रजिया खातून अब पचास साल की हो गयी हैं। अविवाहित हैं। हर औरत की तरह उनकी भी ख्वाहिश थी कि अपना परिवार हो, भरा पूरा और खुशियों से भरा। समय से शादी हुई होती तो आज वह नाती-पोतों वाली होती। मगर आज परिवार के नाम पर उनके घर में एक विधवा मां, एक तलाकशुदा छोटी बहन और बहन का एक बेटा है। जीवन कैसे चल रहा है? यह सवाल सुनते ही उनका गला रूंधने लगता है। भर्राये गले से कहती हैं, भाई लोग कुछ-कुछ मदद कर देते हैं, तो खाना-पीना हो जाता है। यह कहते-कहते उनकी रुलाई फूट पड़ती है और फिर कुछ देर तक वह सिसकती रहती हैं। एक ऐसे समाज में जो खुद को शेख मुसलमानों से अधिक इज्जतदार मानता हो, औरतों का घर से निकलना भी अपराध समझता हो, उसे मेहनत-मजदूरी की इजाजत नहीं देता हो। वहां इस तरह औरतों का अकेला रह जाना कितना दुखदायी हो सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मगर कोसी-सीमांचल के इलाके में बसे शेरशाहबादी मुसलमानों के समुदाय में लगभग हर जगह दस में से दो औरतें अविवाहित रह जाती हैं और दस में दो शादी के तत्काल बाद तलाक मिलने की वजह से अकेली रह जाती हैं।
रजिया खातून के पंचायत कोचगामा की ही बात की जाये, जो सुपौल जिले के बसंतपुर प्रखंड में स्थित है। वहां इस बिरादरी में 140 से अधिक ऐसी महिलाएं हैं जो 35 साल से अधिक उम्र की हैं और अविवाहित हैं। इनमें ऐसी महिलाओं की संख्या खासी है, जो 50 और 60 के लपेटे में हैं। इनके अलावा 32 तलाकशुदा औरतें हैं और 45 विधवा। एक छोटी सी पंचायत में 217 महिलाओं का अकेले जीवन जीने को विवश होना कोई सामान्य बात नहीं है। लोग बताते हैं कि शेरशाहबादी मुसलिम समाज में इस तरह की बातें हर जगह हो रही हैं।
साठ साल की नूर बानो बिल्कुल अकेली रहती हैं। पिता की मौत के बाद से उन्होंने पूरा जीवन अकेले जिया है। पेट पालने के लिए बकरियां पालती हैं। थोड़ी बहुत जमीन है, जिसे बटाई पर दे रखा है। खुद खेती करने की बात वह सोच भी नहीं सकती। 40 साल की नजमा खातून की शादी इसलिए नहीं हुई क्योंकि वह गूंगी है। 45 साल की साबिरा खातून को शादी के अगले दिन ही तलाक दे दिया गया, क्योंकि वह शौहर की निगाहों में ‘खूबसूरत’ नहीं थी। 45 साल की चनवारा खातून, 55 साल की जमीला खातून हो या 58 साल की रिजवाना परवीन, इनकी एक ही कहानी है। ‘खूबसूरत’ नहीं थी या देने के लिए घर वालों के पास दहेज नहीं था। लिहाजा इनकी शादी नहीं हुई, हुई भी तो छोटे से वैवाहिक जीवन के बाद तलाक हो गया और फिर लंबा जीवन अकेले गुजारने के लिए विवश होना पड़ा।
ऐसा क्यों होता है? खूबसूरत-बदसूरत महिलाएं तो हर समाज में हैं, मगर उनकी शादियां ही न हो, ऐसा तो कभी सुना नहीं। इसकी वजह बताते हुए कोचगामा के सामाजिक कार्यकर्ता अबू हिलाल कहते हैं- हमारे समाज में शादी का पैगाम लेकर हमेशा लड़के वाले ही आते रहे हैं। लड़की का बाप पैगाम लेकर जाये, इसे अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। ऐसे में लड़के वाले उन्हीं लड़कियों के घर पैगाम लेकर जाते हैं, जो या तो खूबसूरत हो, या उनका परिवार पैसे वाला हो। ऐसे में लड़कियां अगर सांवली हो या