गांव की आर्थिक-सामाजिक बुनावट में कितना बदलाव

गांव की आर्थिक-सामाजिक बुनावट में कितना बदलाव

शिरीष खरे
गांव क्या है? अवधारणाओं में जब भी इसे ढूंढ़ने-समझने की कोशिश की तो इससे जुड़ी व्याख्याओं में मुख्य तौर पर तीन बाते सामने आईं। छोटी आबादी, भौतिक ढांचा और उत्पादन का जरिया। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आमतौर पर एक गांव की आबादी पांच हजार से कम होती है। इसी तरह, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ग्रामीणों का जीवन मुख्य तौर पर खेतीबाड़ी पर टिका है। इसलिए, हरे-भरे खेत और मिट्टी या घासफूस के घर इसकी भौतिक पहचान है, लेकिन भारतीय गांव के परिपेक्ष्य में यह कहा गया है कि जाति इसका मूलभूत घटक है और जाति-व्यवस्था को अलग रखते हुए भारतीय गांव को समझना छलावा है। दूसरी तरफ, दूसरे देशों जैसे चीन आदि में जाति जैसी कोई पहचान नहीं होती। इससे यह समझ में आता है कि हर समाज की अपनी प्रकृति होती है जो दूसरे समाज से भिन्न होती है। जैसे कि भारतीय गांव की प्रकृति में जाति एक मुख्य सामाजिक संस्था है।
story by iti madhviभारतीय गांव के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह सामने आती है कि यहां कई गैर-हिन्दू समुदाय के लोग भी हैं जिन्होंने जाति-व्यवस्था को स्वीकारा नहीं था, लेकिन बाद में उन्हें भी जातियां मान लिया गया। इस बात पर आने से पहले कुछ बातों को दोहराना जरुरी है कि स्थानीय भाषा में जिसे जाति आदि कहते हैं, दरअसल ऐसे लोगों का गठबंधन है जो विवाह और नातेदारी जैसी परंपराओं से एक-दूसरे से बंधे होते हैं और जाति का व्यवसाय इनकी व्यक्तिगत पहचान बन चुका है। अधिकतर भागों में यह जातिगत व्यवसाय आज तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी है और एक राजनीतिक व्यवस्था इसे चलाए रखने के मुद्दे पर आज भी दबाव बना रही है। अब इसी से जुड़ी दूसरी महत्तवपूर्ण बात यह है कि आमतौर पर जाति के सदस्य अपनी जाति के भीतर ही विवाह करते हैं लेकिन इन्हें गांव के बाहर भी विवाह करने की अनुमति है।

भारत में गांव बहिर्जातीय कारक है, जबकि इसके भीतर की व्यवस्था सजातीय है जहां जातियों का समूह है जो सामान्यत: बस्ती बनाकर रहता है और अपना परंपरागत व्यवसाय करते है। ये अपनी विशेष जीवन-शैली, पहनावे, घरों की विशेष बनावट और पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ रहता है। इनकी अपनी पंचायत होती है जो आमतौर पर जाति की पहचान धूमिल और उस पर मंडराने वाले खतरों के मुद्दे पर सक्रिय होती है। इस तरह, पूरी जाति वैवाहिक संबंधों और राजनीतिक कारणों से एकजुट रहती है। विद्वान इस तरह की एकजुटता को ‘समस्तीय एकता’ कहते हैं। कहने-सुनने में आता है कि एक गांव में 36 जातियां होती हैं। कई बार एक गांव में सभी जातियां नहीं होतीं और कई बार एक गांव में 36 से अधिक जातियां हो सकती हैं। भले ही 36 जातियों में संख्या को शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाता हो लेकिन यहां इससे जुड़ी एक बात यह है कि जनजातियों और अन्य जातियों ने जब एक-दूसरे की बसाहटों में बसना शुरू कर दिया तो जनजातियां निरंतर जातियों का रूप धारण करती चली गईं और इसीलिए बाद में उन्हें भी जातियां मान लिया गया।


shirish khareशिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।