मैया नहीं मालगाड़ी बन गई है नर्मदा

मैया नहीं मालगाड़ी बन गई है नर्मदा

शिरीष खरे

जब पहली यात्रा समाप्त होने की कगार पर होती है तो मेरे भीतर दूसरी यात्रा तेजी से आगे बढ़ रही होती है। यह होती है विचारों की यात्रा। विचारों की यात्रा दृष्टिकोण तय करती है। दृष्टिकोण ही तो यात्रा के दौरान विनाश को विकास और विकास को विनाश के तौर पर रेखांकित करता है। एक दृष्टि ही तो है जो नर्मदा की यात्राओं के दौरान या उसके उपरांत अमृतलाल वेगड़ के वृत्तांत में नदी का सौंदर्य तलाशती है। वहीं, रजनीकांत यादव के वृतांत में टूटती, डूबती और समाप्त होती दुनिया की सच्चाई बयां करती है।

मेरी यात्रा के जनरल डब्बे में खिड़की के बाहर नर्मदा किनारे के अलग-अलग तबके अपने हाथों में अपने-अपने चेहरे लिए दौड़ रहे हैं। मैं देखता हूं कि मैं इन सबसे मिलकर आ रहा हूं, ये विकास नाम की अलग-अलग समस्याओं से जूझ रहे चेहरे हैं। मेरी दृष्टि में विकास के गिद्ध इन्हें नोच-नोच खा रहे हैं। मेरे भीतर के यात्री ने भीड़ में अपना सामान कसकर पकड़ लिया है। मेरा डर है कि नर्मदा के गांव, कस्बे, खेत, खलिहान, सड़कें, स्कूल, घाट, हाट, मेले, तालाब, छोटी नदियां, पेड़, पहाड़, झरने आदि इत्यादि सब अपने-अपने हाथ न छोड़ दें!

अमृत लाल वेगड़

अमृतलाल वेगड़ की दृष्टि में नर्मदा पर आए संकट के पीछे आबादी का बोझ है। जबलपुर में उन्होंने मुझे बताया था कि आबादी विस्फोट के कारण जंगल कट रहे हैं, जबकि खेत, घर और कारखाने फैलते जा रहे हैं। ये सारे कारक मिलकर एक नदी पर इतना दबाव बना रहे हैं कि उसकी सांसे फूल रही हैं। वहीं, दूसरा तबका नर्मदा के संकट को सरकार की मौजूदा नीतियों से जोड़कर देख रहा है। यह मानता है कि नीतियां बनाने वालों का नजरिया शहरी है। साहित्यकार ज्ञानरंजन के शब्दों में, ”यह तात्कालिक दुनिया में पापुलर कल्चर की सेंध है।” इसलिए, सरकार कोई भी आए अंततः पकड़ेगी उसी नजरिए वाली नीति को जो विशुद्ध तकनीकी है, और नर्मदा को महज एक संसाधन तक सीमित रखती है।

इन अलग-अलग दृष्टियों के बीच नर्मदा को देखकर रोया, हंसा या गाया नहीं जा सकता। क्यों? क्योंकि अब वह इमोशन मर चुका है। सबको पता चल चुका है कि इसे काबू में कैसे रखा जा सकता है। तकनीक के आने से जब नजरिया ही ऐसा हो रहा है तो यह मैया कैसे रही, यह तो मालगाड़ी बन गई। इधर सरकार की नीति है कि आइए हम आपको परोसने को तैयार हैं, और ये लीजिए नर्मदा, ये लीजिए उसके जंगल, पहाड़ियां और उधर कंपनियों के पास सारी खोदा-खादी, काटने, छांटने के लिए मशीनें तैनात हैं।

वे आएंगे और देखते ही देखते एक नदी को मैदान बना जाएंगे…