गांव की कब्र पर बनेंगे स्मार्ट शहर, पढ़ लो मर्सिया

गांव की कब्र पर बनेंगे स्मार्ट शहर, पढ़ लो मर्सिया

नरेंद्र अनिकेत

mohan_bhagwatसंघ के सर्वेसर्वा मोहन भागवत ने इंदौर के तथाकथित आध्‍यात्मिक नेता (जैसा कि संघ और भाजपा अपने आपको और अपने गढ़े गए समर्थकों के बारे में प्रचारित करते हैं) की ओर से महाराष्‍ट्र के बीड में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि किसानों का मनोबल बढ़ाने के लिए समुदाय को एकजुट होकर काम करना चाहिए। किसानों के मनोबल का जिम्‍मा समुदाय पर सौंपना सत्‍ता की जवाबदेही है या खेल, इसकी पोल भागवत खुद ही खोल गए हैं। अब गांव-गांव जाकर समुदाय किसानों को बताएगा कि समय पर बरखा नहीं होने में सत्‍ता का दोष नहीं है। उनका भाग्‍य ही ऐसा है कि भगवान नाराज हो गए हैं और अपना कमंडल बंद कर रखा है। यही नहीं उन्‍हें भगीरथ की कथा सुनाएंगे और यह भी बताएंगे कि इस बार भगीरथ ने गंगा की जवाबदेही किसी और को सौंप दी है और खुद आरती दिया संभाले बैठे हैं। गंगा के अवतरण का भार तो वह ढो ही चुके हैं। अब बचा ही क्‍या है, जो वह करेंगे। यह किसी एक दल की गाथा नहीं है। कोई पर्दे के सामने आया है तो कई पर्दे में छिपे हैं।

भारत एक ऐसा देश है जहां समुदाय और समाज की परिभाषा परिस्थिति विशेष में बदलती रहती है। जब जाति या संप्रदाय की चर्चा हो रही हो तो समुदाय और समाज का दायरा सिमट जाता है। जब देश की बात हो रही हो और गांव व शहर का जिक्र करना हो तो समुदाय और समाज बंट जाता है। ऐसे में भागवत को यह साफ करना चाहिए था कि उनका इशारा किस समुदाय की तरफ है। यह उनका भी दोष नहीं है। यह दोष कहीं पीछे से है। जब सभ्‍य कहे जाने वाले लोग दुनिया में शहरी या नगरी क्रांति के अग्रदूत बने फिर रहे थे, तब गांव अपनी जगह खड़ा रह गया था।

फोटो- अजय कुमार कोसी बिहार
फोटो- अजय कुमार कोसी बिहार

भारत की मिथकीय कथाएं उसी संकेत को सदियों से समेटे मनुष्‍य समाज के बीच खड़ी हैं और पाप मोचन बनकर बिसूरती चली आ रही है। राम कथा हो या कृष्‍ण कथा वह कुछ और नहीं शहर और गांव के बीच के संघर्ष की दास्‍तां है। हर बार शहर अपनी विपदा से गांव के सहारे पार पाता रहा है। यह और बात है कि उसके बाद शहर गांव को भूल जाता है। दरअसल, गांव उसकी दृष्टि में उपनिवेश से ज्‍यादा कुछ भी नहीं है। गांव के पास श्रम है, संसाधन है। जीवन की दुरूह परिस्थितियों से पार पाने के लिए संघर्ष का माद्दा है। इसी ताकत के कारण वह चारागाह बनाता है और शहर उससे अपने कर्म का सामान लेता है। पर जब वही ग्रामीण सामान लेने के लिए पहुंचता है तो शहर उससे भारी कीमत वसूलता है। उसे अपने ही पसीने की कीमत चुकाने में कुछ और पसीना गंवाना पड़ता है। सदियों से यही क्रम जारी है। जो गांव को मूर्ख बना सकते हैं, उसका लहू चूस सकते हैं वह सभ्‍य हैं, अगड़े हैं, शिक्षित हैं। और गांव। वह एक ऐसा पिछड़ा इलाका है जहां रोते, बिसूरते लोग रहते हैं।

