कई सवालों का एक जबाब…

कई सवालों का एक जबाब…

संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कांफी अन्नान ने कहा था “खेल एक सार्वभौमिक भाषा है । अपने अच्छे रूप में यह लोगों को एक साथ ला सकता है, चाहे उनकी उत्पत्ति, पृष्ठभूमि, धार्मिक विश्वास या आर्थिक स्थिति कोई भी हो”। भारत में खेल एवं शारीरिक शिक्षा हमेशा अभिभावकों एवं सरकारों  के लिए द्वितीयक विषय रहा है । आज देश के सभी विद्यालयों में समुचित खेल के संसाधन मौजूद नहीं है । नयी बसी नगरीय संस्कृति में कही कही खेल के मैदान की प्रस्तावना दिख जाती है ।  गतिहीनता एवं सुस्त जीवन-चर्या के चलते आज मोटापा, उच्च रक्त दाब इत्यादि कई बीमारियाँ, हमारे जीवन का हिस्सा बनती जा रही है। कई अध्ययन के अनुसार विश्व में उच्च रक्तचाप,मोटापा में शीर्ष पाँच में भारत का स्थान है (1)

ब्रश करना, नहाना और कई भौतिक चीजों से सरोकार रखने वाली चीजें विद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाई गयी है । आज जरूरत क्या इस बात की नहीं है कि हम छात्र जीवन से ही योग , खेल ,व्यायाम इत्यादि को उनके जीवनशैली के रूप में प्रतिदिन दैनिक दिनचर्या (यथा ब्रश करने इत्यादि) के रूप में करने के लिए इसे अनिवार्य पाठ्यक्रम और जीवनशैली का हिस्सा बनाने पर ज़ोर दें ।

आज एक ऐसी ही याचिका माननीय उच्चतम न्यायालय के सामने विचारार्थ है । माननीय न्यायालय ने नोटिस जारी कर केंद्र और राज्यों से पूछा है कि मौलिक अधिकार 21अ के अंतर्गत मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की बात है जिसके अंतर्गत शारीरिक शिक्षा भी है तो इसमें खेल को कैसे शामिल माना जाए ? शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हुए मुझे ये तो स्पष्ट है कि शारीरिक शिक्षा एक बहु-आयामी अभिगम है और खेल एक इसको लागू करने का साधन । सीधे भाषा में कहा जाए तो शारीरिक शिक्षा विषय की प्रयोगशाला खेल का मैदान है ।

एक ऐसी ही संस्था वर्तमान सरकार ने बनाई है अखिल भारतीय खेल परिषद । इस संस्था के 05 ओक्टोबर  2018 के ग्यारहवीं बैठक में शिक्षा और भोजन के अधिकार की तरह ही  खेल के अधिकार को भी  मौलिक अधिकार की सूची में शामिल करने की मांग की गई  है । उनकी मांग है कि इसके लिए विद्यालयों में अलग से बजट हों ।  जब आप सरकारी विद्यालयों को देखेंगे तो अधिकांश  विद्यालयों में शारीरिक शिक्षा के पद खाली मिलेंगे औरप्राथमिक एवं 11रहवीं और बारहवीं कक्षा के लिए शारीरिक शिक्षा विषय के लिए पद ही स्वीकृत नहीं किए गए है । मै देख रहा था कि अभी-अभी राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने 4 वर्षीय बीएड पाठ्यक्रम के संचालन की अनुमति दी है जो कि एक अच्छा कदम है लेकिन उसके लिए जो शारीरिक शिक्षा के शिक्षक का पद अंश-कालिक रखा है । क्या इस महत्वपूर्ण और गंभीर विषय को द्वितीयक महत्ता की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था ।

मेरा मानना है कि चाहे अभियांत्रिकी हो या चिकित्सा या किसी भी स्तर की पढ़ाई अर्थात नर्सरी से लेकर पढ़ाई के अंतिम स्तर तक एक अनिवार्य विषय के रूप में खेल एवं शारीरिक शिक्षा  को  अंगीकृत करने की जरूरत है, ताकि हम सभी को केवल इतना सीखा सकें कि चालीस मिनट की अवधि शरीर को क्रियाशील  रखने मे बिताया जाना चाहिए तभी हम स्वस्थ भारत की संकल्पना को साकार कर सकते है । इसी संबंध में जब राज्यसभा सांसद सचिन तेंदुलकर  ने पहली बार जब सदन में बात रखनी चाही तो उन्हें हंगामे ने बोलने ने न दिया  तब उन्होने विडियो के माध्यम से अपनी बात को पहुंचाना पड़ा ।

भारत अपने जीडीपी का लगभग 1.5 प्रतिशत स्वास्थ्य में और खेल में 0.091 प्रतिशत खर्च करता है(2,3)।शायद मुझसे कई लोग सहमत न हो कि अगर हम खेल पर अपना थोड़ा बजट बढ़ाएँ तो स्वास्थ्य पर के खर्च को बहुत कम कर सकते है । मुझे तब बड़ी हंसी आती है जब कभी अधिकारियों /नेताओं को इंटरनेट पर से पढ़ कर खेल और शारीरिक शिक्षा पर बोलते देखता हूँ लेकिन जब नियमन की बात आती है तो फिर से इन्हीं लोगो का इस द्वितीयक विषय पर ध्यान नहीं जाता ।क्या आवासीय परियोजनाओं की मंजूरी में यह भी एक शर्त नही रखी जा सकती ?याद रखिये खुले मैदान में खेलने की प्रवृति ही कम्प्युटर और मोबाइल गेम को खेलने की प्रवृति को कम करेगी।

बरपा, औरंगाबाद के ज्ञानोदय स्कूल में योग करते बच्चे। फोटो सौजन्य- ढाई आखर

आज सामुदायिक भूमि दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही । खेलने के मैदान ढूँढने से नहीं मिलते । शहरी सभ्यता में कही कही स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स दिखते है । इन जगहों की फीस काफी ज्यादा होती है । इसमे कुलीन वर्ग के बच्चे तो समर्थ हो सकते है लेकिन क्या एक गरीब बच्चे को खेलने का हक नहीं ? तभी यह बात दिमाग मे आती है कि खेलने का अधिकार एक मौलिक अधिकार हो जिससे हर गरीब-अमीर को खेलने के लिए समान अवसर और जगह मिल सके । सत्यमेव जयते ।


प्रभात कुमार, शारीरिक शिक्षा शिक्षक, केन्द्रीय विद्यालय खगौल(पटना संभाग) [email protected]