काश ! ‘कछुआ चाल’ से ही चल पड़े विकास की ‘ट्रेन’

पुष्यमित्र

बुलेट ट्रेन की बात करने वाले पीएम मोदी कभी ऐसी ट्रेनों का सफ़र करें। फोटो-पुष्यमित्र
बुलेट ट्रेन की बात करने वाले पीएम मोदी कभी ऐसी ट्रेनों का सफ़र करें। फोटो-पुष्यमित्र

वैसे तो यह एक पैसेंजर ट्रेन की कहानी है जो बुलेट ट्रेन के जमाने में भी महज 16 किमी औसत रफ्तार से चलती है और कोसी इलाके के दो बड़े जिले सुपौल और सहरसा को जोड़ती है। मगर इस ट्रेन के बहाने यह समझने की कोशिश की गयी है कि देश के इस सबसे पिछड़े इलाके में आखिर क्यों विकास प्रक्रिया से जुड़ी हर परियोजना, हर कार्यक्रम और हर क्रियाकलाप इसी कछुआ चाल को अपना लेता है। नई सरकार बन रही है, क्या रुकतापुर भी चल पड़ेगा विकास की डगर पर?

लाल रंग वाले पुराने डिजाईन की एक जर्जर ट्रेन सहरसा स्टेशन के मीटर गेज वाले प्लेटफार्म पर खड़ी थी। वह ट्रेन सुपौल होते हुए राघोपुर स्टेशन तक जा रही थी। बताया गया कि सहरसा से राघोपुर तक की 63 किलोमीटर की दूरी यह ट्रेन 4 घंटे से भी अधिक वक़्त में तय करती है, यानी औसत गति 16 किमी प्रति घंटे से भी कम। वैसे तो यह भारत की सबसे धीमी गति की ट्रेन नहीं है। यह रिकॉर्ड नीलगिरी की पहाड़ियों में चलने वाली एक ट्रेन के नाम है जो 10 किमी प्रति घंटे की औसत रफ्तार से चलती है। दार्जिलिंग और शिमला जैसे पहाड़ी इलाकों में चलने वाली वाली टॉय ट्रेनें भी औसतन 25-30 प्रति घंटे की रफ़्तार से चलती हैं। फिर कोसी के समतल मैदानी इलाके में भी यह ट्रेन इतनी सुस्त क्यों है? यह सवाल अब इस इलाके में कोई नहीं पूछता, लोगों को आदत हो गयी है।

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लोगों को भी अब इस ट्रेन और रफ़्तार की आदत सी पड़ गई है। फोटो-पुष्यमित्र
लोगों को भी अब इस ट्रेन और रफ़्तार की आदत सी पड़ गई है। फोटो-पुष्यमित्र

पूछने पर ऑन ड्यूटी स्टेशन मास्टर पीसी चौधरी कहते हैं, इस रूट की पटरियां काफी पुरानी हैं और पटरियों के बीच कहीं एक भी बोल्डर नहीं है, ऐसे में ट्रेन यदि इससे अधिक स्पीड से चले तो एक्सीडेंट होने का ख़तरा रहता है। वहीं ड्राइवर मोहम्मद मुस्तफा कहते हैं, इस ट्रेन के लिए अधिकतम गति सीमा ही 30 किमी तय की गयी है। स्टेशन मास्टर चौधरी जी कहते हैं, यह ट्रेन पहले अररिया जिले के फारबिसगंज तक जाती थी। मगर सात साल से यह ट्रेन राघोपुर तक ही जा रही है। बड़ी लाइन के निर्माण के कारण मेगा ब्लाक है। सात साल से? जी हाँ, किसी रूट पर सात साल तक मेगा ब्लॉक रहना भी अपने आप में हैरतंगेज कहानी है। बहरहाल कोसी के तीन जिलों से गुजरने वाली यह ट्रेन अब दो जिलों से ही गुजरती है।