पुरा काल में जो नगर में थे वह नागरिक बने और सत्‍ता सरकार के भागीदार नहीं तो उसके करीबी चाकर चौकीदार हुए। हाशिए पर पड़ा गांव नगर के लिए साधन मात्र था। इस साधन को साधने के लिए ईश्‍वर के अवतारों को बुलाया गया और उन्‍हीं अवतारों के बीच की संघर्ष गाथा से हमारा इतिहास अटा पड़ा है, जिस पर हम नाज करते हैं। सच तो यह है कि शोषण की गाथा को जहां आसानी से छिपाया जा सकता है उसे ही धर्मकथा कहते हैं। इस कथा में शोषण का शिकार अपने प्रारब्‍ध का फल भोक्‍ता है और शोषक देवांश से संपन्‍न अवतार। इन्‍हीं अवतारों ने सदियों तक अपना संघर्ष हमें विरासत में दिया। हर विजेता देवता का अवतार हुआ और पराजित राक्षस का रूप कहलाया।

इसी क्रम में जब सत्‍ता से भरोसा उठा और गांव ने अपना हिस्‍सा मांगा तो भारत में लोकतंत्र का जन्‍म हुआ। वह लोकतंत्र डूबा तो किसी और कारण से नहीं, बल्कि अपने नेताओं की कुत्‍सा और सत्‍ता पर प्रच्‍छन्‍न पकड़ बनाए रखने की उद्दाम लालसा में रची और अंजाम दी गई साजिशों के कारण। इतिहास में इसका जिक्र कहीं नहीं मिलेगा क्‍योंकि य‍ह बात सामने आ गई तो (जनता समझदार हो चुकी है) सत्‍ता का आ‍धुनिक गणित खराब हो जाएगा। इसलिए इतिहास केवल विजेताओं की जीत का विश्‍लेषण देता है और पराजय के कारणों को गिनाता है। इन दोनों के पीछे के सच को छिपाता है।
खैर, यह तो लंबी बहस का विषय है इस पर भी विस्‍तार से लिखा जा सकता है।

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फिलहाल हम समुदाय पर बात करते हैं। समुदाय असल में शहर, खास तौर से महानगर में होता है। यह शहरी जीवन का वह हिस्‍सा है जो शहरी जीवन का शहर में ही साधन है। असल में शहर में एक और तबका रहता है, जिसे सोसायटी कहते हैं। यह सोसायटी वह तबका है जिसे अपने पड़ोसी के बारे में कुछ भी पता नहीं होता है। सबसे ज्‍यादा स्‍मार्ट शहर वही है जहां रहने वाले अपने आप में मस्‍त हों। ऐसी मस्‍ती कि उन्‍हें यह भी पता नहीं रहे कि शहर के पड़ोस में क्‍या हो गया? यह जीवन एक ऐसा यूटोपिया है जिसे लंदन और न्‍यूयार्क में दिखाया जाता है। हर बार नेता और दल तो बदल जाता है पर यह यूटोपिया अपना रूप बदलकर सपनों पर छा जाता है।

अभी भी हमारा देश स्‍मार्ट सिटी के यूटोपिया में घूमने को उद्धत बैठा है और मीडिया के हर हिस्‍से पर सपनों का सौदागर या तो गांभीर्य दिखाता है या फिर कुटिल मुस्‍कान बिखेरता है। हां उसके लगुए भगुए खलनायकी हंसी हंसते हैं या फिर अपने विरोधियों की खिल्‍ली उड़ाने में मशगूल रहते हैं। यदि कोई विरोध का स्‍वर उभरता है तो उसे कुचलने के लिए एक दबंग आवाज आती है जो याद दिलाती है मत भूल हम कौन है, आपातकाल झेल चुके हो। यह भी वही है पर रूप बदला हुआ। यह स्‍मार्ट टैक्टिस है क्‍योंकि हम पिछड़े नहीं हैं आने वाले स्‍मार्ट शहर के स्‍मार्ट शहरी हैं। यदि शहर स्‍मार्ट होता है तो गांव के लिए मातम पुर्सी करने वाले भी स्‍मार्ट होंगे। संथाल-परगना के राजपूत राजाओं के लिए शोक गान (रुदाली) करने वाली औरतें होती थी। अब राजा का रूप स्‍मार्ट हो गया है तो रुदाली भी स्‍मार्ट होना लाजिमी है।

