विकास के मॉडल पर बात करनी हो तो चलिए ‘कान्हा’

garib hun“ लोगों के बीच जाइए। उनके साथ रहिए। उनसे सीखिए। उन्हें स्नेह दीजिए। शुरू करें वहां से जो वे जानते हैं। निर्माण उन चीजों से करें जो उनके पास है। लेकिन नेतृत्व ऐसा हो कि जब काम पूरा हो तो लोग कहें, ‘ये हमने बनाया है। ”

विकास और नियोजन को लेकर पांचवीं और छठी शताब्दी के चीनी दार्शनिक लाओ त्सू की यह परिकल्पना 20वीं शताब्दी में भारत सहित दुनिया के किसी भी देश के विकास मॉडल में नजर नहीं आती। जिन परिणामों की प्राप्ति के लिए विकास के ये मॉडल बनाए गए, वे फिलहाल अपेक्षित परिणाम देने में नाकाम हैं। इसके दर्जनों उदाहरण हमारे सामने हैं। एक समय अमेरिका के चार बड़े निवेश बैंकों में शुमार रहे लेहमैन ब्रदर्स के 2008 में दिवालिया होने के बाद अब बारी भारतीय स्टेट बैंक और उसके अधीनस्थ बैंकों की है, जिन पर 5 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का डूबते खातों का ऋण है। दुनिया में भारत अकेला देश नहीं, जिसका विकास मॉडल फेल हुआ है। ग्रीस का दिवालिया हो जाना और भयंकर मंदी में उलझे यूरोपीय संघ के कुछ और देशों, चीन, ब्राजील, तुर्की और मलेशिया में भी विकास के भूमंडलीकृत मॉडल की नाकामी साफ झलकने लगी है। इस पर विचार कर बदलाव की जरूरत है। हालांकि, इसे लेकर कोई बहस दिखाई नहीं दे रही है, जो बीते 60-70 साल में पेश किए गए विकास के विभिन्न मॉडलों से मिले परिणामों की समीक्षा कर इनकी उपयोगिताओं को परखने का प्रयास करे।

मिसाल के लिए, आजादी के बाद से 1988 तक वन और वन्य जीवों के संरक्षण से जुड़े जितने भी कानून बने, सभी में कमोवेश यही भावना थी कि किस तरह सदियों से वनों पर आश्रित आदिवासी समाज को बेदखल किया जा सके। यह हुआ भी। लेकिन अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद जंगल और वन्य जीवों की स्थिति क्या है ? आजादी के समय देश के 18 फीसदी हिस्से में घने जंगल थे, जो अब घटकर 2.61 फीसदी में ही रह गए हैं। 2013 से अब तक 2500 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा घने जंगलों का सफाया हो चुका है, फिर भी सरकारी ‘स्टेट ऑफ फॉरेस्ट 2015’ में जंगल बढ़ने का करामाती आंकड़ा पेश किया गया।

फोटो- नर्मदा बचाओ आंदोलन के फेसबुक वॉल से।
फोटो- नर्मदा बचाओ आंदोलन के फेसबुक वॉल से।

देश में बड़े बांधों का मॉडल भी नाकाम रहा है। इनकी परिकल्पना सिंचाई, बिजली उत्पादन और बाढ़ नियंत्रण के लिए की गई थी। आजादी के समय देश में कुल 300 बांध थे। इनकी संख्या अब बढ़कर 4,000 से ऊपर पहुंच गई है, लेकिन इनके द्वारा सिंचित रकबा महज 10-12 फीसदी ही है। वही कृषि क्षेत्र में 90 प्रतिशत तक सिंचाई नलकूपों से हो रही है। जिस महाराष्ट्र में इस समय भयानक सूखा है, उसी राज्य में सबसे ज्यादा बांध हैं। अब सरकार वहां के किसानों से कम पानी वाली फसलें लेने को कह रही है, क्योंकि सिंचाई को छोड़िए मराठवाड़ा के बांधों में केवल एक फीसदी पानी ही बचा है। अभी और बांध बनने हैं, क्योंकि विकास के मॉडल को जिंदा रखने के लिए बिजली चाहिए। यह बिजली नवीनीकृत ऊर्जा स्रोतों से कम, थर्मल पावर से सर्वाधिक पैदा होगी। आगे हालत और बदतर होने वाले हैं, क्योंकि हमारे थर्मल पावर प्लांट और ज्यादा, और ज्यादा पानी पीने वाले हैं।

