हुसैन ताबिश की रिपोर्ट
इंतजार किसे कहते हैं और इसका दर्द क्या होता है, अगर ये महसूस करते हो तो कभी मुजफ्फरपुर के गायघाट प्रखण्ड के लदौर पंचायत चले जाईये। यहां विकास की राह देखते-देखते गांव की कई पीढ़ियां दुनियां से रुखत हो गई तो कई गांव छूट गए, लेकिन विकास नहीं हुआ। विकास इस गांव के लोगों के लिए एक सपना है। उनके लिए जिंदा रहने का मकसद है। मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले की सीमा पर राष्ट्रीय हाइवे -57 से महज डेढ़ किमी दक्षिण की दिशा में बसा यह गांव अपने ही नागरिकों के प्रति सत्ता, सियासत और प्रशासनिक उपेक्षा की जीती जागती एक मिसाल है। यह गाँव इस बात का भी सबूत और गवाह है कि आखिर कैसे नेता, जनप्रतिनिधि और अधिकारी उसी जनता से अपना मुँह मोड़ लेते हैं जिनकी सेवा करने का संकल्प लेकर वह अपने पद और संस्कार की शपथ लेते हैं।
तकरीबन दस हजार की आबादी वाले लदौर पंचायत में लदौर और बलहा दो गांव आते हैं। लदौर कुल 478 हेक्टेयर और बलहा गांव 34.1 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। दोनों गांवों को मिलाकर यहां डेढ हजार के आस-पास घर है। इस पंचायत में सवर्ण, ओबीसी और दलित सभी जातियों की मिक्स आबादी है। गांव में कई घरों के बाहर चार पहिया वाहन लगे हुए हैं। गांव की कुछ सड़कें पक्की है तो कुछ कच्ची और टूटी हुई हैं। बलहा में दूर्गा देवी का एक सुंदर-सा विशाल मंदिर है। गांव में बड़े-बड़े कई आलीशान मकान हैं। गांव वाले कहते हैं, ” इन मकानों में कोई अवशेष नहीं है। सब लोग गाँव को छोड़कर बाहर चले गए हैं। ” गाँव को छोड़कर चले जाने से शायद उनकी नियति थी!
वास्तव में, लादौर पंचायत चार भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित हैं। गांव को बीच-बीच में रजुआ नदी बांटती है। यानी गांव की आधी आबादी इस तरफ और आधी उस तरफ। रजुआ नदी इसी पंचायत के बलहा गांव में बहने वाली बागमती नदी की एक सहायक नदी है। बागमती नदी भी बलहा गांव को बीच-बीच में बांटती है। यहां भी गांव की आधी आबादी नदी के इस पार तो बारह उस पार रहती है। यहां दिलचस्प बात यह है कि न तो लदौर गांव के दो हिस्सों को आपस में जोड़ने के लिए रजुआ नदी पर कोई पुल है और न ही बलहा गांव में बागमती नदी के दो छोरों पर बसे गांव को जोड़ने के लिए कोई पुल है। यह इन दोनों गांवों और यहाँ के निवासियों का दुर्भाग्य है। एक पंचायत और एक गांव में रहते हुए उन्हें गांव के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने के लिए लगभग 15 किमी की दूरी तय करनी होती है।
गांव के किसान मुनचुन तिवारी कहते हैं, ” यहां सिर्फ कुछ गांवों के चार हिस्से में बंटने भर का मामला नहीं है। इन दोनों नदियों पर पुल नहीं होने से इस इलाके के हरपुर, जगनियां, भगमदपुर, फतेहपुर जैसे लगभग दर्जन भर गांवों की 25 से 30 हजार की आबादी प्रभावित है। इस गांव के लोगों को राष्ट्रीय हाइवे -57 के रास्ते दरभंगा या मुजफ्फरपुर जाने के लिए लगभग 25 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। अगर यहां दोनों नदियों पर पुल का निर्माण हो जाए तो आसपास के ग्रामीणों को हाइवे तक पहुंचने में महज 3 से 10 किमी की दूरी तय करनी पड़ेगी। ”