उसके मां-बाप गरीब हों तो वे पैगाम के इंतजार में बैठे रह जाते हैं। उनकी शादियां टलती रहती हैं और ऐसे ही लड़कियों को अक्सर पूरा जीवन अविवाहित ही गुजारना पड़ता है। अबू हिलाल अपने समाज में औरतों की स्थिति को लेकर व्यथित रहते हैं। उन्होंने तीन-चार महीने की मेहनत के बाद कोचगामा और बलभद्रपुर पंचायत में ऐसी महिलाओं की सूची तैयार की है। वे चाहते हैं कि सरकार इन बेसहारा महिलाओं की मदद करे। इन्हें विधवा पेंशन की तरह ही कुछ सरकारी सहायता मिल जाये। उन्होंने पटना स्थित हज कमेटी में भी इन बिनब्याही महिलाओं के दुख-दर्द की दास्तां पहुंचाने की कोशिश की है। उन्होंने अपने समाज के नेताओं से भी इस मामले में जरूरी कदम उठाने की दरख्वास्त की है।
शेरशाहबादी मुसलमानों का समुदाय भी इन परिस्थितियों से चिंतित रहता है, क्योंकि यह परेशानी एक-दो परिवार की नहीं है। तीन साल पहले सुपौल, अररिया और नेपाल के शेरशाहबादी मुसलमान इसी समस्या से निजात पाने की तरकीब निकालने के लिए अररिया जिले के बसमतिया हाइस्कूल के प्रांगण में जुटे थे। तय हुआ कि जिस तरह दूसरे समाज में लड़की वाले पैगाम लेकर लड़के वालों के घर जाते हैं, अपने समाज में भी यह चलन शुरू हो। इससे परेशानी काफी हद तक सुलझेगी। इस मीटिंग के बाद पत्र लिखकर समाज के सभी गांवों में भेजा गया। मगर यह चलन शुरू नहीं हो पाया। भगवानपुर गांव के शेरशाहबादी समाज के मंडल मो. मुस्तफा कहते हैं, जैसे ही कोई लड़की वाला पैगाम लेकर जाने की बात करता, लोग समझने लगते कि इसकी लड़की में कोई खोट है। उसकी शादी के लिए पैगाम नहीं आ रहा, तभी तो वह ऐसा काम कर रहा है। लिहाजा समुदाय की यह कोशिश औंधे मुंह गिर गयी।
लड़कियां पढ़ेंगी तभी खुलेगा रास्ता – शाहीना परवीन
सामाजिक कार्यकर्ता और महिलाओं के मुद्दों पर लगातार आवाज उठाने वाली शाहिना परवीन कहती हैं, अगर अपने समाज में लड़के नहीं मिल रहे तो दूसरे समाज में शादी की जानी चाहिये। इस्लाम तो जात-पात नहीं मानता, फिर शादी के लोग क्यों जात-पात के फेर में पड़ते हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात है कि शादी हो न हो, इन लड़कियों को शिक्षा और आगे बढ़ने के दूसरे तमाम प्रशिक्षणों का अवसर मिलना चाहिये। अगर हाथ में चार पैसे होंगे तो अकेले जीवन जीना भी लोगों को अखरेगा नहीं। सरकार को भी इस मसले पर ध्यान देना चाहिये। सबसे बड़ी बात है कि मुसलिम समाज को बदलना पड़ेगा। उसे महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए बराबरी का अधिकार देना होगा। जब तक ऐसा नहीं होगा, महिलाएं इतनी तरह घुट-घुट कर मरती रहेंगी।
समाज के लोग दहेज के बढ़ते चलन से भी परेशान हैं। इस्लाम में दहेज की मनाही है। मगर लोग चोरी-छिपे दहेज ले ही लेते हैं। अबू हिलाल बताते हैं कि कई लोग दहेज तो दहेज देन मेहर की राशि भी एडवांस में ले लेते हैं, और इस वजह से पैसों का इतना बोझ हो जाता है कि बेटी के बाप की हिम्मत ही टूट जाती है। इन हालात में अकेली महिलाओं का जीवन कष्टमय हो गया है। इनमें से ज्यादातर महिलाएं पढ़ी लिखी नहीं हैं। हिलाल बताते हैं कि परदे की वजह