स्कूल की चहारदीवारी के बाहर ‘गुरुदेव’ की पाठशाला

स्कूल की चहारदीवारी के बाहर ‘गुरुदेव’ की पाठशाला

डा. सुधांशु कुमार

आज के निष्प्राण , अमनोवैज्ञानिक व सूचना केन्द्रित शैक्षिक आपातकाल के बीच विश्वकवि एवं महान चिंतक रवीन्द्रनाथ टैगोर की पावन स्मृति शैक्षिक अंधकार के बीच मशाल से कम नहीं । सिर्फ़ महान चिंतक ही नहीं , वरन कवि , साहित्यकार एवं शिक्षाविद के रूप में भी उनका फलक बहुत विस्तृत था । बाल्यकाल में ही अमनोवैज्ञानिक , उबाऊ एवं निष्प्राण शिक्षा पद्धति के विरुद्ध खड़े हो गए । शायद प्रकृति ने अपने अंश को शैक्षिक अंधकार मिटाने हेतु इस ज्योतिपुंज को भारतभूमि पर भेजा था। यही कारण है कि प्रारंभिक शिक्षा के लिए इन्हें क्रमशः ओरियन्टल सेमिनरी, नार्मल स्कूल, बंगाल एकेडमी और सेंटजेवियर स्कूल भेजा गया लेकिन इनमें से किसी विद्यालय की लंबी-चौड़ी चहारदीवारी बालक ‘टैगोर’ को कैद न रख सकी । इन्हें उन विद्यालयों का निष्प्राण , ऊबाऊ वातावरण पसंद न आया । उन्होंने ‘बंगाल एकेडमी’ के संबंध में लिखा है -” यहां घर के समान कुछ न मिला , वरन् वह तो बड़े बाक्स के समान था जिसमें अनेक खाने थे । ” सेन्ट जेवियर स्कूल के संबंध में लिखा कि -” यह भी भावोत्पादक जेल या अस्पताल के वातावरण का प्रतिरूप था , जो आसपास के जीवन तथा सौंदर्य से दूर था !”

विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर की पुण्यतिथि पर विशेष

विषम राजनीतिक , सामाजिक एवं शैक्षिक वातावरण के बीच 6 मई सन 1861 ई. को कलकत्ता के समृद्ध-सुसंस्कृत परिवार में रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ । पिता- देवेंद्रनाथ टैगोर । माता – शारदा देवी । एक प्रसिद्ध समाज सुधारक , विद्वान , संस्कृति प्रेमी पिता एवं धार्मिक स्वभाव वाली माता की स्नेहछाया में बालक टैगोर ने जब आँखें खोली तब तक ब्रिटिश साम्राज्य के काले-काले बादल भारतीय संस्कृति , संस्कार और गुरुकुल शिक्षा पद्धति के भास्कर को ढक चुके थे । इन विषम परिस्थितियों में उन्होंने उस गहन अंधकार को मिटाने और भारतीय वैज्ञानिक सनातन संस्कृति की पुनर्स्थापना का मन ही मन संकल्प लिया । पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित पिता इन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे दूसरी तरफ टैगोर थे जिन्होंने मन ही मन ठान लिया था कि उन्हें क्या बनना है । सन 1978 ई. में शिक्षा हेतु इंग्लैंड भेजे गए और 1881ई. तक वहां उन्होंने लैटिन और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया और बिना शिक्षा पूरी किए वापस लौट आए । उसी वर्ष कानून की पढ़ाई के लिए पुनः इंग्लैंड गए किंतु मन न लगा , पुनः लौट आए । वापस लौटकर निर्बाध रूप से लेखन कार्य शुरू हुआ । पूरब-पश्चिम के अनुभव कागज पर उतरने लगे । वह एक तरफ अपने देश की विपन्नता से व्यथित थे तो दूसरी तरफ पश्चिम के वैभव से अचंभित । 1881 ई. से 1891 तक इनके लेख ‘भारती’ (मासिक पत्रिका) में एवं 1891 -1895 तक ‘साधना’ में छपे । साथ ही इसी बीच इनकी कृतियाँ भी प्रकाशित होने लगीं। 1891 ई. में ‘यूरोप यात्री की डायरी’ प्रकाशित हुई जिसमें पूर्वी जड़ता एवं पश्चिमी जागृति का सूक्ष्म विश्लेषण है। इसके साथ ही शिक्षा में हेर फेर , उत्सवेर दिन , पूर्व-पश्चिम , धर्म , शांति निकेतन , गीतांजलि आदि दर्जनों कृतियों की रचना की ।

तत्कालीन शिक्षा पद्धति से असंतुष्ट रवीन्द्रनाथ ने पिता की सहमति से कलकत्ता से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर ‘बोलपुर’ में प्रकृति के सुरम्य वातावरण के बीच शांतिनिकेतन आश्रम में शिक्षा संस्था की शुरुआत की। शुरू में सिर्फ पांच विद्यार्थी थे और रवीन्द्रनाथ एक मात्र शिक्षक ! इसी बीच भारतीय राजनीतिक आंदोलनों में भी वह सक्रिय रहे, साथ-साथ साहित्य साधना भी चलती रही । 1913 ई. में जब इन्हें ‘गीतांजलि’ पर नाबेल पुरस्कार दिया गया तो इनकी ख्याति बढ़ती चली गयी । इन्होंने इस पुरस्कार में प्राप्त पूरी धनराशि शांतिनिकेतन को समर्पित कर दी । 1920-30 तक इन्होंने अपना अधिकांश समय विदेशों में बिताया और कई विश्वविद्यालयों ने इन्हें डी. लिट. की मानद उपाधि से भी विभूषित किया । अंग्रेजों ने इन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि दी जिसे इन्होंने जलियावाला कांड से दुखी होकर लौटा दिया । महात्मा गांधी ने इन्हें ‘गुरुदेव’ की उपाधि दी और टैगोर ने गांधी को ‘महात्मा’ कह कर पुकारा।