पुल बनने के बाद इस इलाके का संपर्क पड़ोसी जिले समस्तीपुर से भी बढ़ जाएगा। अभी दरभंगा और मुजफ्फरपुर के रास्ते समस्तीपुर 50 से 65 किमी दूर पड़ता है, लेकिन पुल बनने के बाद यह दूरी 35 से 40 किमी में सिमट जाएगी।
42 साल बाद भी पुल का सपना नहीं हुआ पूरा
पहली बार साल 1978 में मुजफ्फरपुर के तत्कालीन और अब दिवंगत सांसद जॉर्ज फ़र्नान्डिस ने इस गांव का दौरा करने के बाद ग्रामीणों की परेशानी देखकर रजुआ नदी पर पुल बनाने की घोषणा की थी। आज 42 साल बाद भी ग्रामीण इस पुल के इंतजार में हैं। ग्रामीण अनिल कुमार झा कहते हैं, ” गांव के निवासियों द्वारा बहुत-सी लड़ाइयां लड़ने और संघर्षों के बाद वर्ष 2012 में सरकार ने इस पुल का टेंडर निकाला था। ग्रामीण विकास विभाग के मद से इसे निधि दी गई थी। रजुआ नदी पर पुल बनाने का काम शुरू हुआ तो गांव वालों को लगा उनका संघर्ष सफल हो गया है। अब उनके दिन बहुरेंगे, लेकिन उनकी उम्मीदों को फिर किसी की नजर लग गई और पुल का काम रुक गया। नदी पर लगभग साल भर पुल निर्माण का काम चला गया। लगभग आठ पिलर भी बनाकर तैयार किया गया। बाद में एक पिलर पानी में धंस गया। इसी तरह पुल के निर्माण में भारी भ्रष्टाचार और अनियमितता की खबर आई। ग्रामीण कहते हैं, ” सरकार ने लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण ठेकेदार संजय सिंह को ब्लैक लिस्ट कर दिया और पुल निर्माण का काम रोक दिया गया है। ”
गांव की मुखिया सुनीता देवी कहती हैं, ” हमने अपने स्तर पर सभी प्रयास और दाव किया। आजमा लिए हैं लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। ’’ सुनीता देवी इलाके के विधायक और सांसद से मिलकर गांव की व्यथा सुनी हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। वह मुख्यमंत्री और प्रधान कार्यालय को इस मुद्दे पर चिट्ठी भी लिख चुके हैं, लेकिन न तो उनकी चिट्ठी का कोई जवाब आया न कोई कार्रवाई हुई।
गांव के पूर्व मुखिया दीपक कुमार झा बताते हैं, बीजेपी के अजय निषाद यहां के सांसद हैं। इससे पहले उनके पिता दिव्य जयनारायण निषाद तीन बार क्षेत्र के सांसद रह चुके हैं। राष्ट्रीय जनता दल के महेश्वर प्रसाद यादव वर्तमान विधायक हैं। इस साल पार्टी ने उन्हें चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं दिया तो वह राजद को छोड़कर जदयू में चले गए और जदयू के टिकट पर केवल चुनाव लड़ रहे हैं।
यहां की पूर्व विधायक वीणा देवी अभी वैशाली से लोजपा की सांसद हैं। उनकी बेटी कोमल सिंह इस विधानसभा चुनाव में लोजपा के टिकट पर गायघाट क्षेत्र से चुनाव लड़ रही हैं। वीणा देवी के पति दिनेश प्रसाद सिंह भी मुजफ्फरपुर सीट से विधान परिषद में विधायक हैं। दीपक झा कहते हैं, ” यहां से चुनाव लड़ने वाले सभी जनप्रतिनिधियों की तरक्की हुई लेकिन गांव के पुल का सवाल आज भी खड़ा है। ”