हम एक और हरित क्रांति की बात कर रहे हैं, जबकि जहरीले रसायनों पर आधारित आधुनिक खेती का मॉडल 3 लाख से ज्यादा किसानों की जिंदगी ले चुका है। बीज का बाजार सजा है तो कर्ज वसूली के लिए बैंक कोई भी हद पार करने को तैयार हैं। सरकार चाहती है कि महज 3000 रुपए के लिए ‘धरती माता’ के सीने पर पसीना बहाने के बजाय किसान अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर शहरों में मजदूरी करें। हरित क्रांति ने 1951-2014 के दौरान देश के खाद्यान्न उत्पादन को बेशक पांच गुना बढ़ाया, लेकिन पैदावार के समान वितरण और भोजन तक पहुंच का मसला आज भी खाद्य असुरक्षा के रूप में मुंह बाए खड़ा है।

गांव से शहर तक जाने वाली पक्की सड़क बच्चों को दूध से वंचित करती है। गांव की सब्जियां, अनाज और अन्य संसाधन उस मध्य वर्ग का पेट भर रहे हैं, जिसके पास खरीदने की ताकत है। नतीजा यह कि देश में 20 करोड़ से ज्यादा अल्पपोषित लोग हैं। दुनिया के एक-तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में रहते हैं। शिशु रोग विशेषज्ञों की भारतीय अकादमी का ताजा अनुमान यह है कि देश में हर मिनट एक कुपोषित बच्चे की मौत हो रही है। इसी अप्रैल में इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दालों के साथ अब हम मक्का और कुक्कुट आहार भी विदेशों से मंगवाने लगे हैं।

अजय कुमार की फेसबुक वॉल से कोसी की तस्वीर
अजय कुमार की फेसबुक वॉल से कोसी की तस्वीर

बीते करीब सात दशकों के नियोजन काम में देश के विकास के तमाम बुद्धिमत्ता भरे मॉडल नाकाम रहे। बीता साल सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) का आखिरी साल था, जिसके लक्ष्यों को दुनिया का कोई भी देश पूरा नहीं कर पाया। एमडीजी का नाकामयाब होना यही बताता है कि मौजूदा विकास के मॉडल को लेकर हम गरीबी, असमानता और खाद्य असुरक्षा को खत्म नहीं कर सकते। अब उसी नाकाम एमडीजी को थोड़ी लीपापोती कर टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी)  पेश किया गया है। यानी बीते 15 साल की नाकामी और मौजूदा विकास मॉडल की विफलताओं पर कोई सवाल नहीं कर रहा है।

सरकारों का पूरा जोर ढांचागत विकास और शहरीकरण की तरफ है। इसके पीछे निजी पूंजी निवेशकों का बड़ा हाथ है। ये किसी भी तरह से अधिकाधिक मुनाफा कमाने को बेताब कंपनियां हैं। ऐसे मूर्खतापूर्ण नियोजन ने शहरों के सिर से हरियाली की चादर तकरीबन खींच ही ली है। गर्मी में सुहावने मौसम के लिए मशहूर बेंगलुरू इस साल मई में ही बुरी तरह से तपा तो ‘विकास का कीर्तिमान बनाने वाले’ गुजरात के कुछ शहरों में पारा 50 डिग्री को पार कर गया। अलबत्ता, दक्षिण भारत के कुछ इलाके संरक्षित वनों के कारण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से अभी दूर हैं, पर वहां भी परिस्थितिकी तंत्र का बेड़ा गर्क करने के प्रयास शुरू हो गए हैं।

आरती कार्तिक शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार
आरती कार्तिक शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार

हमारा देश विकास का एक भी ऐसा मॉडल खड़ा नहीं कर पाया, जो व्यापक समाज की जरूरतों को पूरा करने वाला एक स्थायी, सहभागितापूर्ण और स्वावलंबी उपाय हो। जहां कहीं थोड़े-बहुत संसाधन समाज के नियंत्रण में थे, वहां से भी लोगों को खदेड़कर सरकारी तंत्र ने व्यवस्था को तहस-नहस कर रियाया को पराधीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसका बेहतरीन उदाहरण ‘पानी’ है। हमारे विशालकाय बांध सिंचाई और बिजली उत्पादन के मकसद को पूरा करने में नाकाम रहे हैं। अलबत्ता इनसे उद्योगों को पानी की जरूरत जरूर पूरी हो रही है। हालांकि, इस मॉडल ने देश को 6 करोड़ से ज्यादा विस्थापित लोगों का बेबस समाज भी दिया है, जो दुर्भाग्य से इस देश का ‘मूल निवासी’ यानी आदिवासी है। संरक्षित वनक्षेत्रों के नाम पर सरकारी व्यवस्था ने आदिवासियों को उनकी मूल बसाहट से खदेड़ा, लेकिन अब यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि देश में आधे जंगल खत्म हो चुके हैं। मध्यप्रदेश में हर माह औसतन चार-पांच बाघ मर रहे हैं।

9th media samvad
नौवें मीडिया संवाद में जुटे साथी

अरबी में एक कहावत है कि जन्नत के रास्ते पर एक अंधेरा मोड़ मिलता है। आखिरी सफर पर ‘मुसाफिर’ अक्सर भटककर उस अंधेरे मोड़ पर मुड़कर दोजख में दाखिल हो जाते हैं। शायद ऐसा ही कुछ भारत में भी हुआ है। हमारे बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो हमें सही रास्ता दिखा रहे हैं। जैसे जैसलमेर के रामगढ़ को पानीदार बनाने का समाज केंद्रित मॉडल। वहां इस सूखे और 51 डिग्री तापमान में भी उनके गांव में पशु-पक्षियों के लिए भी पानी है। इसी तरह उत्तराखंड में हुई पहल ने दिखा दिया है कि अगर जंगलों को सहेजने का जिम्मा स्थानीय समाज ले, तो न जंगलों में आग लगेगी और न कहीं पानी की कमी होगी। ये लोग असल में विकास के नाम पर चल रही उस भेड़चाल को चुनौती दे रहे हैं, जिसमें एक छायादार, घना पेड़, बहती नदी और लहलहाते खेत का कोई मोल नहीं, क्योंकि ‘बाजारवादी विकासोन्मुखी सिद्धांत’ में इनका दोहन ही विकास दर तय करता है।

कान्हा में हम विकास के नाकाम प्रतिमानों पर चर्चा करेंगे और उन लोगों की कहानियों को भी सुनने-समझने की कोशिश करेंगे, जो गाहे-बगाहे अपने पुरुषार्थ से इन प्रतिमानों को चुनौती दे रहे हैं। हमें लगता है कि इन दो छोरों से पकड़कर इस पूरे विषय का संतुलित विश्लेषण किया जा सकता है और यही हमें दोजख की राह पर भटकने से भी बचाएगा।

दसवें राष्ट्रीय मीडिया विमर्श के लिए कान्हा को हमने इसलिए चुना, क्योंकि यह मध्यप्रदेश के मंडला जिले का एक मशहूर पर्यटन केंद्र है। यहां के संरक्षित वन में इंसानों को खदेड़कर बाघों को बसाया गया है। थोड़ा असपास नजर दौड़ाएं तो चुटका के निर्माणाधीन परमाणु संयंत्र के रूप में एक और उदाहरण मिलेगा। ऊर्जा का एक ऐसा विकल्प, जो बदले में आने वाली कई पीढ़ियों को तबाह कर देता है। जबलपुर के पास नर्मदा नदी पर बना बरगी बांध भी है, जिसे सिंचाई के लिए बनाया गया था, लेकिन अब वहां सैर-सपाटा होता है, क्रूज चलते हैं, मौज-मस्ती होती है।

हम तीन दिन (13-14-15 अगस्त 2016) कान्हा में रहकर इस बात पर मंथन करेंगे कि नव उदारवादी विकास के प्रतिमान देश और समाज के सामने मौजूद चुनौतियों से निपटने में किस कदर खरे उतरे हैं। क्या उदारवादी नीतियों का परिणाम यही होता है कि समाज अपनी उदारता को खो दे, सहिष्णुता और संयम को तिलांजलि दे दे? विमर्श के आखिरी दिन हमें उम्मीद है  कि एक ऐसा रास्ता निकलेगा, जो आधार पत्र के सबसे ऊपर लाओ त्सू के कथन को सार्थक कर सके।


दसवें राष्ट्रीय मीडिया विमर्श के लिए विकास संवाद की ओर से जारी आधारपत्र