अरे, यहां तो सब बंजारे !

अरे, यहां तो सब बंजारे !

                        संजय पंकज

 मदहोशी में सारी जगती, थरती भरती भीड़ है

अरे, यहां तो सब बंजारे, कहां किसी की नीड है।

धोखा खाती बरबस आखें, कांटे चुभते पांव में,

चलती क्या ? छलती है सांसें, धूप चिलकती छांव में।

जमे हुए सब यहां-वहां, सरपत है, कोई चीड है,

अरे, यहां तो सब बंजारे, कहां किसी की नीड है।

अ-सुर कंठ, बेताल चरण, उड़ रही कला की धूल है,

नागफनी तो,  धता बताती, कौन कमल का फूल है।

स्वर बे-पर की जहां उड़ाते, मुड-मुब जाती भीड़ है,

अरे, यहां तो सब बंजारे, कहां किसी की  नीड है।

खुला गगन है, खुली मही है, आते सभी खुलाव पर,  छूट गया,  पर कौन  यहां रे, उस मरघप की नाव पर । गोते लगा-लगा कर डूबे, शून्य यहां गम्भीर है ,

अरे, यहां तो सब बंजारे, कहां किसी की नीड है। क्यों पिंजड़े में बन्द किया है, क्रन्दन करते कीर को, बांध रखोगे किस बंधन से, चंचल-प्राण -समीर  को।

चीर कलेजा ने कल पड़ी, यह तो जीवन की पीड है ,

अरे, यहां तो सब बंजारे, कहां किसी की नीड है।

मुक्त उड़ाने भरने दो, सबको मुक्त प्रकाश में,

खोंच लगाना चाह रहे क्यों, तुम फहरे आकाश में।

कडी-कडी की सांठ-गांठ ही, बन जाती जंजीर है,

अरे, यहां तो सब बंजारे, कहां किसी की नीड है।

तिनके दावे कुंद चोंच में,डैने फरका व्योम में,

उड़े विहंगम चटक चांदनी-से मुड़कर  तम-तोम में ।

मेटे कौन करम का लेखा, हर का हृदय अधीर है ,

अरे, यहां तो सब बंजारे, कहां किसी की नीड है।

  थोथा मन उड़ता  फिरता, दक्षिण हो पवन कि वाम हो

थक कर पीत पात-सा जाता टपक, छांह से घाम से।

क्यों जाता है भूल, धूल से ढकता नहीं जमीर है ,

सारे के सारे बंजारे,  सबका अपना नीड है।


संजय पंकज। युवा कवि एवं लेखक ‘यवनिका उठने तक ‘, ‘मां है शब्दातीत , ‘मंजर मंजर आग लगी है ‘ , यहां तो सब बंजारे , सोच सकते हो सहित अनेक काव्य कृतियां एवं वैचारिक लेखों का संग्रह ‘समय बोलता है ‘प्रकाशित। सम्प्रति निराला निकेतन पत्रिका बेला का सम्पादन। सम्पर्क शुभानंदी, नीतीश्वर मार्ग, आम गोला मुजफ्फरपुर। आपसे  मो.न.–09973977511 या
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