ट्रेन में ठीक ठाक भीड़ है। गरीब ही नहीं सम्पन्न तबके के लोग भी इस पर सवार मिलते हैं। लोग बताते हैं जर्जर और झेलाऊ होने के बावजूद सहरसा से सुपौल जाने के लिए इस ट्रेन से बेहतर कोई जरिया नहीं है। बस से जाइये तो टूटी सड़कों पर डेढ़ घंटे सफर भी कीजिये और 40 रूपये किराया भी दीजिये। यहाँ दो घंटे लग भले जाएँ मगर शरीर को थकावट कम होती है और किराया भी महज 10 रूपये लगता है। दफ्तर और कचहरी जाने वालों की अच्छी खासी तादाद ट्रेन पर सवार मिलती है। 8.15 में खुलने वाली यह ट्रेन 10 से 10.15 के बीच सुपौल पहुंचा देती है।

ट्रेन की रफ़्तार की फिक्र छोड़िए, कुछ सुख-दुख बतियाइए। फोटो-पुष्यमित्र
ट्रेन की रफ़्तार की फिक्र छोड़िए, कुछ सुख-दुख बतियाइए। फोटो-पुष्यमित्र

ट्रेन के खुलते ही समझ में आ जाता है कि इसकी अधिकतम गति सीमा 30 किमी ही क्यों रखी गयी है। चलते वक्त यह ट्रेन इतनी हिलती है कि लगता है कोई झूला झुला रहा हो। बरुआरी जा रहे एक सज्जन कामेश्वर मिश्र कहते हैं, यह ट्रेन चल रही है यह भी हमलोगों के लिए ऊपरवाले की मेहरबानी है। ट्रैक की जो हालत है उसमें इसे कब बंद करा दिया जाये, कहना मुश्किल है। वे बताते हैं कि एक बार नशे में चूर एक ड्राइवर ने ट्रेन की स्पीड बढ़ा दी। राघोपुर से आगे एक जगह पटरी मोड़ खाती थी, वहां जाकर ट्रेन पलट गयी। तभी से ट्रेन के राघोपुर से आगे जाने पर रोक लग गयी।

आखिर इतने लंबे समय से यह ट्रेन फारबिसगंज क्यों नहीं जा रही है, इसके जबाव में वे कहते हैं। यहां की परियोजनाओं में हमेशा फंड की कमी रहती है। 2002-03 से ही मीटर गेज को ब्रॉड गेज में बदलने का काम किया जा रहा है। मगर अक्सर पता चलता है कि फंड की कमी के कारण काम रुक गया है। उसी तरह 2008 की बाढ़ में सहरसा से पूर्णिया जाने वाली रेल लाइन जो टूटी सो आज तक इधर के लोग उधर नहीं जा पाते। कहा जा रहा है कि 2016 के मार्च से पूर्णिया वाली रेल लाइन पर ट्रेनें चलनी शुरू हो जायेंगी। पता नहीं, इस पर कितना भरोसा किया जाये। उसी तरह सहरसा से निर्मली होते हुए दरभंगा-मधुबनी जाने वाली रेल लाइन 1934 के भूकंप में जो क्षतिग्रस्त हुई उस पर यात्रा आज तक बहाल नहीं की जा सकी। स्टेशन ध्वस्त हो गये, पटरियां उखाड़ ली गयीं।

बकरी, बच्चे और बूढ़े। ट्रेन की सुस्ती से किसी को फर्क नहीं पड़ता। फोटो-पुष्यमित्र
बकरी, बच्चे और बूढ़े। ट्रेन की सुस्ती से किसी को फर्क नहीं पड़ता। फोटो-पुष्यमित्र

