सरकार, कैसे हैं मुखियाजी के ‘मास्टरसाब’?

 कुबेरनाथ

स्रोत- www.downtoearth.org.in
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बिहार के सरकारी स्कूलों की स्थिति में कुछ सुधार तो हुआ है लेकिन शिक्षा में नहीं। लालू राज में स्कूलों की हालत बदतर हो गई थी। उस समय स्कूलों की बिल्डिंगों की हालत खस्ता थी। शिक्षकों का वेतन महीनों बाद मिलता था। खाली पदों पर अरसे तक कोई नई नियुक्तियां नहीं हो रही थी। बच्चे पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई करने को मजबूर थे।

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लालू राज के बाद नीतीश राज आया तो स्कूलों के लिए फंड आने लगा। स्कूलों की स्थिति कुछ सुधरी। बिल्डिंग में मरम्मत हुई, जिससे स्कूल साफ सुथरे दिखई देने लगे। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए यूनीफॉर्म की स्कीम आई। बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाने लगे। छात्राओं को साइकिल मिली। बिहार में लड़कियां साइकिल से स्कूल जाते दिखने लगी। साथ ही लड़कियों को छात्रवृति योजना भी आई। गरीब परिवार की लड़कियों के सपनों को नई उड़ान मिली।
बावजूद इसके शिक्षा जगत से जुड़े लोगों की नीतीश कुमार से एक शिकायत रही है- वो है पारा शिक्षकों की नियुक्ति। इसके लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई, वो वाकई शिक्षा और शिक्षकों की गरिमा को लेकर सवाल पैदा करती है। प्राइमरी स्कूलों में मैट्रिक पास युवक शिक्षक बनने लगे और उनकी नियुक्ति मुखिया द्वारा की जाने लगी। परिणाम ये हुआ कि मुखिया घूस लेकर मास्टरसाब की नियुक्ति करने लगा। योग्यता का कोई महत्व नहीं रह गया। कई साल पहले पढ़ाई छोड़ चुके युवक शिक्षक बन गए। जिन्हें पहाड़ा और गिनती भी ठीक से नहीं आती थी, वो शिक्षक बन गए। बच्चों की नींव कमजोर हुई और पूरे बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर गिरने लगा। खास कर ग्रामीण इलाकों में इस नियुक्ति प्रक्रिया ने काफी नुकसान पहुंचाया।
नीतीश कुमार को अपनी गलती का एहसास काफी बाद में हुआ। शिक्षकों की नियुक्ति के लिए टीईटी जैसी परीक्षा आयोजित की जाने लगी। लेकिन सवाल ये उठता है कि पारा शिक्षकों की तादाद काफी है, जिन्हें अब चाह कर भी हटाया नहीं जा सकता। …क्योंकि वोट बैंक की राजनीति है, जिसका डर सभी सियासी पार्टियों को रहता है।

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शांत सौम्य कुबेर नाथ की लेखनी गरीबों का दर्द और मजबूरों का ग़ुस्सा समेटने और सहेजने की कोशिश करती है। छपरा, बिहार के निवासी। इन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया में कार्यरत। आप उनसे 09953959226 पर संपर्क कर सकते हैं।