पहले शौचालय या देवालय… एक बार ‘जनार्दन’ से पूछिए

पुष्यमित्र

जहानाबाद का गांव । फोटो-पुष्यमित्र
जहानाबाद का बरहट्टा गांव । फोटो-पुष्यमित्र
मखदुमपुर विधानसभा से किस्मत आजमा रहे हैं पूर्व सीेएम जीतनराम मांझी।
मखदुमपुर विधानसभा से किस्मत आजमा रहे हैं पूर्व सीेएम जीतनराम मांझी।

जहानाबाद शहर से सिर्फ चार किमी दूर है बरबट्टा गांव। मुख्य सड़क के किनारे बसा यह गांव मखदूमपुर विधानसभा के अंतर्गत आता है। पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी यहां से एनडीए उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। उनके खिलाफ राजद ने सूबेदार दास को मैदान में उतारा है। जब हम वहां पहुंचे तो मंदिर के पास नवयुवकों की टोली खड़ी चुनावी बहस में मशगूल थी। उनमें से एक युवक राजीव यादव जो थोड़ा वोकल था, कहने लगा, वैसे तो हम आरजेडी के समर्थक हैं, पर अगर कोई पार्टी, कोई कैंडिडेट हमारे गांव का हनुमान मंदिर पक्का बनवा दे तो पूरे गांव का भोट उसी को दिला देंगे। चाहे ‘निर्दल्ली’ कैंडिडेट क्यों न हो।

चुनावी ज़मीन पर मुद्दों की पड़ताल-4

हर गांव की कथा का अपना संगीत है, उसे सुनने के लिए सुर साधना करनी पड़ती है। फोटो- पुष्यमित्र
हर गांव की कथा का अपना संगीत है, उसे सुनने के लिए सुर साधना करनी पड़ती है। फोटो- पुष्यमित्र

भाजपा समर्थक मंदिर की बात करे यह तो समझ आता है, मगर राजद समर्थक मंदिर के लिए इतना समर्पित हो यह बात समझ से परे थी। हमने उनसे पूछा, आपके लिए मंदिर इतना महत्वपूर्ण क्यों है, लोग रोजी-रोजगार, सड़क औऱ बिजली की बात करते हैं और आप गांव में मंदिर बनवाने के लिए कहते हैं। राजीव तो इस बात का ढंग से जवाब नहीं दे पाये, मगर वहीं हाथ में लोटा लिये खड़े एक अधेड़ सज्जन दास जी ने हमें इसका रहस्य बताया। उन्होंने बताया कि दरअसल सड़क किनारे बना यह मंदिर उनके गांव के सामुदायिक भवन की तरह है। लोगों की आस्था तो इससे जुड़ी ही है, गांव के पुरुषों के लिए उठने-बैठने की यही एक जगह है। यहां तक कि रात में पचासों लोग इसके इर्द-गिर्द सोते भी हैं। यहां लोगों का परिवार बड़ा है और जगह की कमी है, ऐसे में घर में इतनी ही जगह बचती है कि औरतें सो सकें। पुरुषों को रात बाहर ही गुजारनी पड़ती है।

आपकी चहलकदमी से जिंदगानी डिस्टर्ब हो जाती है। और ऐसी ही सवालों भरी निगाहों से दो चार होना होता है। फोटो- पुष्यमित्र
आपकी चहलकदमी से जिंदगानी डिस्टर्ब हो जाती है। और ऐसी ही सवालों भरी निगाहों से दो चार होना होता है। फोटो- पुष्यमित्र

हम दासजी के साथ बरबट्टा गांव के अंदर चल पड़े। 300 घरों वाले इस गांव में दाखिल होने पर पहली नजर में ही समझ आता है कि यहां जगह की घनघोर किल्लत है। 90 फीसदी घर आधा कट्ठा जमीन में बने हैं। एक-एक मकान में 15-20 लोगों का संयुक्त परिवार रहता है। रात किसी तरह घर में गुजरती है, सुबह होते ही लोग सड़कों पर आ जाते हैं। महिलाएं सड़क किनारे बैठ कर सब्जियां काटती हैं, कपड़े धोती हैं और बच्चों को नहलाती-धुलाती हैं। पुरुष अगर मेहनत मजदूरी के लिए बाहर नहीं निकले तो उनके पास बैठने का एक ही ठिकाना है, मुख्य सड़क के किनारे अधबना मंदिर। अगर मरद गांव में रहें तो औरतें एक काम न कर पायें।

गांव में महादलितों की भी ठीक-ठाक आबादी है, तकरीबन 120 घर। मगर उनकी हालत काफी गयी-गुजरी है। ऐसे ही एक घर में हम घुसे। यह रघुदास का घर था। उनकी पत्नी ने बताया कि उनके पास कुल तीन डिसमिल जमीन है, जिस पर उन्होंने खपरैल वाले तीन कमरे बनाये हैं। इसके बाद एक हैंड पंप के लिए जगह बची, आंगन के नाम पर पांच बाइ पांच फुट की एक जगह है। इस घर में वे दोनों पति-पत्नी के अलावा, उनके तीन बेटों का परिवार भी रहता है। कुल मिला कर इस छोटी सी जगह में 13-14 लोगों का संयुक्त परिवार किसी तरह रह रहा है। … और शौचालय? इस सवाल पर रघु दास की पत्नी चुप हो जाती है। पड़ोसी पिंटू चौधरी कहते हैं, कहां बनेगा लैट्रिन? आप ही बताइये, सुते का जगह हैइये नै है और हगवास खोजते हैं…
गांव में पानी के निकासी की कोई व्यवस्था नहीं। फोटो-पुष्यमित्र
गांव में पानी के निकासी की कोई व्यवस्था नहीं। फोटो-पुष्यमित्र

