दिवाकर मुक्तिबोध
नक्सली बैकफुट पर है। उनमें बौखलाहट है लेकिन वे राज्य से विदा नहीं हुए हैं। फिर भी उम्मीद की जा रही है कि राज्य सरकार की नई पुनर्वास नीति एवं अत्याधुनिक शस्त्रों से लैस सुरक्षा बलों के दबाव की वजह से देर सवेर राज्य को नक्सली आतंक से छुटकारा मिलेगा। पर यह तभी संभव होगा जब बस्तर संभाग के सभी गाँव खुली हवा में सांस ले सकेंगे। जब गाँवों में विकास कार्य होंगे, सड़कें बनेंगी, शिक्षा और स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया जाएगा। इसके लिए माकूल व्यवस्था बनाई जाएगी। ग्रामीणों को रोजगार मिलेगा और केंद्र व राज्य सरकार की तमाम योजनाओं पर ईमानदारी से कार्य होगा। आदिवासियों को हर तरह के शोषण से मुक्त करना नक्सलियों के खिलाफ संघर्ष की पहली जरुरत है इसलिए मूल चुनौती आतंक नहीं, विकास एवं शोषण से मुक्ति की है।
विकास के उपक्रम के तहत अब राज्य की रमन सिंह सरकार ने नक्सली क्षेत्रों में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों एवं सामुदायिक अस्पतालों में डॉक्टरों की तैनाती के लिए विशेष पैकेज की घोषणा की है। सवाल है जब बस्तर के सबसे बड़े शहर जगदलपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल के लिए डॉक्टर नहीं मिलते, तब धुर नक्सल क्षेत्रों में विशेष पैकेज का फार्मूला कैसे काम आएगा? यदि कोई डॉक्टर हिम्मत करके, जान की परवाह न करके, सेवा भावना से अभिभूत होकर वहां जाना भी चाहेगा तो क्या उसे उन तथाकथित स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सा से संबंधित समुचित सुविधाएं एवं सुरक्षा उपलब्ध रहेगी?
राज्य में स्वास्थ्य संस्थाओं, अस्पतालों का वैसे ही बुरा हाल है। प्रतिवर्ष सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण दूषित पानी के सेवन से, चिकित्सा के अभाव में डायरिया और मलेरिया से दम तोड़ देते हैं। ऐसी स्थिति में सुरक्षा की गारंटी के साथ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, सामुदायिक अस्पतालों को चिकित्सा की आधुनिक सुविधाओं एवं दक्ष पैरा मेडिकल स्टॉफ से लैस करना पहली जरुरत है। हालत यह हैं कि मशीनें हैं तो दक्ष तकनीशियन नहीं और तकनीशियन हैं तो मशीन नहीं।
स्वास्थ्य का ही नहीं प्राथमिक शिक्षा का भी नक्सल प्रभावित बस्तर, सरगुजा में यही हाल है। राज्य सरकार के स्कूली शिक्षा मंत्री केदार कश्यप एवं ग्रामीण विकास मंत्री अजय चंद्राकर ने स्वीकार किया है कि वामपंथी उग्रवाद के कारण 12 जिलों में पिछले 15 वर्षों से करीब दस हजार शिक्षकों की कमी है। इनमें 2300 से अधिक केवल साइंस शिक्षकों के पद रिक्त है इसलिए दोनों संभागों के 64 विकासखण्डों में आउट सोर्सिंग के जरिए शिक्षकों की भर्ती के प्रयत्न किए जा रहे हैं।
कांग्रेस ने स्थानीय लोगों के लिए रोजगार का मुद्दा उठाते हुए सरकार के इस फैसले का जोरदार विरोध किया है। अब सवाल है, सरकार क्या करे? सरकार के इन नुमाइंदों के अनुसार शिक्षकों की भर्ती के लिए 13 बार विज्ञापन जारी किए गए किन्तु योग्य उम्मीदवार नहीं मिले। इसलिए आउट सोर्सिंग यानी राज्य के बाहर के उम्मीदवारों को मौका देने का निश्चय किया गया। क्या इससे समस्या का समाधान हो पाएगा? शिक्षा के स्तर की तो बात ही छोड़ दें। प्रदेश के मुख्य सचिव विवेक ढांढ ने मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की मौजूदगी में एक कार्यक्रम में कहा कि 6वीं में पढ़ रहे लड़के को तीसरी कक्षा का भी ज्ञान नहीं। और 8वीं का विद्यार्थी पांचवीं की किताब भी नहीं पढ़ सकता। उच्च शिक्षा में भी लगभग यही स्थिति है। इससे पता चलता है कि राज्य में शिक्षा का कैसा बुरा हाल है।
बहरहाल सरकार के सामने विकास की बड़ी चुनौतियां हैं। राज्य में पिछले 12 वर्षों से भाजपा की सरकार है अत: समय की आड़ लेकर सवालों से बचा नहीं जा सकता। नक्सली आतंक का दायरा यदि सिमट रहा है तो जाहिर है इसका श्रेय सरकार को है किन्तु प्रभावित क्षेत्रों में डॉक्टरों की नियुक्ति का मामला हो अथवा शिक्षा कर्मियों की भर्ती का, बात तब तक नहीं बनेगी जब तक कि न्यूनतम जरुरतें, सुरक्षा और विश्वास के साथ पूरी नहीं होगी।
दिवाकर मुक्तिबोध। हिन्दी दैनिक ‘अमन पथ’ के संपादक। पत्रकारिता का लंबा अनुभव। पंडित रविशंकर शुक्ला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। संप्रति-रायपुर, छत्तीसगढ़ में निवास।
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