राष्ट्रीय परिदृश्य पर हावी संकीर्ण और जनविरोधी सोच

राष्ट्रीय परिदृश्य पर हावी संकीर्ण और जनविरोधी सोच

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार

किसी की बीमारी पर कटाक्ष नहीं होना चाहिए। किसी को भी बद्दुआ नहीं, हर किसी को शुभकामना देनी चाहिए। बीमारी तो किसी को भी हो सकती है । हां, गंभीर बीमारियों के शिकार असंख्य आम लोगों के बारे में भी सरकारों को सोचना चाहिए। सभी विदेश नहीं जा सकते। भारत को मंदिर-मस्जिद या गाय-गोबर में मत फंसाइये, उसे अच्छी शिक्षण-व्यवस्था और विश्वस्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं दीजिए। जो ऐसा करेगा, वह कभी चुनाव नहीं हारेगा। दंगा-फसाद कराकर या लोगों को विभाजित करके एक बार या कुछेक बार चुनाव जीता जा सकता है बार-बार नहीं। एक बार या कुछेक बार भी तब जीता जाता है, जब देश में भारी अशिक्षा हो। इस परिदृश्य को बदलने की जरूरत है।

वैसे बेहद संकीर्ण, दृष्टिविहीन और जनविरोधी किस्म के लोग आज हमारे राष्ट्रीय परिदृश्य पर क्यों हावी हैं? क्योंकि विपक्ष के दो प्रमुख शिविरों की अपनी-अपनी बेहिसाब कमियां हैं। 2014 में वो साफ़-साफ़ दिखी थीं। 2019 में भी वो दिखाई दे रही हैं। कांग्रेस आम समझ के स्तर पर क्षेत्रीय या सबाल्टर्न के प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले दलों से बेहतर है। पर उसके नीति-निर्धारकों में आज भी ब्राह्मणवादी (जाति नहीं सोच) और मनुवादी मिजाज के लोगों का वर्चस्व है। राहुल गांधी की कुछ बेहतर कोशिशों के बावजूद पार्टी का वह ‘ताकतवर समूह’ किसी कीमत पर सबाल्टर्न समूहों के सुयोग्य प्रतिनिधियों को पार्टी के अंदर या उसकी परिधि के बाहर नीति-निर्धारण में हिस्सेदारी देने को तैयार नहीं दिखता। इसके अलावा भी एक समस्या है। जब पार्टी सरकार में आती है तो सत्ता संरचना में निहायत एरोगेंट और दलाल किस्म के तत्वों के गिरोह सक्रिय हो जाते हैं। एक समय राजीव गांधी ने इनसे निपटने का आह्वान किया। पर कुछ खास नहीं हासिल हुआ।

संभवतः राहुल गांधी पार्टी के इस चरित्र से वाकिफ हैं और इसे बदलना चाहते हैं। पर इसके लिए वैकल्पिक सांगठनिक नेटवर्क और नये मिजाज की टीम चाहिए। वह टीम तो बना रहे हैं पर इतनी जल्दी नये मिजाज से लैस संगठन कहां से आयेगा। उनकी सबसे बड़ी समस्या यही है।रही बात क्षेत्रीय दलों की तो उनके यहां सूचना, विचार और ज्ञान का घोर अकाल है। इसके चलते वे अपनी मूर्खता और भ्रष्ट आचरण की बहुत भौंडी शैली का प्रदर्शन करते रहते हैं। इसके चलते वे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा ब्लैकमेल भी जल्दी होते हैं। उनके पास न तो संघ जैसा विशाल और अनेक मुखों वाला सांगठनिक नेटवर्क है और न कांग्रेस जैसा थिंकटैंक (आमतौर पर सवर्ण पृष्ठभूमि के घोर दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों के साथ लेफ्ट-लिबरलस और नवउदारवादी, हर तरह के तत्वों सहित) है। उनके पास सिस्टम के अंदर संवाद या सहयोग करने वाले लोग भी नहीं हैं। नौकरशाही, न्याय क्षेत्र, एकेडमिक्स और मीडिया में उनका कोई उल्लेखनीय आधार नहीं है। जब वे सूबाई स्तर पर सत्ता में आते हैं तो सरकारी छोड़िए, उनके निजी सचिवालय का संचालन भी वे लोग करते हैं, जिनकी बौद्धिक निष्ठा मनुवादियों के साथ होती है। सबाल्टर्न समूहों से जो थोड़े बहुत लोग बौद्धिक क्षेत्र में उभरे हैं, उनसे इन दलों के नेता बुरी तरह बिदकते हैं।

इस जटिल सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य और गैर-संघी राजनीतिक धड़े के प्रति बहुजन आबादी (85 फीसदी) की बढ़ती उदासीनता के चलते ही संघ-संचालित शक्तियों को 2014 में इतनी बड़ी कामयाबी हासिल हुई थी। अब सोचिए 2019 के बारे में। एक पत्रकार के रूप में यहां हमारा काम स्थिति को रिपोर्ट करना था। इस बार स्थिति से निपटने और नतीजे के बारे में आप सोचिए।


उर्मिलेश/ वरिष्ठ पत्रकार और लेखक । पत्रकारिता में करीब तीन दशक से ज्यादा का अनुभव। ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘हिन्दुस्तान’ में लंबे समय तक जुड़े रहे। राज्यसभा टीवी के कार्यकारी संपादक रह चुके हैं। दिन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता करने में मशगुल।