‘आज देश में पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति की ज़रूरत है’

‘आज देश में पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति की ज़रूरत है’

ब्रह्मानंद ठाकुर

‘मां, आपके मतानुसार हमारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? बड़े हो जाने पर हमें किस काम में लग जाने पर आपको सर्वाधिक खुशी होगी ? न जाने आपके मनकी चाह क्या है ? काफी धनवान , गाड़ू, घोड़ी, मोटर इत्यादि के अधिकारी, अनेक दास-दासियों के स्वामी, विशाल अट्टालिका एवं विपुल जमींदारी के अधिकारी होने पर आपको सर्वाधिक खुशी होगी या गरीब होने पर भी गुणी-ज्ञानियों द्वारा वास्तविक ज्ञानी कह कर सम्मानित होने से आपको सर्वाधिक खुशी होगी, यह मुझे नहीं मालूम। मैं अक्सर सोंचता हूं कि बंगाल के निवासी कब इंसान बनेंगे ? कब चंद पैसों का लालच छोड़ उच्च विषयों पर सोचना सीखेंगे, कब हर मामले में अपने पैरों पर खड़े होकर इंसान के रूप मे अपना परिचय देंगे ?’ ( सुभाष बाबू द्वारा कटक से अपनी मां प्रभावती जी को लिखे पत्र का अंश ।)

23 जनवरी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 123 वीं जयंती । सन् 1897 में इसी दिन कटक में जानकी नाथ बोस और प्रभावती देवी की नौवीं संतान के रूप में सुभाषचंद्र बोस का जन्म हुआ था। जब सुभाषचंद्र बोस 5 साल के हुए तो उन्हें प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए स्थानीय मिशनरी स्कूल में दाखिला कराया गया। विद्यालय प्रबंधन द्वारा भारतीय और एंग्लो-इंडियन छात्रों के बीच काफी भेदभाव किया जा रहा था। प्राथमिक एवं मिडिल स्कूलों के भारतीय छात्रों को छात्रवृत्ति परीक्षा में शामिल होने की सख्त मनाही थी । एंग्लो-इंडियन छात्रों को जहां विद्यालय की तमाम गतिविधियों में शामिल होने की छूट थी, वहां भारतीय छात्रों को अपनी प्रतिभा निखारने का कोई अवसर नहीं था। उस विद्यालय में पढ़ते हुए सुभाष बाबू के बाल मस्तिष्क में यह बात घर कर गई कि एक ही विद्यालय में पढ़ने के बाबजूद केवल भारतीय होने के कारण उनका एक अलग वर्ग है। उनके बाल मन पर इस भेदभाव का जो प्रभाव पड़ा उसी का परिणाम हुआ उनका दाखिला रेवेन्शा कालेजियट स्कूल में हुआ जहां के प्रधानाध्यापक बेनीमाधव दास का सान्निध्य मिला और उनको उन्होंने अपना आदर्श मान लिया।

अपने स्कूली शिक्षा के दौरान सुभाष बाबू रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और स्वामी विवेकानन्द के साहस और उनके राष्ट्रवादी विचारों से काफी प्रभावित हो चुके थे। उनपर यह प्रभाव आजीवन बना रहा। शारीरिक और मानसिक इच्छाओं पर नियंत्रण पाने के लिए उन्होंने योग का अभ्यास किया और प्रार्थना आदि भी करने लगे। उनके मन में सन्यासी बनकर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा जगी और एक दिन चुपचाप घर छोड़ दिया । वे अपने एक मित्र के साथ लक्ष्मण झूला, वृन्दावन, बनारस और हरिद्वार आदि तीर्थों का भ्रमण करने लगे। इस दौरान उनकी मुलाकात अनेक साधू-संतों और सन्यासियों से हुई लेकिन किसी से उन्हें संतुष्टि नहीं मिली। इन साधू-संतों के व्यवहार से पहला झटका उनको तब लगा जब हरिद्वार के किसी मठ के भोजनालय मे साधुओं ने उन्हें और उनके मित्र को भोजन परोसने से इन्कार कर दिया। तब उन्हें अपने डेरे पर जाकर भोजन करना पडा था। इसी तरह वाराणसी के रामकृष्ण मिशन आश्रम में वहां के पंडितों ने सुभाष बाबू और उनके मित्र को कुंए से पानी भरने से इसलिए मना कर दिया कि वे ब्राह्मण नहीं थे। जब उनके साथी ने गले से जनेऊ निकाल कर दिखाते हुए अपने को ब्राह्मण होने का सबूत दिया तभी उनको कुएं से पानी भरने दिया गया। इस तीर्थयात्रा के दौरान सुभाष बाबू को जो अनुभव प्राप्त हुआ उससे वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वास्तव में ये साधु-संत और सन्यासी अंधविश्वास, कठमुल्लापन, कट्टरवाद और फिरकापरस्ती के शिकार हैं। यही लोग देश की मुक्ति में बाधक हैं। अपने तीर्थ यात्रा के अनुभवों का जिक्र करते हुए बाद में सुभाष बाबू ने अपनी पुस्तक ‘द इंडियन प्लिग्रिम’ में लिखा – ‘करीब दो महीने की इस यात्रा ने हमें हिंदू समाज की प्रत्यक्ष कमजोरियों से परिचय करा दिया। अध्यात्म और सन्यास पर मेरी जो आस्था थी वह बहुत हद तक कम हो गई और मैं कुछ अधिक समझदारी हासिल कर घर लौट गया।”