सुपौल जा रहे अरुण कुमार सिंह कहते हैं, दोष पब्लिक का भी है। इस रूट में इतना कम किराया होने के बावजूद कई लोग बिना टिकट यात्रा करते हैं। रेवेन्यू नहीं होगा तो रेलवे क्यों सुविधा बढ़ायेगा? मगर उनकी बात को काटते हुए संजय कुमार सिंह कहते हैं, टिकट नहीं कटाने वाले लोग बहुत कम हैं। मसला रेवेन्यू का नहीं कोसी के इलाके की उपेक्षा का है। चाहे राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार यहां का विकास उनकी प्राथमिकता में नहीं है। जब बाढ़ आती है तभी सबको कोसी याद आता है। एक अन्य यात्री निर्भयकांत झा कहते हैं। इसी इलाके में बनमनखी और बिहारीगंज स्टेशनों के बीच भी एक ट्रेन चलती है। जिसकी हालत इससे भी बदतर है। वह ट्रेन 27 किमी की यात्रा करने में दो घंटे लगाती है। वहां भी रेवेन्यू का सवाल उठा था। तब इलाके के लोगों ने खुद पहल कर स्टेशन पर बेटिकट लोगों को पकड़ना शुरू किया। अब उस ट्रेन में कोई बिना टिकट यात्रा नहीं करता। फिऱ भी उस रेलखंड की हालत में कहां कोई सुधार हुआ है।

pushy train-5दूसरी तरफ से आ रही ट्रेन को क्रॉस कराने के लिए ट्रेन गढ़ बरुआरी स्टेशन पर रुकती है। वहां स्टेशन पर यात्रियों की अच्छी खासी भीड़ है। टिकट काउंटर पर भी लंबी कतार नजर आती है। स्टेशन के बाहर कई चाय-नास्ते की दुकानें हैं. एक दुकानदार बताता है कि रोज इस स्टेशन से एक हजार से अधिक लोग यात्रा करते होंगे। इस स्टेशन से ट्रेन पर चढ़े शिबो यादव डॉक्टर को दिखाने सुपौल जा रहे हैं। वे बताते हैं कि ट्रेन नहीं होती तो यह इलाका टापू हो गया होता। डुमरी के पास सड़क पुल कितने साल से क्षतिग्रस्त है। यह तो यहां से चलने वाली ट्रेनें ही हैं कि लोग पटना जा पा रहे हैं। मोहम्मद आरिफ जो पीरगंज के रहने वाले हैं, सरायगढ़ उतरेंगे और वहां से एक घंटा पैदल चलकर अपने गांव पहुंचेंगे। उनके लिए यह जर्जर ट्रेन भी किसी वरदान से कम नहीं है। ऐसे में यह सहज ही समझा जा सकता है कि इस इलाके में रेल परियोजनाओं के तीव्रता से विकास की कितनी जरूरत है।

क्या इस चुनाव में यह मुद्दा बन पाया? हालांकि रेल का विकास तो केंद्र का काम है, मगर जिस तरह केंद्र की सरकार के पीएम समेत कई बड़े मंत्रियों ने बिहार में चुनाव प्रचार किया, जनता को क्या उनके ऐसे सवालों का जवाब मिला। क्या किसी गठबंधन ने ये वादा किया कि वह केंद्र पर इस इलाके में रेल परियोजनाओं के तेजी से विकास का दबाव बनाएगा। लोग कहते हैं, नही। यह बातचीत हो ही रही है कि तभी ट्रेन अचानक रुक जाती है। कौन स्टेशन है? एक सज्जन कहते हैं, रुकतापुर। मने… ? मने, जिसका मन हुआ चेन खीच कर रोक लिया और उतर गये। उस स्टेशन का नाम और क्या कहें, रुकतापुर ही न हुआ। जवाब में एक सज्जन कहते हैं, पूरा कोसी इलाका ही रुकता पुर है। काम शुरू होता नहीं है कि कोई चेन खींच कर काम रोक देता है।

(पुष्यमित्र की ये रिपोर्ट साभार- प्रभात खबर से)

PUSHYA PROFILE-1


पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।


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