सुभाष चंद्र बोस के क्रांतिकारी बनने की कहानी

सुभाष चंद्र बोस के क्रांतिकारी बनने की कहानी

आज नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 124 वीं जयंती है। आज ही के दिन  (23 जनवरी) 1897 में उनका जन्म कटक ( बंगाल प्रेसिडेंसी के ओडिसा डिविजन मे जानकीनाथ बोस और प्रभावती दम्पत्ति के नौंवी संतान के रूप में हुआ था।   मात्र 5 बर्ष की उम्र में उन्हें अपने भाई-बहनों के साथ  पढ़ने के लिए कटक के प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। यहीं से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की। उस समय  उनका कार्य और व्यवहार दोनों अन्य बच्चों की तरह ही था। उन्हें इस बात का जरा भी ज्ञान नहीं था कि उन्हें जिस तरह की शिक्षा दी जा रही है, वह टिश शासकों के हितों की परिपूरक है।  वे इस बात से पूरी तरह अंजान थे कि उन्हें जो शिक्षा दी जा रही है वह भारतीयों के हित के सर्वथा प्रतिकूल है। इस प्रकार उन्हें जो कुछ भी सिखाया गया, से वे सामान्य बच्चों की तरह ही पूरे मनोयोग से सीखते रहे। लेकिन उनका कोमल मस्तिष्क भारतीय और एंग्लोइंडियन छात्रों के बीच स्कूल प्रबंधन  द्वारा किए जा रहे भेदभाव को समझ रहा था। इस छोटी उम्र मे वे इस बात को भली भांति समझ गये थे कि एक ही स्कूल मे पढ़ते हुए सिर्फ भारतीय होने के नाते उनका एक अलग वर्ग है।  बचपन / इस  अनुभूति  ने बालक सुभाष के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड ला दिया। 

उनकी इसी इच्छा पर 12 साल की उम्र में 1909  में उनका नामांकन रेवेंशा कालेजियट स्कूल में हुआ। वहां के हेडमास्टर बेनीमाधव दास का बालक सुभाष के व्यक्तित्व निर्माण मे महत्वपूर्ण योगदान रहा।   वे बेनीमाधव दास से इतना प्रभावित हुए कि उन्हें अपना आदर्श मान लिया। 
बोस के क्रांतिकारी व्यक्तित्व के निर्माण में देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति का बड़ा अहम योगदान था। लिहाजा उस दौर की राजनीतिक, सामाजिक परिस्थिति की थोड़ी चर्चा जरूरी लगती है। ऐसा इसलिए कि किसी भी महापुरुष या राष्ट्र नायक को उनके देश, काल औरपरिस्थितियों से निरपेक्ष रह कर ठीक- ठीक समझा नहीं जा सकता।

सुभाषचंद्र बोस का बचपन जिस युग में बीता,उसमें बंगाल के विभाजन की त्रासद घटना  (1905 )  घट चुकी थी। इस विभाजन के विरोध में लोग सडकों पर निकल आए थे। अंगरेज शासकों द्वारा उनपर दमनचक्र चलाना शुरू हो गया था। पूरा बंगाल उद्वेलित था। मिदनापुर के कलक्टर  किंग्सफैर्ड के हत्या का प्रयास और फिर खुदीराम बोस को हंसते- हंसते फांसी के फंदे  को गले लगाने जैसी घटनाओं ने सुभाषचंद्र बोस को गहराई तक प्रभावित किया। खुदीराम 19 बर्ष की उम्र में शहीद हुए थे। इस घटना से बंगाल समाज पूरे राष्ट्र में आक्रोश व्माप्त हो गया। इस घटना ने बड़ी संख्या में छात्र – नौजवानो को क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। सुभाषचंद्र बोस को भी क्रांति के लिए,देश को आजाद कराने के लिए प्रेरणा इसी से मिली। 1911-जब वे 8 वीं के छात्र थे ,खुदीराम बोस के  शहादत दिवस पर  छात्रों का सामूहिक उपवास रखने का कार्यक्रम उनकी पहल पर हुआ।

अपने छात्र जीवन में सुभाषचंद्र बोस ने बालगंगाधर तिलक,आरविंद घोष,विपिनचंद्र पाल सरीखे राष्ट्रवादी नेताओं की रचनाओं का गहराई से अध्ययन किया।  स्वामी विवेकानन्द  के उच्च, साहसी और राष्ट्रवादी चरित्र से भी वे प्रभावित हुए। उनके जीवन मे यह प्रभाव अंत तक बना रहा।
शारीरिक और मानसिकइच्छाओं पर नियंत्रण पाने के लिए उन्होंने योग का अभ्यास भी किया। एक बार तो उनमें मोक्ष प्राप्ति की इच्छा इतनी तीब्र हुई कि अपने एक साथी के साथ घर छोड़ संन्यासी बनने निकल पडे। इसी क्रम मे हरिद्वार पहुंचे। यहां का उनका अनुभव बड़ा कटु रहा।मठ में उन्हें भोजन इसलिए नहीं परोसा गया कि वे गैर ब्राह्मण थे। कुंएं से पानी लेने से भी मना कर दिया गया।  इससे न केवल उन्हें हिंदू समाज की कमजोरियों का पता लगा बल्कि एसे संघर्षों से उनमें क्रांतिकारी चरित्र का विकास हो रहा था। इन्हीं संघर्षों का परिणाम था कि पीसीएस की डिग्री पैरों क्तले रौंद कर , पद से इस्तीफा देकर सुभाषचंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय आजादी आंदोलन के गैर समझौता वादी धारा के महानायक बनें। उनके नेतृत्व में गैर समझौतावादी रास्ते यदि देश को आजादी मिली होती तो आज भारत की तस्वीर कुछ अलग होती।