माँ भी पापा के पास चली गईं – तीन

माँ भी पापा के पास चली गईं – तीन

‘आशीष म के दूँ, मेरी आत्मा देवगी’. माँ अक्सर ये कहा करती थी. जब बहुत भावुक हो जाती तो ये एक लाइन कह देती, जिसमें बहुत कुछ कहा होता, और बहुत कुछ अनकहा छूट जाता. माँ की आत्मा को जीते जी तृप्त करने वाला काम हमने कब किया, कितना किया और नहीं किया तो क्यों नहीं किया? ये सवाल तो हम कर रहे हैं ख़ुद से, मां की आत्मा ये सवाल नहीं कर रही, उनकी आत्मा आशीर्वाद दे रही है. स्नेह और आशीष की सनातन धारा बह रही है.

मां और पापा ने प्रेम करना ही सीखा और सिखाया. वो हमेशा शिकवे-शिकायतों को हवा में उड़ा देते और बड़ी से बड़ी नाराज़गी को भी ख़त्म कर देने की अटूट आस्था रखते. हम भाई-बहन कभी-कभी उन्हें ऐसा करते देख विचलित भी हो जाते. पापा और माँ से हम झगड़ भी पड़ते लेकिन वो इन सबसे बेपरवाह अपना धर्म निभाते रहे. आज हम जब उनके विशालकाय क़द का एहसास करते हैं तो बहुत बौनापन महसूस होता है.

मातृशोक की इस बेला में जिन नाते-रिश्तेदारों से मेरी बात हो रही है, वो भी बस उनकी इसी प्रेम और स्नेहमयी छवि का ही वर्णन करते हैं. हम भी आज उन सभी प्रियजनों के सामने नतमस्तक हैं, जिन्होंने हमारी माँ और पिता को हमसे ज़्यादा प्यार दिया, सम्मान दिया. उन पर हमसे ज़्यादा हक़ जमाया. ऐसे तमाम चेहरों का ज़िक्र करना मेरे बूते की बात नहीं है, लेकिन इस डर से उन चंद चेहरों का भी ज़िक्र ना करना, जो मैं कर सकता हूँ, अपराध होगा.

इन्हीं चंद चेहरों में एक हैं आंटीजी (राजा की मम्मी), जो आख़िरी दिनों में माँ के बेहद क़रीब रहीं. हमारे मोहल्ले में प्रवेश करते ही शुरुआती घरों में एक ठिया, जहां माँ अक्सर चली जातीं. जब माँ नहीं जातीं तो आंटीजी चली आतीं. आंटीजी और माँ अपना सुख-दुख बाँट लेतीं. आंटीजी की आवाज़ हमें कम ही सुनाई देती लेकिन माँ के साथ उनका रिश्ता अनोखा था. वो माँ की भाभीजी भी थीं और दीदी भी. माँ उनसे तन-मन की बातें कर लिया करतीं. माँ की बड़ी राज़दार और सुख-दुख की साझीदार हैं आंटीजी. जब से हम जेल-चौक के माइक्रोवेव वाले इस मोहल्ले में आए, आंटीजी के साथ नाता जुड़ गया. आख़िरी दिनों में माँ ने आंटीजी से कह दिया था- अब गिनती के दिन हैं. आंटीजी और उनके पूरे परिवार ने हमारी माँ से रिश्ता जोड़ा और निभाया. माँ से इतना-इतना प्यार करने के लिए आंटीजी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया.

पापा और माँ के लिए भांजी और भगिन-दामाद भी बेहद ख़ास रहे हैं. कटिहार में रहती हैं हमारी लक्ष्मी बुआ की सबसे बड़ी बिटिया रानी दुर्गा दीदी. बड़ी कड़क मानी जाती हैं और इसी कड़क अंदाज में प्यार भी करती हैं. बड़की मामी से कुछ ज़्यादा प्यार करतीं थीं. माँ की तबीयत के बारे में सुना तो पटना से भागी दौड़ी पहुँच गईं. आखिरी चंद घंटों में हुई ये मुलाक़ात भी माँ की आत्मा को तर करने वाली रही होगी, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है. दुर्गा दीदी के ज़रिए वो तमाम बहनें भी बड़की मामी के क़रीब पहुँच गईं, जो किन्ही वजहों से नहीं आ पाईं. अनीता दीदी और पुष्पा दीदी को भी मैंने माँ के साथ बेहद आत्मीय पलों में देखा और महसूस किया है. तीन बहनें और हमारे तीन जीजाजी रामनिवासजी, बिनोदजी और पुरुषोत्तमजी की आवाजाही पूर्णिया में बाकियों से कुछ ज़्यादा रही. भौतिक उपस्थिति का मिलन में एक ख़ास महत्व रहता है और यही वजह है कि हम इन सभी के शुक्रगुज़ार हैं कि मामा और मामी के साथ स्नेह और सम्मान के तार आख़िरी पलों तक जोड़े रखे. निस्संदेह संगीता बाई, मुन्नी बाई और पूजा और ये तीन भगिन-दामाद भी पापा और माँ के प्रेम-सागर का हिस्सा रहे हैं.