कार्टूनिस्ट माधव जोशी की कृति। आप www.khaipili.in नाम से एक वेबसाइट भी चलाते हैं।
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हमारे गांव का दर्द यही है कि उसके जीने की परिस्थितियां और ज्‍यादा कठिन हो गई है। उसे बताया गया है कि हाइब्रिड बीज उसकी आमदनी बढ़ा देगा। विदेशी नस्‍ल की गाय उसे पूरी बस्‍ती को पिलाने लायक दूध देगी। इसके साथ यह नहीं बताया गया कि हाइब्रिड बीज बोया तो उसमें कौन सी बीमारी लगेगी और फिर उससे छुटकारा पाने के लिए किस कंपनी से कौन सा कीटनाशक लेना पड़ेगा। इसी तरह गाय के बारे में भी नहीं बताया गया कि उसके रखरखाव का संकट क्‍या है और उसपर कितना खर्च आएगा। नतीजा सामने है कि हमारे जलवायु में पलने वाली गाएं हाशिए पर चली गई और मुट्ठी भर लोग ही गोपालक होकर रह गए हैं।

ऐसे में बारिश का नहीं होना किसानों के लिए कितनी भारी पड़ने वाली स्थिति है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। यदि हम गहराई से विचार करें तो पाते हैं कि खेती और पशुपालन एक सहचर व्‍यवसाय है जिसमें से किसान के हिस्‍से में ढंग से खेती भी नहीं रह पा रही है। पशुपालन एक खर्चीला जरिया हो गया है। ऐसे में खेती में बने रहना भारत के व्‍यापक समुदाय के लिए भारी साबित हो रहा है।

स्‍मार्ट सिटी बसाने चली सत्‍ता को यह पता है कि गांव मर रहा है। यह उसके जश्‍न का समय है। गांव मरेंगे तो शहर और समार्ट हो जाएंगे। गांवों की कब्र पर ही तो शहर बसते हैं। शहर अनिवार्य है क्‍योंकि वहां रहने वाले सपने देखते हैं। उनके पास ज्‍यादा सवाल नहीं होते। वे शिकार तलाशते हैं और शिकार बनाते हैं। गांव का समाज है, वह समाज में पलता बढता है। शहर के पास सोसायटी है जहां लोग पड़ोसी के बारे में नहीं जानते हैं। दोनों के बीच जमीन आसमान का अंतर है।

यह लोकतंत्र है और इसमें वही सत्‍ता में आता है, बना रहता है जो सपनों का सौदागर साबित होता है। सपने बेचने की कला के धनी लोग गांव के पलटी मारने से डरते हैं, इसलिए उसे भी स्‍मार्ट होने का सपना दिखाने में जुटे हैं। टीवी पर दिखने वाला स्‍मार्ट गांव इसी की कड़ी है। हां, वहां जो दिखता है वह धरती पर हो न हो कल्‍पना में जरूर है, लेकिन वह गांव ही रहता है अर्थात स्‍मार्ट शहर का स्‍मार्ट उपनिवेश स्‍मार्ट गांव। मोहन भागवत इस बात को अच्‍छी तरह समझते हैं इसीलिए सपने की जवाबदेही समुदाय को सौंप रहे हैं। उनका संकेत सीधा है समुदाय जश्‍न मनाओ कि तुम्‍हारे सपने अब स्‍मार्ट हो रहे हैं। गांव मर जाओ क्‍योंकि तुम सपने नहीं देखते हो। हां तेरा मर्सिया पढ़ने वाले स्‍मार्ट होंगे क्‍योंकि आने वाले स्‍मार्ट शहरों के लोगों के सपने अभी से ही स्‍मार्ट हो रहे हैं।


narendra aniketनरेंद्र अनिकेत। कहानीकार एवं पत्रकार। जन्म 12 अप्रैल 1967, भगवानपुर कमला, जिला समस्तीपुर, बिहार। शिक्षा एम. ए. हिंदी साहित्य, पिछले 20 वर्षों से विभिन्न अखबारों में सक्रिय रहे हैं। आप इनसे [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।