रजुआ नदी के निर्माणधीन पुल पर जब क्षेत्र के विधायक महेश्वर प्रसाद यादव का पक्ष जानने के लिए उनसे संपर्क किया गया तो उन्होंने नहीं उठाया। उन्हें भेजे गए एसएमएस का भी कोई जवाब नहीं आया। इलाके के सांसद अजय निषाद इस समय कोरोना पाजिटिव होने के कारण एम्स में भर्ती हैं इसलिए उनसे संपर्क नहीं हो पाया है। हालांकि उनकी पार्टी के मुजफ्फरपुर के पदाधिकारियों ने बताया कि यह पुल बिहार सरकार की योजना के तहत बन रहा था। ठेकेदार और बिहार सरकार के बीच विवाद के कारण कोर्ट में अभी तक इस मामले की सुनवाई चल रही है। इस कारण से पार्टी इस मामले में कोई टिप्पणी नहीं करेगी।
बागमती पर चचरी पुल या नाव है गांव का सहारा
इसी पंचायत के बलहा गांव के बीच से बहने वाली बागमती नदी को लोग बांस से बने जुगाड़ वाले चचरी पुल के सहारे पार करते हैं। ये पुल साल भर से ज्यादा नहीं चल पाता। अभी तक पुराना पुल ध्वस्त होकर गिर चुका है। नई चचरी पुल बनाने के लिए नदी के पास बांस काट रहे मजदूर देवेन्द्र सहनी बताते हैं, ” एक चचरी पुल बनाने में मजदूरी और बांस सहित दोनों का खर्चा लगभग एक लाख रुपये आता है। गांव के लोग आपस में चंदा कर पुल बनाने के लिए धन जमा करते हैं। ’’ चचरी पुल नहीं होने पर देवेंद्र सहनी नाव से लोगों को नदी पार कराते हैं। सहनी कहते हैं, ” नाव से नदी पार करने का एक व्यक्ति का 5 रुपया किराया होता है। अगर मोटरसाइकिल पार करानी हो तो 20 रुपये लगते हैं। वैसे गाँव वाली बात यहाँ कोई गैर नहीं है, सभी लोग अपने हैं। अगर किसी के पास पैसे न हो तो भी उसे नदी पार करा देते हैं। ये सेवा सुबह 6 बजे से रात दस बजे तक उपलब्ध रहती है। ” हालांकि गांव के पूर्व मुखिया दीपक झा कहते हैं, ” जब बरसात के दिनों में पानी भरा हो तो चचरी पुल और नाव के सहारे नदी पार करना बहुत खतरनाक होता है। अबतक कई हा दसे हो चुके हैं। हर साल जान-माल की काफी बर्बादी होती है। ’दीपक कुमार आगे कहते हैं, जब गांव के एक पुल का निर्माण ही सालों से पूरा नहीं हुआ तो दूसरे पुल का निर्माण कैसे और कौन करेगा?’ ’बागमती नदी के तटीय इलाके में कटान भी एक बड़ी समस्या है। हर साल गांव के कई खेत और गरीबों के घर नदी में समा जाते हैं।
पुल नहीं होने के कारण गांव से हो रहा पलायन
गांव में काम के अवसर की कमी और शहर से संपर्क नहीं होने पर यहां के ज्यादातर मजदूर पलायन कर महानगर चले जाते हैं। लाॅकडाउन में दिल्ली से लौटे मजदूर बिजली पासवान कहते हैं, ” गांव में अगर किसी को सांप काट ले या किसी को इमर्जेंसी में अस्पताल ले जाना हो तो मरीज रास्ता में ही दम तोड़ देता है। ” शकुंतला देवी की परेशानी यह है कि उन्हें सरकारी राशन की दुकान से अनाज लेने के लिए अपने ही पंचायत में आने-जाने के लिए 60 रूपया आटो का किराया देना पड़ता है और पूरा दिन लग जाता है वह अलग है।
ग्रामीण अनिल झा कहते हैं, ” पुल नहीं होने से सबसे ज्यादा परेशानी गांव की लड़कियों को स्कूल जाने में होती है। बच्चों को शिक्षा देने के लिए कई लोग गांव छोड़कर शहर में रहते हैं, जो सक्षम नहीं है उनके घरों की लड़कियां मजबूरी में पढ़ाई छोड़ देती हैं। गाँव के लड़के-लड़कियों के लिए अच्छे गाँवों से रिश्ता नहीं आता हैं। इस कारण से गांव का कई परिवार गांव में अच्छा मकान और सुख-सुविधा रहता है, गांव छोड़ शहर में बस गए हैं। ”
नोट: यह रिपोर्ट सेंटर फाॅर रिसर्च एंड डायलग ट्रस्ट के बिहार चुनावों के लिए दी गई फेलोशिप के तहत तैयार की गई है।