से ये महिलाएं न मजदूरी करती हैं, न नौकरी। इन्हें एक ही काम की इजाजत है- पाट के धागे छुड़ाने की। वह भी रात तीन बजे से सुबह छह बजे तक अंधेरे में, जब कोई देखे नहीं। हर तरह के खर्च के लिए ये महिलाएं पहले अपने माता-पिता और फिर भाइयों पर निर्भर रहती हैं। जाहिर सी बात है कि वक्त के साथ भाइयों के हाथ भी बंधने लगते हैं और ये उपेक्षित होने लगती हैं। एक महिला नाम न छापने की शर्त पर बताती हैं कि घर का सारा काम उसे ही करना पड़ता है, इसके बावजूद उनके साथ नौकरों जैसा बर्ताव होता है। वे कहती हैं कि कहीं झाडू-पोछे का ही काम मिल जाये तो हाथ में चार पैसे आयें, मगर समाज उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देता।
समाज के गणमान्य पुरुषों की इस मसले पर सोच काफी पुरातनपंथी है। एक सज्जन मो. अमजद गाजी जो शिक्षक हैं और शेरशाहबादी कब्रिस्तान कमेटी के सचिव हैं। कहते हैं, इस समस्या का एक ही उपाय है-इस क्षेत्र में महिलाओं के लिए तकनीकी शिक्षा के केंद्र खुलने चाहिये। मगर साथ में वे यह शर्त भी रखते हैं कि उस शैक्षणिक केंद्र में टीचर महिलाएं ही होनी चाहिये, अगर पुरुष हों तो वे बुजुर्ग हों। पंचायत में हाई स्कूल है, मगर शेरशाहबादी समाज की कोई लड़की वहां पढ़ने नहीं जाती, क्योंकि वह को-एजुकेशन वाला है।
नुरूल हक जो गांव के एक चिंतनशील व्यक्ति हैं, कहते हैं, महिलाओं की उच्च शिक्षा के लिए पड़ोस के गांव शंकरपुर में एक बनात खुला है। यह लड़कियों का आवासीय मदरसा है। यहां कहते हैं कि केजी से फाजिलियत (एमए) तक की पढ़ाई होती है। पढ़ाने वाली सारी महिलाएं ही हैं। वहां 800 से अधिक लड़कियां पढ़ती हैं। 500 हॉस्टल में रहती हैं। मगर वहां पढ़ने का खर्च इतना अधिक है कि बहुत सारे लोग अपने बेटियों को वहां भेज नहीं पाते। वहां कोचगामा की दस लड़कियां पढ़ती हैं। हालांकि वहां की शिक्षा से इन महिलाओं को रोजगार मिल जाये यह भी मुश्किल लगता है।
नुरूल बताते हैं, इस बीच कुछ परिवारों ने इस परेशानी से निजात पाने की एक अलग ही तरकीब निकाली। वे अपनी बेटियों की शादी रामपुर(यूपी) के लड़कों से करवाने लगे। दरअसल रामपुर में मुसलिम समाज में लड़कियों की कमी है। इस वजह से कई लड़कों की शादी नहीं हो पाती थी। ऐसे लड़के यहां आने लगे और पैसे देकर लड़कियां ले जाने लगे। मगर यह तरकीब भी नुकसानदेह ही साबित हुई। वहां लड़कियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता है और कुछ शिकायतें तो ऐसी मिली हैं कि वे लोग यहां से लड़कियों को ले जाकर वहां किसी और को बेच देते हैं।
ऐसी एक महिला जो 20-25 साल पहले रामपुर ब्याही गयी थी, चार-पांच साल में ही भाग कर गांव आ गयीं। वे कहती हैं, अपने गांव में मांग के खा लेना, मगर दूसरे राज्य ब्याह करके मत जाना। अपना अनुभव सुनाते हुए वे कहती हैं कि उसे ले तो ब्याह करके जाया गया था, मगर बाद में नौकरों की तरह व्यवहार किया जाने लगा। इसी चक्कर में उनकी एक बेटी की मौत हो गयी। दूसरी को वे किसी तरह बचा कर वहां से भाग आयी।
(साभार-प्रभात ख़बर)
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।