स्वेक्षा- सुरों के सुरीले सफ़र की शुरुआत

स्वेक्षा- सुरों के सुरीले सफ़र की शुरुआत

लखनऊ प्रतिनिधि, बदलाव

कविवर रविन्द्र नाथ टैगोर के 127वाँ जयंती के अवसर पर Bengali Club &Young men’s Association, Lucknow की ओर से रविन्द्र संगीत प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। रविन्द्र जयंती 2017 के संगीत प्रतियोगिता में स्वेक्षा प्रिया ने प्रथम पुरस्कार अपने नाम किया। पिछले एक साल से बंगाली क्लब में प्रोग्राम होने और अपनी प्रस्तुति देने के इंतजार मे थी। दोनों ख़्वाहिशें एक साथ पूरी हुई।

भोजपुरी शेक्सपियर के जन्मभूमि से बांग्ला संगीत का आगाज चौंकाने वाली बात है। वैसे घर का माहौल ठेठ भोजपुरी। छपरा बिहार में स्वेक्षा प्रिया का जन्म 14 जुलाई 2005 को हुआ। शरारती और चंचल स्वभाव विरासत में लिए अपने बाबा (दादा जी) की लाडली। संगीत के बारे में कौन सोचे, यहाँ तो बेसिक पढ़ाई कर लेगी इसमें घर वालों को संदेह था। चूँकि बाबा के लाड ने और विशेष संरक्षण के कारण कुछ कर पाना कभी किसी ने सोचा नही था। यह बताते चलें कि संयुक्त परिवार से होने के कारण घर के दूसरे बच्चे स्वेक्षा और उसके दादा जी से कटे-कटे महसूस करते थे। इसका खामियाजा दादा को भुगतना पड़ता, और उन बच्चों से लेकर उनकी मम्मी तक के ताने सुनने पड़ते।

खैर येन-केन-प्रकारेण स्कूली शिक्षा शुरु हुई। वो छपरा का ब्रज किशोर किंडर गार्डेन था। यहां लगभग एक साल ही पढ़ कर पाई।
चूँकि स्वेक्षा प्रिया के पापा उस दौरान आरडीएसओ, लखनऊ में नौकरी कर रहे थे। ऐसे में पारिवारिक सहमति और बेहतर पढ़ाई की उम्मीद लिए लखनऊ रहने का निश्चय हुआ। यही कोई 1 जुलाई 2011 में स्वेक्षा प्रिया का अध्ययन लखनऊ के सीएमएस में शुरू हो गया।

बिहार छोड़ लखनऊ आने पर बहुत कुछ बदला। यूँ कहे कि बदलाव की नयी उम्मीद। बड़ी बहन कथक सीखना चाहती थी तो पापा ने उसका एडमिशन पास के डांस एकेडमी में करवा दिया। छोटा भाई कराटे सीखने चला जाता। वहीं स्वेक्षा की दिलचस्पी टीवी के डिस्कवरी चौनलों में होने लगी। जानवर से लेकर सौर मंडल तक को समझना ही रुटिन बन गया। वैसे 90-95 प्रतिशत अंकों के साथ क्लास में अपनी पोजीशन को लेकर गंभीर बनी रहती, जो आज भी जारी है।

लगभग तीन साल हुए, पापा ने स्वेक्षा का एडमिशन माया भटाचार्य के यहाँ करवा दिया। माया दी रेलवे मे वरीय लिपिक के पद पर हैं। साे रे गा मा और स्वेक्षा का ताल मिलाने में क्या हाल हुआ होगा और किन-किन बहानों के दौर से गुजरना पड़ा था… कहना और सुनना दोनों मुश्किल है। क्योंकि स्वभाव तो बेहद चंचल, फिर साधना कर पाना….। इससे जुड़ी घटना का ज़िक्र करते चलें कि सीएमएस में अक्सर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का दौर चला करता है। एक-दो बार तो स्वेक्षा भी इस तड़क-भड़क में शामिल हो पाई, इसके बाद तो तौबा कर लिया। फिर क्या था। स्कूल का प्रेशर और इसके “ना” भाग लेने के बीच आखिरकार स्वेक्षा ने मध्यमार्ग खोज निकाला- विद्यालय के प्रोग्राम में एंकरिंग करने का। छोटे-छोटे स्पीच को घंटों शीशे के सामने पढ़ना और खुद के लिए वेरी गुड कहना।

बहरहाल खूब मशक्कत के बाद मन लगा। आलाप अब हारमोनियम पर होने लगे। रेलवे काॅलोनी मे बंगाली परिवार और खासकर दशहरा मे बांग्ला परिवेश के कारण संगीत, नाटक सहित अन्य प्रतियोगिता से बच्चों को प्लेटफार्म मिलने में सहजता होती थी। तो इसका भरपूर फायदा उठाते हुए कोरस के साथ मंच पर जगह बनाया स्वेक्षा ने।  हां सही है व्यक्ति के जीवन में निश्चित गोल होना चाहिए। यहां भी संगीत शिक्षा के साथ ही माया दी ने बार-बार दोहराया कि सबसे अच्छी प्रस्तुति होने पर ही लखनऊ बंगाली क्लब मे प्रोग्राम संभव है। तो ऐसा होने और बनने के जूनुन ने स्वेक्षा को आखिरकार 8 मई 2017 को अवसर मिल पाया।

स्वेक्षा की माने तो ख़िताब उसने पाया लेकिन वो समर्पित है उसके “दा जी” को जो आज इस दुनिया में नहीं हैं।⁠⁠⁠⁠

2 thoughts on “स्वेक्षा- सुरों के सुरीले सफ़र की शुरुआत

  1. निरंतर आगे बढती रहो स्वेच्छा। आने वाला कल तुम्हारा ही है। ऊंचा मुकाम हासिल करना । मेरी शुभकामना।

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