -पी के आर्थिक आ शैक्षिक विकास में नयका दौर में पिछुआइल गँवई मनई आओकरा जमात-समाज के कोसेलें। गाँवन के बदहाली- फटेहाली के गुनहगार अपने आ कोसेला लोग गाँव के।
जवानी ले गाँव के सब रस चूस के ओकर बिना रीन चकवले, भा बिना नीख देवे, भा बिना बह भरले, अपना श्रम, शिक्षा आदि से ओह शहर के सम्पन्न-समृद्ध बनावे में मस्त आउर व्यस्त हो गइलें। अइसन एहसान-फरामोस, कृतघ्न, मक्कारन के मुँह सेगाँव के शिकायत सुनके देह मे आगि लाग जाला। गाँव के पिछड़ला के कई वजहन में एगो वजह अइसन कपूतन के सुविधाभोगी सोच आ नमकहरामियो बा। हमरा इहाँ के बहुते प्रचलित कहाउत बा – “कम पढ़ल से गइल काम से, ढ़ेर पढ़ल से गइल गाम से”। आ ” गाँव-जवार के नेह भुलाला, माई-बाप तब बोझ बुझाला।” ई सब कहाउत-लोकोक्ति गाँव से शहर जाके सुख-सविधा आ मउज-मस्ती में मशगूल भइल अइसने तथाकथित पढ़ुआ अपस्वार्थी कपूतन खातिर कहल बा।
गाँव के एगो घटना मन पड़ गइल। छठ के छुट्टी में गाँवे गइल रहीं। पड़ोस में कवनो बात के लेके पंच लोग बिटो-राइल रहे। हमरा भइल कि पँचाइत आ एह परिवार में। अरे ई त एह गाँवे के ना, बल्कि एह जवार के सबसे पढ़ल-लिखल शिक्षित परिवार ह। आ टहलू काका के अलावे आउर केहू गाँवे रहे ना। सभे बड़का-बड़का ओहदा के नोकरी करे वाला बहरवासुत बा। एक जना त बिदेस गइलें त माई-बाबू के कजियो में ना अइले। अपना टहलू चाचा के नाम शोक-संदेश भेज के माई-बाप का रीन से उरिन हो गइलें। पटिदारी के बात रहे। कइसे ना जइतीं। मन ना मानल। पहुँच गइनीं। परनामा-पाती के बाद हमरो एगो कुर्सी मिलल आ हम बइठ गइनीं। पैंतीस साल बाद बेतिया से गाँव आइल रहस इंजीनियर साहेब मतलब टहलू काका के मझिला जेठ भाई। गाँव के नइकी पीढ़ी त उनका के चिन्हतो ना रहे। अब पंचो लोग मुँह देखल बात करता।
बाकिर, परीछन बाबा पुरनका जुग के आदमी रहस। इंजीनियर साहेब के बात काटत कहलें-देखS इंजीनियर, बसावन भइया खेत बन्हिक धSके, पंइचा- उधार ले-ले के तोहनी चारो भाई के पढ़ा-लिखा के हाकिम बना दिहलें। तोहनी गाँव खातिर का, उनको खातिर बुढ़ाई में गूलर के फूल हो गइल। तीज-तेवहार पर आइल त दूर, तूँ त उनका बेमारो पड़ला पर ना अइल। अपना चपरासी के मारफत पाँच सौ रुपइया भेज के निश्चिंत हो गइल रह। फेर उनका मरला के बादे आइल रहS आ सराध कइला के बाद जे गइल त अबकिरे आइल बाड़। गाँव आवत-जात रहितS,एको आँख से टहल के देखले रहितS। लोग त टहल के ई दिन देखे के ना पड़ित आ इनकर लरिका देखरेख आ पइसा का अभाव में बेफाँट ना होइत। आज गलत का साथ-संघत में पड़ नशेरी-भँगेड़ी हो गइल। आ ओकरा के केहू बहला-फुसलाके भा खिया-पियाके अवने- पवने भाव में ओकरा भा तोहरा हिस्सा के जमीन अपना नावे घँसवा लेता तब तूँ कहS त बाड़ कि गाँव खराब हो गइल बा। अब गाँव भले आदमी के रहे लायक नइखे रह गइल त अब हम तोहरे से पूछत बानी कि एकरा खातिर तोहनी लेखा मतलबी लोग का दोषी नइखे? कानूनी तौर पर ऊ लरिका जरुर दोषी बा। बाकिर, हमरा समझ के मोताबिक नैतिक रूप से तूँहूँ कम दोषी नइखS।
परीछन बाबा के साफगोई के बाद इंजीनियर साहेब के बकारे ना निकलत रहे। हमहूँ सोच में पड़ गइनीं। का रहे ई गाँव आ का हो गइल। देखते-देखते गाँव का से का हो गइल। हमनी शहर में बड़-बड़ मंच से सभा-सोसायटी में केतना लामा-लामा लच्छेदार भाषण आ उक्ति -सु्क्ति फेकिले स आ इहाँ अपने घर-परिवार आ गाँव – जवार एह गति के पहुँच गइल। तबसे हमार मन गाँव – जवार खातिर कुछ ना कुछ करे खातिर भीतरे भीतर बेचैन करत रहेला। अपना निकम्मा- पन पर अपने के खोबसत- धिकाड़त रहेला।
डॅा० जयकान्त सिंह ‘जय’। रउआ, एलएस कॉलेज, मुजफ्फरपुर में भोजपुरी विभाग के हेड बा। गांव के खातिर आपन सोच के बारे में इ लेख पढ़े के बाद कहे के लेल कुछ बाचल नइखे। जन्म स्थान- चरिहारा, मशरक, सारण। भोजपुरी पत्रिका उगेन, भोर के संपादक। महासचिव, भोजपुरी साहित्य परिषद।
डा. जयकांत सिंह जय की यह रपट बेहद शानदार है। गांवों को समझने के लिए इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए। हम बदलते समय के साथ इस कदर बदल रहे हैं कि गांवों को अब इस नजरिए से नहीं देख पा रहे हैं। जयकांत जी ने हमें जड़ों की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया है।
बेहतरीन लेख… शब्दों का चयन… चित्रण बेहतरीन