गुरुदेव ने अपने समय की अंग्रेजी माध्यम से चलने वाली शिक्षा को अव्यवहारिक बतलाया और मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने पर बल दिया । इनका विचार था कि शिक्षा के द्वारा भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का विकास होना चाहिए । इनकी दृष्टि में शिक्षा वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य भौतिक प्रगति करता है और आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करता है । इन्होंने बच्चों के प्राकृतिक , सामाजिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के विकास पर बल दिया है । इनके शब्दों में “सर्वश्रेष्ठ शिक्षा वह है जो हमारे जीवन और समस्त सृष्टि के बीच समरसता स्थापित करती है। ” वह भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञान को समान महत्व देते थे । यह हमारी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है । ईशोपनिषद के नौवें मंत्र में इसे देखा जा सकता है –

अन्धतमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ।

अर्थात-जो लोग केवल अविद्या अर्थात संसार की ही उपासना करते हैं वे अंध तम में प्रवेश करते हैं और इससे अधिक अंधकार में वे प्रवेश करते हैं , जो मात्र ब्रह्मविद्या में ही रत रहते हैं । गुरुदेव इसी मत के पोषक थे । भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञान व संस्कृति को समान महत्व देते थे जो संतुलित सामाजिक जीवन के लिए अत्यावश्यक है। संभवतः उनके इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर अमेरिकन समाजशास्त्री विलियम एफ.आगबर्न ने ‘सांस्कृतिक विलंबन’ का सिद्धांत दिया , जिसके अंतर्गत भौतिक संस्कृति, जैसे – विज्ञान, तकनीकी विकास, कंम्प्यूटर आदि में तीव्र गति से विकास होता है किंतु अभौतिक संस्कृति जैसे- रीति-रिवाज , परंपराएं , सामाजिक मूल्य , आदर्श , सामाजिक मान्यताओं आदि में विकास नहीं हो पाता। साथ ही भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति की तुलना में तीव्र गति से विकास कर आगे निकल जाती है । भारत में भ्रष्टाचार , आतंकवाद , सांप्रदायिकता , छात्र असंतोष , घरेलू हिंसा , गुरु व माता-पिता को बच्चों द्वारा सम्मान नहीं किया जाना आदि अनेक समस्याएं सांस्कृतिक विलंबन के कारण ही है। यही कारण है कि ‘गुरुदेव’ ने शिक्षा द्वारा बालकों के भौतिक-अभौतिक दोनों प्रकार के समान विकास पर बल दिया । उन्होंने इन शिक्षकों को ज्ञानी , संयमी और समर्पित होने पर बल दिया क्योंकि उनका मानना था कि बच्चे शिक्षकों द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान की अपेक्षा उनके मनोभावों और आचरण की विधियों को शीघ्र सीखते हैं । इसलिए शिक्षकों को ज्ञानी, चरित्रवान एवं आदर्श आचरण करने वाला होना चाहिए। निरंकुश शिक्षकों को वे जेल वार्डन कहा करते थे ! उनकी दृष्टि में शिक्षकों में राष्ट्रप्रेम और अंतरराष्ट्रीय सद्भाव होना चाहिए क्योंकि ऐसे शिक्षक ही बच्चों में राष्ट्रीयता का विकास कर सकते हैं । उनका स्पष्ट मानना है कि बच्चों को जबरन कुछ मत सिखाओ , पहले उन्हें सीखने के लिए प्रेरित करो साथ ही उन्हें ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग का अवसर दो । उन्हें अंग्रेजी के स्थान पर उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दो और किसी भी स्थिति में बच्चों के साथ प्रेम व सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करो ।

आज जब संपूर्ण शिक्षा प्रणाली सूचनाकेन्द्रित हो , अनुशासन के नाम पर शिक्षक व्यक्तिगत कुंठा छात्रों पर आरोपित कर रहे हों , शिक्षकों-छात्रों के बीच संवादहीनता व अपसंस्कृति संक्रमित हो चुका हो , पाठ्यक्रम विचारधारा विशेष के प्रसार का ही अड्डा मात्र बन चुका हो …इन शैक्षणिक त्रासदी के बीच गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ‘टैगोर ‘ के शैक्षिक सिद्धांत व विचार इस शैक्षिक आपातकाल के बीच मशाल की तरह हमें मार्ग दिखा रहे हैं , लेकिन हम हैं कि अपनी आंखों पर पट्टी बांधे बैठे हैं। देश के महान स्वतंत्रता सेनानी एवं देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के शब्दों के साथ उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर कोटिशः श्रद्धांजलि अर्पित हैं कि –“टैगोर आधुनिक भारत के न केवल महान कवि और कलाकार थे वरन भारत के महान संत भी थे जिनके उच्च नैतिक सिद्धांत स्थायी तथा सार्वभौमिक हैं । पचास वर्षों से अधिक समय तक वे महान शिक्षक रहे और श्रद्धापूर्वक ‘गुरुदेव’ की संज्ञा से अभिहित किए जाते रहे ।”

लेखक शिक्षाविद , स्तंभकार व साहित्यकार हैं..