गणतंत्र, तुझसे कुछ शिकवे हैं!

गणतंत्र, तुझसे कुछ शिकवे हैं!

मार्कण्डेय प्रवासी

गणतंत्र भूख की दवा ढूंढ कर लाओ
बीमार देश है , धन्वन्तर कहलाओ।
रह रहे शारदा के बेटे अधपेटे
कवि कलम बेच कर पुस्तक छपवाता है
अन्याय ,घूस , तस्करी , लूट सह कर भी
दिन रात तुम्हारा विजय गीत गाता है।

बरदान -प्राप्त पशु जड़ी -बूटियां चरते
डंडे से मारो उन्हें , खदेड़ भगाओ।
काम के लिए उंगलियां तड़पती रहतीं
पानी के बिना खेत जलते रहते हैं

श्रद्धा-विश्वास निगलने वाले अजगर
हर जगह कुर्सियों के नीचे पलते हैं।
अवसर के लिए तरसती हैं प्रतिभाएं
चमचों की सेना में भगदड़ मचवाओ।

मूकों को वाणी देना जुल्म नहीं है
अक्षर -साधना उपेक्षा अब न सहेगी
लेखनी अगर हथकड़ी पहन लेगी तो
सड़कों पर मचल-मचल तलवार लिखेगी।
नेताओं ने पा लिया बहुत कुछ है , अब
जनता को जनता का गौरव दिलवाओ।