शुक्लाजी, कमोड फिट कर  गए… दिल जीत गए

शुक्लाजी, कमोड फिट कर गए… दिल जीत गए

MISHRAJI VIKASH

विकास मिश्रा

ये शुक्ला जी हैं। जिस सोसाइटी में रहता हूं, उसमें ये प्लंबर का काम करते हैं। दाढ़ी, मूंछ, बाल सब सफेद हो चुके हैं। लाइट कलर के कपड़े पहनते हैं, माथे पर चंदन लगाते हैं और बड़ी लगन से अपना काम करते हैं। उम्र 60 पार कर गई, लेकिन जब भी देखो, पूरी तरह प्रसन्न नजर आते हैं। हैं उस पूर्वी उत्तर प्रदेश से, जहां ब्राह्मण परिवारों के नौजवान- ये काम मेरा नहीं है…. अब मेरे ये दिन आ गए, जो मैं ये काम करूंगा..? जैसे फिजूल के सवालों में उलझे हैं, उनके लिए शुक्ला जी मिसाल की तरह हैं।

श्रम का सम्मान

शुक्ला जी गोंडा के रहने वाले हैं। आईटीआई की पढ़ाई की थी। बड़े भाइयों से झगड़ा हुआ, भाग आए दिल्ली। पेचकस, प्लास, छेनी- हथौड़ी चलाना जानते थे। बरसों तक प्रोडक्शन प्लांट में काम किया। मशीनें चलाते रहे। बुढ़ापा पास आया, रिटायर भी हो गए, प्लंबर का काम करने लगे। मेरी सोसाइटी में उन्हें पांच हजार रुपये मिलते हैं महीने के और उसमें वो बेहद खुश हैं। तमाम प्लंबर आए और भाग गए, लेकिन शुक्ला जी टिके हुए हैं। पहली बार मेरे वॉशरूम में समस्या आई तो फोन करने पर शुक्ला जी आए थे। काम देखा, काम किया। मेरे भीतर एक हिचक थी, सोच रहा था कि कोई बहुत बड़ी मजबूरी होगी जो ये ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर प्लंबर का काम कर रहे हैं। लोगों के यूज्ड कमोड तक इधर से उधर लगा रहे हैं। बातों-बातों में शुक्लाजी बोले-साहब यही छेनी हथौड़ी हमारी रोजी-रोटी है। काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता, इंसान को अपनी औकात के हिसाब से काम तलाश करना चाहिए और जो मिले, उसमें खुश रहना चाहिए।

शुक्ला जी ने मुझसे मेरा घर, मेरी पत्नी का मायका पूछा। मेरी पत्नी चूंकि बलरामपुर से पढ़ी-लिखी हैं और बलरामपुर कभी गोंडा जिले में था। खैर, जब चलने लगे तो बोले-मैं आपके पांव छूना चाहता हूं। मैं हतप्रभ। बोले-नहीं मेरा हक है, क्योंकि हमारी बेटी आपके घर ब्याही है। कायदन तो मुझे आपके घर का पानी भी नहीं पीना चाहिए। शुक्ला जी कई बार फ्लैट में आए, जब भी कोई काम होता है, बड़े मनोयोग से करते हैं।

पहले के प्लंबर तो सोसाइटी से तनख्वाह पाने के बावजूद कुछ न कुछ पैसे लेकर जाते थे, लेकिन शुक्ला जी किसी से पैसा नहीं मांगते। अभी मेरे वाशरूम में फ्लोर टूटकर नया लगा है, शुक्ला जी कमोड फिट कर गए, बाथरूम का दुख-दर्द हर गए। परसों ही बताया कि उन्होंने दोनों बेटों को पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा कर दिया है। एक किसी सीए के यहां कंप्यूटर चलाता है, दूसरा डीजे बजाता है, जो शुक्लाजी को पसंद नहीं है। खैर, दोनों बेटों की शादी कर दी, साथ ही खुद से अलग भी कर दिया। बोले-अपनी गृहस्थी जमाओ, कुछ जरूरत पड़ी तो मैं हूं ही। कमाई ज्यादा होने लगे तो गांव वाले घर की मरम्मत करवाने में मदद करो।

अभी खबर आई है, वायरल भी हुई है कि उत्तर प्रदेश के कानपुर में सफाई कर्मचारी (स्वीपर) के 3 हजार 275 पदों के लिए हजारों सवर्णों ने अप्लीकेशन डाला है और 5 लाख लोग तो ऐसे हैं, जो ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट हैं। अगर ऐसा है तो बुरा क्या है। मैंने लाखों, करोड़ों की कमाई करने वालों को भयानक तौर पर अपनी नौकरी, अपने कामकाज से असंतुष्ट देखा है। शुक्ला जी की दास्तान मैंने जान बूझकर रखी है, पसीने से भीगे चेहरे पर अपना काम करने के वक्त जो खुशी उनके चेहरे पर रहती है, वो अनमोल है। उनसे सीख मिलती है कि कोई काम छोटा नहीं होता। आदमी छोटा या बड़ा होता है।


विकास मिश्रा। आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ संपादकीय पद पर कार्यरत। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के पूर्व छात्र। गोरखपुर के निवासी। फिलहाल, दिल्ली में बस गए हैं। अपने मन की बात को लेखनी के जरिए पाठकों तक पहुंचाने का हुनर बखूबी जानते हैं।