सुकराती पर्व की सोन्ही यादें और बैलों की घंटी का संगीत 

सुकराती पर्व की सोन्ही यादें और बैलों की घंटी का संगीत 

ब्रह्मानंद ठाकुर

इस दुनिया मे चिरंतन ,शाश्वत और अपरिवर्तनशील कुछ भी नहीं है। वस्तुजगत का कण – कण परिवर्तनशील है। मूल्य, मान्यताएं, आस्था, धर्म, विश्वास, नीति-नैतिकता और परम्परा भी इस परिवर्तन से अछूते नहीं हैं। यही है प्रकृति का वैज्ञानिक नियम। भले ही हम आप इसे नहीं मानें लेकिन हमारे, आपके मानने, न मानने से प्रकृति अपना नियम थोड़े बदलेगी ? अब देखिए न, इसी सुकराती पर्व को !  कृषि के बदलते तौर – तरीके ने सुकराती को किस तरह इतिहास की गोद में सुला दिया ? खेती – किसानी तो बदस्तूर कायम है लेकिन वक्त ने इसका रूप ही बदल दिया। बैल की जगह यंत्रों ने ले ली। बैल जब गायब हुए तो उसकी पूजा का पर्व सुकराती ने भी अपनी पहचान खो दी। अब न तो सुकराती के दिन सोन्हाओन के लिए औषधीय वनस्पति खोजने का झंझट और न बैल के चुमावन की रस्म अदायगी। ले – दे कर दुधारू पशुओं गाय , भैंस , बकरी  के लिए सुकराती के दिन लाल – पीली रस्सी की जुगाड़।  इतनी भर बच  कर रह गई है सुकराती की याद।
सुकराती पर्व का नाम सुनते ही मुझे बीते दिनों की याद आ जाती है। तब दो  चीजें मुझे बड़ा आकर्षित करती थीं , बैल को सोन्हाओन पिलाने के  बाद उसके शरीर पर गुलाबी रंग से गोल-गोल आकृति बनाना और शाम में गांव से थोड़ी दूर डहरा देखने जाना। वैसे हमलोग इस दिन अन्य बहुत सारे काम करते थे। जैसे गोधन को सजाने के लिए फूल -पत्ती जमा करना।  सोन्हाओन बनाने के लिए हलवाहा या किसी बुजुर्ग के साथ बगीचे या जंगल – झाड़ में औषधीय वनस्पति खोजना और सिकिया रंग में मवेशी की नाथ, गरदन और रस्सी को रंगना। तब बड़े- बुजुर्ग विजयादशमी के बाद से ही अपने मवेशियों के लिए पटुआ की रस्सी बनाने में जुट जाते थे।  पटुआ की खेती अंतर्वर्ती फसल के रूप में प्राय : सभी किसान करते थे। तब आज की तरह प्लास्टिक की रस्सी का कहीं नामोनिशान नही था। रस्सी बनाने का काम भी सामूहिक सहयोग से सम्पन्न होता था। ये लोग रस्सी बनाने की कला मे काफी निपुण होते थे। कोई कचरा में ऐंठन देता ,कोई उसे दोगुना ,तिगुना करता ,कोई गांठ देता और इस तरह रास गर्दन और नाथ बनकर तैयार होता था।
गाय  के लिए विशेष तौर पल मुहरी बनाई जाती जो नाथ के काम आती। बछड़े – बछिया के लिए दो हाथ लम्बी रास के आगे – पीछे दो छिटका लगता था । एक छिटका मवेशी के गले में और दूसरा खूंटा में बांधने के लिए। इसे कडाम कहा जाता था। तब हर किसान के दरबाजे पर गाय , भैंस और जोड़ा बैल होता था। कहावत थी , एक बैल से भली कुदारी। साल भर उपयोग के लायक रस्सी इसी अवसर पर तैयार कर ली जाती थी। सुकराती की सुबह उसे गर्म पानी में सिकिया रंग घोल कर रंगने के बाद सुखाया जाता था। लाल टुह- टुह रस्सी देख मन आनन्दित होने लगता ।
