शहरों की भूल-भुलैया और गांवों का बिगड़ता ताना-बाना

शहरों की भूल-भुलैया और गांवों का बिगड़ता ताना-बाना

शिरीश खरे

शहर का नाम आते ही हमारे सामने गांव की जो भी छवि बने लेकिन इतना तय है कि यह छवि शहर की तुलना में छोटी ही होती है। और इसका मुख्य कारण है आबादी का आकार और घनत्व। भारत में कुल करीब साढ़े छह लाख गांव हैं जहां आज देश की सतर प्रतिशत आबादी रहती है। लेकिन आज से 117 बरस पीछे जाएं तो वर्ष 1901 में देश की 89 प्रतिशत से अधिक आबादी गांव में थी। जबकि आजादी के 14 साल बाद 1961 में यह प्रतिशत घटकर 82 हो गया। यह घटना लगातार जारी है और आगे भी यही रुझान रहने वाला है। जाहिर है कि कोई सौ—सवा सौ साल में शहर रोजी—रोटी और महत्त्वाकांक्षाओं के मुख्य केंद्र बनते गए।

गांव विचार पार्ट—1

भारत में आधे से अधिक गांव हैं जिनकी आबादी दो हजार से कम हैं। दूसरे शब्दों में ऐसा लगता है कि जो आबादी के साथ अपने भूगोल का दायरा नहीं बढ़ा सके वे गांव रह गए। विकास के इस क्रम में गांव शहर के विलोम हैं और इसे गांव से शहरों की ओर पलायन के तौर पर भी देखा जा सकता है। स्थानांतरण की यह प्रक्रिया शहरीकरण है और इस दौरान बड़े पैमाने पर जो परिवर्तन दिखते हैं उन्हें इस प्रक्रिया यानी शहरीकरण के तौर पर देखा जाता है। हालांकि, पंजाब सहित बाकी राज्यों में ऐसे उदाहरण भी हैं जब शहरी लोग गांव की तरफ गए और वहां रहकर व्यावसायिक खेती करने लगे। हालिया दौर में इसकी दर ठीक-ठीक तो पता नहीं लेकिन प्रवृत्ति बताती है कि शहरीकरण के अनुपात में यह न के बराबर है। इसके साथ यह बात भी महत्तवपूर्ण है कि ये लोग अपने साथ शहरी सभ्यता को भी लादकर जाते हैं। ग्रामीण आबादी के दृष्टिकोण से ये दोनों रुझान अंतत: ग्रामीण समाज को प्रभावित करते हैं और ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न महत्तवपूर्ण हो जाता है कि आबादी अपने भूगोल के विस्तार के साथ गांव से कस्बों और कस्बों से जब शहर बनती है तो वह सामाजिक-आर्थिक सहित अन्य मोर्चों पर किस तरह प्रभावित होती है।

मैंने पंजाब नहीं देखा लेकिन कई लोग पंजाब के गांवों को ‘समृद्ध’ मानते हैं। इसके पीछे एक कारण यह बताते हैं कि बहुत सारे युवा विदेशों में बसे हैं जो नियमित तौर पर अपने परिजनों को धन भेजते हैं। दूसरा पहलू यह है कि इस स्थिति में कुछ लेखक पत्रकारों ने ‘बूढ़े गांव’ की तरह देखा-समझा है। पहले ये बूढ़े भी विदेशों में थे जो पैसा कमाकर बचा जीवन गांव में गुजार रहे हैं। दूसरी तरफ, आबादी को ध्यान में रखते हुए शहरीकरण, असंतुलित विकास और ग्रामीण अंचलों की उपेक्षा की तह में जाएं तो भारत के गांवों में भारी विविधता देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा में कई अभावग्रस्त गांव हैं जहां से बड़ी संख्या में महिला तस्करी के प्रकरण सामने आए हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा में सूखे के स्वरूप और खेती के संकट के कारण साल के कई महीने ग्रामीण आबादी विलुप्त हो जाती है। इसी तरह उदाहरण के लिए,  देश की राजधानी दिल्ली में वजीरपुर और पड़पड़गंज जैसे गांव दिल्ली बन गए हैं और बड़े शहर में शामिल होकर यह अपनी स्वतंत्र पहचान खो चुके हैं। स्पष्ट है कि गांव भौतिक और सामाजिक रुप से लगातार शहर हो रहे हैं और शहरों का जन्म और विस्तार गांव से ही हो रहा है।


shirish khareशिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।