धीरे-धीरे लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। पता चलता है कि बरबट्टा गांव में सिर्फ तीन घरों में शौचालय है। यह भी अद्भुत कहानी है। मोदी जी, 2014 से भाषण दे रहे हैं, पहले शौचालय फिर देवालय। नीतीशजी ने अपने सात निश्चयों में घर-घर शौचालय को जगह दी है, मगर जहानाबाद के इस गांव में सिर्फ तीन घरों में शौचालय है और मतदाता मंदिर बनवाने के लिए कह रहे हैं। उनके तर्क में भी दम है, जमीन की कमी और बढ़ती आबादी की वजह से लोगों के पास रात में सोने के लिए जगह नहीं है। ऐसे में वे शौचालय की बात कैसे करें? और शौचालय बने भी तो कहां बने? हमारी बात-चीत सुन रहीं, शारदा देवी कहती हैं, यहां पानी बहाने का जगह ही नहीं है। पानी बहाने के नाम पर रोज माथा-फुटौव्वल होता है। शौचालय की बात क्या करते हैं?

नारे दीवारों पर कितने अच्छे लगते हैं... हक़ीकत से दो चार क्यों नहीं होते नेताजी?- फोटो- पुष्यमित्र
नारे दीवारों पर कितने अच्छे लगते हैं… हक़ीकत से दो चार क्यों नहीं होते नेताजी?- फोटो- पुष्यमित्र

यह सिर्फ इस गांव की कहानी नहीं है। सामाजिक आर्थिक जनगणना, 2011 के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 65 फीसदी आबादी भूमिहीन है। इनमें महादलितों और पिछड़ों की बड़ी आबादी शामिल है। पूरे बिहार में तकरीबन हर गांव में ऐसे दलित-पिछड़े परिवार बड़ी संख्या में मिलते हैं, जिनके पास खेती की जमीन तो नहीं है, रहने के लिए भी बहुत कम जमीन है। किसी के पास आधा कट्ठा तो किसी के पास दो डिसमिल। कलेंद्र चौधरी जो गांव के एक सम्मानित बुजुर्ग हैं, कहते हैं सरकार में बैठे लोगों को पता कहां कि जमीन पर क्या हालत है? कह देते हैं, घर-घर शौचालय बनायेंगे, मगर कहां बनायेंगे, कैसे बनायेंगे यह कोई नहीं सोचता?

रघुदास की घरवाली कहती हैं कि ठीक है, हमारे पास जमीन नहीं है। मगर हम फिर भी शौचालय बनाने को तैयार हैं। बहू-बेटी को सड़क के किनारे शौच करना पड़ता है, यह कोई अच्छी बात थोड़े ही है। एक कोठरी तोड़ देंगे। शौचालय ही बना लेंगे। मगर उसके लिए भी तो पैसा चाहिये। कितना पैसा चाहिये? इसके जवाब में वे कहती हैं, कम से कम 20 हजार। 20 हजार क्यों? इसका जवाब पास ही बैठे बिरजू दास फट से दे देते हैं। दस फीट गड्ढा खोदने में ही पांच हजार लग जाते हैं। ईंट 7,500 रुपये का लगता है। सीमेंट भी 7500 का ही लगता है, फिर बालू, मिस्तरी और लेवर का चार दिन का मेहनताना, दरवाजा, शौचालय का पैन सब मिलाकर खर्च तो 25 हजार के पार चला जाता है। अब अगर घर के लोग मेहनत मजूरी करने के लिए तैयार हो जायें तो 20 हजार में काम हो सकता है। जबकि सरकार सिर्फ 12 हजार रुपये की प्रोत्साहन राशि देती है, वह भी शौचालय बनने और जांच होने के बाद। बिरजू दास कहते हैं, 12 हजार में तो वैसा ही शौचालय बनेगा जो खुले में शौच से भी बेकार होगा।
इस घर में कहां सुते... कहां बनवाएं हगवास? फोटो-पुष्यमित्र
इस घर में कहां सुते… कहां बनवाएं हगवास? फोटो-पुष्यमित्र

गांव के जिन तीन लोगों ने शौचालय बनवाया है, उनके आवेदन मुखिया जी के पास साल भर से पड़े हैं। लाछो देवी कहती हैं, बेटा-बहू दोनों विकलांग हैं। ऐसे में उन्हें पता चला कि सरकार शौचालय बनवाने का पैसा देती हैं तो कर्ज लेकर शौचालय बनवा लिया। सोचा विकलांग बेटे-बहू को परेशानी नहीं होगी। मगर प्रोत्साहन राशि कहां फंसी है, कोई बता नहीं पा रहा। उनके इस अनुभव ने दूसरे लोगों को हतोत्साहित किया है। लोग सोचते हैं, जैसे काम चल रहा है, चल जाये। बरसों से बाहर शौच कर रहे हैं, क्या फर्क पड़ गया? दूसरी समस्याएं ज्यादा जरूरी हैं। वार्ड सदस्य मालती देवी ने भी शौचालय बनवा लिया है। इसकी वजह है, हाल ही में बिहार सरकार ने कानून बना दिया है कि जिनके घर में शौचालय नहीं है, वे पंचायत चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। बांकी लोगों के सामने ऐसी बाध्यता नहीं है। उनकी प्राथमिकताओं में दूसरे मसले हैं।

 (पुष्यमित्र की ये रिपोर्ट साभार- प्रभात खबर से)

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पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।


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