काली घटा में जिया लरजे… गा ले कजरी सखि

सत्येंद्र कुमार

kajri sawanसावन बीत जाए और कजरी की बात ना हो तो मजा नहीं आता। छहर-छहर बरसते बदरा के पानी में भींग कर झूला खेलने और कजरी गाने का आनंद न लिया जाए तो सावन का कोई मतलब ही नहीं। सखी श्याम बिन बिरही बसुरियां ना, जब से गइलेंन घनश्याम सब भइलेंन बेहाल, सखी बिरह से मातल मोर सरिरियां ना, सखी श्याम बिन बिरही बसुरियां ना

सावन में जब आप बनारस, मिर्जापुर, चंदौली, गाजीपुर, जौनपुर, देवरिया और बलिया के इलाकों में जाएं तो ऐसे गीत सुनने को मिलते हैं। इन गीतों को कजरी कहते हैं। झूला झूलती महिलाएं बड़े प्यार से कजरी गाती हैं। सावन में गांव की महिलाएं और पुरुष भी इकट्ठा होकर ढोलक के साथ ये गीत गाते हैं, हालांकि धीरे-धीरे कजरी गाने का चलन कम हो गया है, फिर भी पूर्वांचल की महिलाएं आज भी कजरी गाती हैं।

सेजिया पे लोटे काला नाग हो, कचौड़ी गली सून कईलैं बलमू

मिर्जापुर कईलैं गुलजार हो, कचौड़ी गली सून कईलैं बलमू..

ऐसी तमाम बोलियों की पहचान गांव से भी मिटती जा रही है। संयोग और वियोग श्रृंगार के अलावा कजरी में भक्ति, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और ऐतिहासिक ज़िक्र भी सुनने को मिलते हैं। मिर्जापुर और वाराणसी में कजरी गानेवालों के दो दलों में रात-रात भर प्रतियोगिताएं चलती हैं और विजयी कजरी-गवैयों को पुरस्कार दिया जाता है।

झूला लागल कदम की डारी, झूलें कृष्ण मुरारी ना

राधा झूलें कान्ह झुलावें, कान्हा झूलें राधा झुलावेंपारा-पारी ना 

सावन की तीज और अन्य पर्व मनोरंजन के साधन, मेल मिलाप के अवसर हुआ करते हैं। हमारे गांव में भी हमारी बुआ और गांव की लड़कियां नीम के डाल पर झूला लगाकर झूलती थीं और इस मधुर गीत को गाती थीं।घिर घिर आई बदरिया, सजन घर नाही रे रामा और धीमे धीमे बरसो रे बदरिया सजन घर नही आयो रे रामा‘। हम लोग भी उनके साथ झूला झूलते और खूब मस्ती करते थे। कहरबा निर्गुन, तीज पर कजरी, मिर्जापुर कजरी काफी मशहूर है। बुलन्दशहर के आस-पास के गांवों में सावन के महीने में गांव की बेटियां अपने मायके आती हैं और हल्की हल्की बारिश के बीच ही घर से निकल कर झूला झूलती हैं और कजरी गाती हैं।

जमुनी बेचारी झंखई नैहर की नगरिया, तिजिया न आईल ससुररिया से

कहे जमुनी, भैया आन दा चुनरियां… खास तीज कजरी के आइलबा बहरिया

गौउआ के सब सखी गावालिन कजरिया, घरवा में बैठिल बा भौजी पापिन अत्याचरिया

चल सखी भौजी के देवबई चुनरिया… तिजिया न आईल ससुररिया से

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और वाराणसी की कजरी को काफी लोकप्रियता हासिल है। कहा भी गया है कि रामनगर की रामलीला और मिर्जापुर की कजरी सर्वश्रेष्ठ है। मिथिला में सावनी माह में हिंडोले पर बैठकर नर-नारी मल्हार के गीत गाते हैं। राजस्थान में तीज के अवसर पर गाये जानेवाले हिंडोले के गीत भी कजरी के दायरे में आते हैं। कजरी में सिर्फ़ संयोग शृंगार ही नहीं, बल्कि वियोग की भी मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है।

आंखों से आंसू टपक रहे हैं…टप-टप, करूं कौन जतन अरी ऐ री सखी

मोरे नयनों से बरसे बदरिया,

उठी काली घटा, बादल गरजें, चली ठंडी पवन, मोरा जिया लरजे

थी पिया-मिलन की आस सखी… परदेश गए मोरे सांवरिया

जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है और गंवई ‘शहरी’ और ‘सभ्य’ बनते जा रहे हैं, वे अपनी संस्कृति और लोक चेतना से कटते चले जा रहे हैं। यही वजह है कि सावन पहले-जैसा ही आता है, छहर-छहर बरसकर चला भी जाता है। लेकिन झूले झूलने और कजरी गाने-गवाने की पहले-जैसी मनोहारी छटाएं देखने को मन तरस-तरस जाता है।

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सत्येंद्र कुमार यादव फिलहाल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं । उनसे मोबाइल- 9560206805 पर संपर्क किया जा सकता है।


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