इसी कड़ी में शुमार हैं हमारी बाड़ीहाट वाली शारदा बुआ की बेटियाँ यानीं हमारी दीदी. माँ जब आख़िरी बार दिल्ली में थीं तो रंजू बाई और जीजाजी मिलने घर आए. नोएडा एक्सटेंशन में माँ जब तक रहीं, घर पूर्णिया का एक्सटेंशन बन गया. यही एहसास मुझे तब होता, जब पापा और माँ पूर्णिया से दिल्ली आते. माँ-पिता के पहुँचते ही हमारा फ़्लैट सच में घर बन जाता, अजीब सी ऊर्जा और आत्मीयता से भर उठता. वो रसभरा खोता बन जाता, जिससे प्रेम रस का आस्वाद लेने के लिए रिश्तेदार आ जुटते.

पूर्णिया में मंजू बाई माँ के उन्हीं तमाम प्रिय चेहरों में शुमार रही हैं. जिन रिश्तों में बेतकल्लुफ़ी होती है, उसका अपना ही आनंद होता है. मंजू बाई भी हमेशा माँ से बड़ी बेतकल्लुफ़ी से मिलती रहीं. जब भी मिलती तो दिल खोलकर मिलतीं. कोई दूरी न उनके मन में रहती और न ही बातचीत में दिखती. माँ का मन बाड़ीहाट की इस भांजा-भांजी ब्रिगेड से बात कर भी राज़ी हो उठता. दिल्ली में छोटू भैया भी भाभी के साथ आए. खूब सारी बातें कीं. सुधीर भैया, सुशील भैया, सुनील भैया, मुन्नी बाई, छोटका पप्पू, बड़का पप्पू… ये सब माँ की बातों में शुमार रहते.

दीदी की ननद जिन्हें हम सभी बीवीजी कहते हैं, वो भी माँ से मिलने आईं और माँ को खुश कर गईं. यही काम बेबीजी ने भी किया. मां की बड़ी इच्छा थी कि वो दीपा और संतोषजी से मिलें. वो इंतज़ार करती रहीं. घूम-फिरकर वो पूछ बैठतीं कि संतोषजी कट्ठ ह… अयां तो कोनी करता वे… माँ को बिना बताए मैंने संतोषजी को एक दिन फ़ोन किया और माँ की बेचैनी का एहसास कराया. वो भी दौड़े भागे आए और माँ के साथ वक़्त गुज़ार कर उन्हें तृप्ति का एहसास दिलाया. इस तरह के तमाम प्रेमी जीवों का शुक्रिया तो बनता है.

इस बातचीत में दो और बहनों का ज़िक्र बनता है- मधु बाई और सुधा बाई. बेंगलुरू में माँ जब बीमारी से उठीं तो मैंने फ़ोन लगाया. ताईजी को देखकर ये दोनों बहनें बेहद भावुक हो गईं. जब भी माँ को याद किया, उसी भावुकता के साथ किया. हमारी चाचीजी भी माँ के प्रेमी जीवों में शुमार रही हैं. जब चाचीजी नहीं रहीं तो मधु बाई और सुधा बाई के मातृवत् स्नेह का आलंबन ‘ताईजी’ यानी मेरी माँ बन गई. सुखद है.

सच कहूं माँ और पिता ने जितने रिश्ते जोड़े और उन्हें जितनी गर्मजोशी से निभाया, अगर हम उसका एक पासंग भी कर ले गए तो जीवन सफल हो जाएगा. आप किसी से प्रेम करें ये बहुत सुखद है. अगर आप से लोग प्यार करें तो वो उससे भी ज़्यादा सुखद है. किसी ने सच ही कहा है – To love and to be loved is the greatest joy on earth.

ऐसे प्रेमी जीवों की फेहरिश्त काफ़ी लंबी है, माँ का आशीर्वाद मिला और मन:स्थिति बनी तो कुछ और प्रेमी जीवों का ज़िक्र फिर कभी होगा.

हमें इस बात की बेहद ख़ुशी है कि हम अपने आराध्य माँ-पापा से जितना प्यार करते हैं, उन्हें हमसे अधिक प्यार करने वालों की लंबी क़तार है. हमारे माँ-पिता के प्रेमी जीवों का लख-लख शुक्रिया.

प्रेमी जीवों को खुला आमंत्रण है, अपने प्रेम का खुलकर इज़हार करें.

-पशुपति शर्मा, 17 जनवरी 2025