इस दिन सुबह होते ही लोग सोन्हाओन की वनस्पति की तलाश में निकल पड़ते। अक्सर यह काम हलवाहा ही करता था।  सोन्हाओन बनाने के लिए  जिन वनस्पतियों को खोजना होता था उनमें 1. चिरचिरी 2. बरियार 3.ककहिया 4.बकाएन 5.रेगनी  6.घोडसार 7. पीपल ( लत्ती वाला ) 8. सोहराई 9.बाकस 10 हापुड 11.टहकार 12.गुम्मा 13.गुरुज 14. मसूरदाना 15. हल्दी प्रमुख था। 90 वर्षीय पलधर पासवान बताते हैं कि इसमें 16 वनस्पति होती है लेकिन लाख सिर खुजलाने पर भी वे 16 वां का नाम नहीं बता पाए।
इन वनस्पतियों को छोटे – छोटे टुकड़े में काट कर ओखल में कूटा जाता और नये घड़े में पानी में फूलने के लिए छोड़ दिया जाता था। इसके बाद दरवाजे पर गोधन बनाने का काम शुरू होता। जिसके पास बैल की संख्या जितनी होती, उसी के अनुपात में लम्बा आयताकार गोधन बनाया जाता था। गोबर से चारों ओर तीन-चार ईंच ऊंचा घेरा बनाकर उसके अंदर ओखल – मूसल, जांता, हल, हेंगा आदि की आकृति बनाई जाती थी और उसे रंग-बिरंगे फूलों से सजाया जाता। कुछ अनाज भी ओखल और जांते में रखे जाते थे।  फिर लुहार आता और वह बांस की कांडी और खूंटा दे जाता। बदले में उसे भी अनाज मिलता था। बैल ,भैंस , गाय को तो दिवाली के दिन ही स्नान कराया जाता और रात में उसके कान में  ‘ बिहान हय सुकराती ‘ कह कर सींग में सरसों तेल लगा देते थे। सुकराती के दिन सुबह के बाद बैल को चारा नहीं दिया जाता था।
सुकराती के दिन अपराह्न में खढ या डाभी की मोटी रस्सी बांट कर गोधन में खूंटा गाड़ा जाता और उसमें खढ या डाभी की मोटी रस्सी  से बैल को बांध दिया जाता। इसके बाद घड़े से सोन्हाओन छान कर बाल्टी में रखा जाता और कांडी से बारी – बारी से बैल को पिलाया जाता। इसके बाद उसे खीर खिलाई जाती। खीर खिलाने के बाद उसका मुंह पानी से धोते और तब तमोली का दिया हुआ पान उसके मुंह में मलते थे। सोन्हाओन की यह पूरी प्रक्रिया जब खत्म होती तो उसे नई रस्सी ,नाथ ,गरदान लगा देते और तब घर की बुजुर्ग महिला बैल के अगले दाहिने पैर को दूब और चावल से चुमावन करती। इसके बाद हमलोग बैल की पीठ , पेट और पैर पर लाल रंग या गेरू के घोल से गोल-गोल आकृति बनाने में जुट जाते। फिर अन्य मवेशियों को नई रस्सी पहनाई जाती। इस तरह सुकराती पर्व का समापन हो जाता था।
आज जो लोग  परिवर्तन के इस नियम को नकार कर समाज में यथास्थिति बनाए रखने की वकालत कर रहे हैं , उन्हें इससे सीख लेने की जरूरत है। एक मात्र मनुष्य ही है जो अपनी चिंतन शक्ति के बल पर प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करते हुए नूतन समाज व्यवस्था का निर्माण करता है। आदिम समाज से गोष्ठीबद्ध समाज , फिर सामंती और उसके बाद पूंजीवादी समाज व्यवस्था का निर्माण मनुष्य के इसी बेहतर जीवन हेतु संघर्ष का परिणाम है। तो फिर पूंजीवाद के बाद समाजवादी समाज के निर्माण की किसी भी कोशिश पर इतनी हाय-तौबा क्यों ? जान लीजिए परिवर्तन भी बिना किसी नियम के नहीं होता। परिणामगत परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन , परस्पर विरोधी ताकतों की एकता और नकार का नकार। मतलब विकास के रास्ते विलोप यदि होता है तो विलोप के रास्ते विकास भी होता है।


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।