मांगू मांगू मांगू दुलहा…हाथी घोड़ा गइया हे !

मांगू मांगू मांगू दुलहा…हाथी घोड़ा गइया हे !

अभी शादी-विवाह का मौसम चल रहा है। लिहाजा इस अवसर पर नाना प्रकार के गीतों के स्वर फिजां में तैर रहे हैं। देर रात से सुबह तक ये गीत ध्वनि विस्तारक पर सुनाई देते ही हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि वर्षों पहले जहां गांव की महिलाएं इस अवसर पर मिलजुल कर गीत गाती थीं , वहां अब कैसेट्स बजाए जाने लगे है जिनमें लोकगीत गायिकाओं की मधुर आवाज होती है लेकिन जीवंतता उतनी नहीं जितनी तब थी। यह हमारे तीज त्योहारों और उत्सवों पर आधुनिक पूंजीवादी संस्कृति का सीधा असर है। गीत भी बिकने लगे हैं हमारे देश में। कवि नेपाली ने लिखा था – यह गीतों का देश जहां चरवाहा विरहा गाता है, सुख हो, दुख हो या सौन्दर्य यहां गीतों में गाया जाता हैं। तब शायद पता नहीं था कि हमारे वे गीत और खुशियां भी कभी बिक्री की वस्तु बना दी जाएगी। बहरहाल आज मैं वर्षों पूर्व ग्रामीण महिलाओं द्वारा शादी के मड़बे पर दुल्हा के कमर खोलाई के समय गाए जाने वाले गीत से आपको रू-ब-रू करा रहा हूं।

कमर खोलाई, अकचकाइएगा नहीं, बज्जिकांचल और मिथिलांचल में दुल्हे को अपना वस्त्र उतार कर लडकी के मां और पिता की तरफ से दी गयी धोती पहननी पड़ती है, फिर विवाह का रस्म शुरू होता है। इसे ही कमर खोलाई कहते हैं। हां, इस विधि के लिए दुल्हा आसानी से तैयार नहीं होता। वह चुप बैठा रहता है। महिलाएं मान मनव्वल करती हैं। वह दानदक्षिणा चाहता है। मजा लीजिए आप भी उस गीत का-

मांगू मांगू मांगू दुलहा, हाथी घोड़ा गइया हे
टीवी होन्डा गाडी मांगू कमर खोलइया हे
जानी हम कइसे रउअर
मांगे में रुझान हे
मांगी मांगी समपत जोडे
रउअर खानदान हे
बाबू भिखमंगा रउअर भिखमंगिन मईया हे
मांगू मांगू मांगू दुलहा, हाथी घोड़ा गइया हे।
खोलू खोलू खोलू दुलहा
कोट कमीज हे
मास्टर जी सिखयालल नहीं
पेन्हें के तमीज हे
धोती पेन्हू धोती होइय भारत के बसइया हे
मांगू मांगू मांगू दुलहा, हाथी घोड़ा गइया हे।
खीर के खिअउनी मांगू
अंगुठी सिकडिया हे
बाबू रउअर लैलन नहि
पुतोह ला घडिया हे
तिलक में लेले रहलन लाख रूपइया हे
मांगू मांगू मांगू दुलहा, हाथी घोड़ा गइया हे।
बेटी छोड न हय कोनो धन हमरे घरवा हे
सेहो हम दूव रउरा सादर ई मरबा हे
जेहि देख तरि जयतन माय बाबू भइया हे
मांगू मांगू मांगू दुलहा, हाथी घोड़ा गइया हे।


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।