इस अवधि में उन पर स्वामी विवेकानन्द के जुझारु राष्ट्रवाद और जनसाधारण के प्रति प्रेम का जो प्रभाव पड़ा वह कायम रहा। आज ‘छात्राणाम् अध्ययन तप :’ की दुहाई देते हुए अक्सर छात्रों को देश सेवा और राजनीति से दूर रहने की नसीहत दी जाती है। सुभाष बाबू इसके सर्वथा विरोधी थे। उनका मानना था कि अध्ययन कभी तपस्या हो ही नहीं सकती। अध्ययन का मतलब है किताबें पढ़ना और परीक्षाएं पास करना। इससे तो व्यक्ति स्वर्ण पदक हसिल कर सकता है, बड़ी नौकरी पा सकता है लेकिन इंसानियत हासिल नहीं कर सकता। पुस्तकें पढ़ कर उच्च विचार और उन्नत आदर्श की शिक्षा हासिल हो सकती है लेकिन जबतक वह उन्नत विचार या आदर्श हमारी जिंदगी का अंग नहीं बनता, रोजमर्रे के व्यवहार में परिलक्षित नहीं होता तबतक वह बेमानी है और बेकार है। व्यक्ति उन्नत आदर्शों और विचारों को अपने व्यवहार में उतार कर ही महान बन सकता है।

कुछ चर्चा सुभाष बाबू के हिंदू-मुस्लिम एकता सम्बंधी विचारों पर भी जरूरी है, क्योंकि आज हमारे देश में हिन्दुत्व के नाम पर काफी कुछ कहा-सुना जा रहा है। 1928 में कुष्ठिया के जनसभा को सम्बोधित करते हुए साम्प्रदायिकता के सवाल पर उन्होंने कहा था कि जो लोग यह कहते हैं कि हिन्दू और मुसलमान का स्वार्थ परस्पर विपरीत है वे झूठ बोल रहे हैं। भारत की मूल समस्या क्या है ? खाद्यान्नों का अभाव, बेरोजगारी, राष्ट्रीय उद्योगों का क्षय, मृत्यु दर में बढ़ोतरी, स्वास्थ्य और शिक्षा की समस्या । इन समस्याओं का समाधान न होने पर इंसान की जिंदगी जीने लायक नहीं रह जाती। इस मुद्दे पर तो हिन्दू और मुसलमान दोनों का स्वार्थ एक समान है। उन्होंने कहा था कि ”यदि एक साथ समूचे राष्ट्र में क्रांतिकारी मानसिकता का विकास हो जाए तो साम्प्रदायिकता का पूरी तरह से सफाया सम्भव है।
उन्होंने यह भी कहा था कि भारत में हिन्दुओं की बहुलता के कारण हिन्दूराज की बात सुनने को मिलती है। यह सब आलसी विचार है। मेहनतकश आवाम जिन सवालों से जूझ रही है, क्या ये साम्प्रदायिक संगठन इनमें से किसी एक को हल कर पाएंगे ? किस तरह बेरोजगारी, निरक्षरता, गरीबी आदि समस्याओं का समाधान होगा ? उन्होंने उम्मीद जताई थी कि आजादी के बाद राष्ट्रीय पुनर्गठन का दौर शुरु होगा जो हमारे आंदोलन का सोशलिस्ट पर्व कहलाएगा। हम समझौताहीन लड़ाई जारी रखेंगे।तब के वामपंथियों को चेताते हुए नेताजी ने कहा था ”जो साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने से हिचकिचाएंगे, जिनमें साम्राज्यवाद से समझौता करने का मनोभाव होगा वे वामपंथी हर्गिज नहीं हो सकते।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस को उनकी 123 वीं जयंती पर स्मरण करते हुए यह समझना जरूरी है कि हर युग में छात्र और युवा ही परिवर्तन के अग्रदूत रहे हैं। राष्ट्र और खासकर मनुष्यता की प्रगति में बाधक प्रतिगामी शक्तियों, क्षयग्रस्त मूल्य – मान्यताओं, परम्परा, कुसंस्कार, अंधविश्वास, फिरकापरस्ती, धार्मिक कट्टरता को समूल नष्ट कर ही नये समाज का निर्माण हर युग में सम्भव हुआ है और यह काम उस युग के विशिष्ट विचारक और महान देशभक्त नेताओं के नेतृत्व में छात्र और युवाशक्ति ने ही पूरा किया है। आज हमारे देश को आजाद हुए 72 बरस पूरे हो रहे हैं। सुभाष बाबू ने आजादी के बाद नये भारत के निर्माण का जो सपना देखा था,वह अब भी अधूरा है। अशिक्षा, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अपसंस्कृति, महिलाओं पर अत्याचार, आर्थिक विषमता, लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में हमें सुभाष बाबू का वह कथन याद आ जाता है कि केवल अंग्रेजों को भगा देने मात्र से ही हमारा कर्तव्य पूरा नहीं होगा। एक नई समाज व्यवस्था कायम करने के लिए देश में एक और क्रांति की जरूरत है। वह क्रांति होगी पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति। आज जरूरत इसी बात की है कि इंसान को हैवान बनाने वाली इस पूंजीवादी व्यवस्था को समूल नष्ट करने के लिए व्यापक जनांदोलन शुरू किया जाए। यही नेताजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।