मेलघाट में भूख से मरते बच्चे और 90 के दशक का सन्नाटा

मेलघाट में भूख से मरते बच्चे और 90 के दशक का सन्नाटा

शिरीष खरे

मेलघाट में शिरीष, साल 2008

शिरीष खरे की बतौर पत्रकार यात्रा की ये तीसरी किस्त है। मेलघाट से लौटते हुए ट्रेन में उनकी विचार यात्रा का सिलसिला फिर से शुरू करते हैं। उनकी मेलघाट यात्रा की निरंतरता को बरकरार रखते हुए बात आगे।

एक लाल मढ़िया के पास 50-60 महिलाएं इकट्ठी हैं, लेकिन दूर से ही हमारा सबसे ज्यादा ध्यान यदि किसी ने खींचा है तो मढ़िया से सटे एक वृक्ष की लंबाई और हरियाली ने। पीछे कतारबद्ध झोपड़ियां और उनके पीछे हरी-भरी पहाड़ी और बीच में शांत, खुले मैदान और पगडंडियों का पूरा नजारा देख लगता है कि छोटी-सी दुनिया जैसे उस वृक्ष के नीचे आकर सिमट गई हो। पास आने पर महिलाओं के गीत के सुर और ज्यादा स्पष्ट होते जाते हैं। यहां एक भी मर्द नजर नहीं आता, थोड़ी दूरी पर 12 से 15 साल तक के कुछ बच्चे बड़े पत्तलों में जरूर दाल-भात खा रहे हैं।

आईने में अपना अक्स-तीन

”अलग-अलग तीज (मौके) पर अलग-अलग गीत गाए जाते हैं। शिकार, जुदाई, पूजन के गीत अलग और विवाह के अलग। विवाह के गीतों में महिलाएं दूल्हा-दुल्हन बनकर आपस में बतियाती और नाचती-गाती हैं। लेकिन, अभी हम जो गीत गा रहे हैं, यह विवाह के बाद का है। यह ‘सिरिंज’ है।” मंगल-गीतों को यहां ‘सिरिंज’ कहा जाता है। ये सारी बातें हमें मानु डांडेकर नाम की बुर्जुग महिला बता रही हैं। हमारे करीब एक विवाहित जोड़ा खड़ा है और लड़के वाले की ओर से कोरकू महिलाएं मंगल-गीत गा रही हैं। ये सभी दूल्हा-दुल्हन को खुश रहने के लिए आर्शीवाद दे रही हैं। हम भी उन्हें भविष्य में सदा खुश रहने की शुभकामनाएं देकर जीप में बैठ आगे की ओर बढ़ते हैं।
आगे मतलब महाराष्ट्र में विदर्भ अंचल के हिल-स्टेशन चिखलदरा की ओर, जो अमरावती जिले का एक विकासखंड है और ‘एमटीआर’ यानी मेलघाट टाइगर रिजर्व का बहुत सुंदर कस्बा है, जहां मेरे लिए एक होटल में अगली तीन रात ठहरने का बंदोबस्त किया गया है। मोठा गांव पार करने के बाद चिखलदरा महज चार-पांच किलोमीटर दूर है, अब तक लगातार 13 घंटे से ज्यादा की यात्रा कर चुका हूं। पहले 11 घंटे मुंबई से बडनेरा तक की रेल-यात्रा की और उसके फौरन बाद सड़क मार्ग पर एक जीप के सहारे सवा दो घंटे में कोई नब्बे किलोमीटर की पहाड़ियां पार कर चुका हूं। और बीते दो घंटे की ताजा यात्रा ने लंबी, थकाऊ और उबाऊ रेल-यात्रा को पीछे छोड़ दिया है। इसकी एक वजह तो यह है कि सुबह छह बजे बडनेरा से चिखलदरा की ओर हर तरफ नजारा देखा देखा-सा लग रहा है।
ऐसा इसलिए कि मेलघाट सतपुड़ा पर्वतमाला का दक्षिण-पश्चिम सिरा है, यह उत्तर-पूर्व की ओर मध्य-प्रदेश की सीमा से सटा है, इसके दूसरे छोर पर है मध्य-प्रदेश में पचमढ़ी हिल-स्टेशन, वहां सिर्फ घूमने के मकसद से दो-तीन बार जा चुका हूं। हालांकि, मेलघाट की यह मेरी पहली यात्रा है और इस यात्रा के पहले सहयात्री हैं-संजय इंग्ले। इन्होंने कोई 15 साल पहले इस इलाके में कुपोषण से लड़ने के लिए ‘प्रेम’ नाम से युवकों का एक दल बनाया और तब से ही भूख के खिलाफ मुहिम में सक्रिय हैं। मैं देख रहा हूं कि यह एक कुशल जीप चालक भी हैं, जिन्हें देखकर ही लग रहा है कि ये खाईयों और पहाड़ियों के बीच संकरी, घुमावदार सड़क पर संतुलन साधते हुए जीप दौड़ाने के अभ्यस्त हैं। इधर, बीच-बीच में देर तक आकाश की ओर देखता हूं तो यह ज्यादा ही खुला दिखाई दे रहा है, जिसे देख मुझे ध्यान आता है कि मुंबई में छह महीने रहते हुए मैंने देखने के मकसद से न सुबह में सूरज देखा और न रात में चांद। मुझे याद नहीं आया कि मैंने वहां खुले आसमान को देखने के मकसद से आकाश की ओर कब देखा था।
सवा घंटे में कोई 50 किलोमीटर की यात्रा करके हम परतवाड़ा नामक एक छोटे कस्बे में पहुंचते हैं। इस रास्ते पर यह चाय, स्वल्पाहार के लिए ठीक ठिकाना है। साथ ही मैंने मेलघाट की गुलाबी सर्दी से बचने के लिए यहीं की एक दुकान से स्वेटर भी खरीदी है। नवंबर के दूसरे हफ्ते में यहां तापमान 15 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है।
”यहां से बस 40 किलोमीटर दूर है चिखलदरा। विदर्भ की सबसे ऊंची चोटी की ओर ले जा रहा हूं आपको!” जीप पर फिर सवार होने से पहले यह सूचना संजय इंग्ले ने दी है। लेकिन, सच्चाई तो यह है कि मेलघाट में छोटे बच्चों की मौत के आंकड़े यहां की पहाड़ियों से कहीं ऊंचे होते जा रहे हैं।
1991 से अब तक यहां 10 हजार 762 बच्चों की मौत हो चुकी है, यह महाराष्ट्र सरकार का आंकड़ा है। सरकार यह मानने को राजी नहीं किे ये सभी मौतें भूख से हुई हैं। मेरे पास साल-दर-साल सरकारी आंकड़ों का हिसाब है। मेलघाट में हर साल छह साल तक के औसतन 600 से ज्यादा बच्चों की मौत हो रही है। मेलघाट का क्षेत्रफल 2,028 वर्ग किलोमीटर है, जो मुंबई के क्षेत्रफल यानी 604 वर्ग किलोमीटर से तीन गुना अधिक है, लेकिन मेलघाट की कुल तीन लाख आबादी के अनुपात में यहां हर साल कम उम्र के इतने सारे बच्चों की असमय मौतें ‘राष्ट्रीय शर्म’ की बात होनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं।
 1991 में पहली बार यहां भूख से बच्चों के मरने की सूचनाएं सामने आई थीं। मैंने यहां आने से पहले कुछ जानकारियां जुटाईं तो पता चला कि 1991 में प्रतिभा पाटिल अमरावती लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद पहुंची थीं। एनसीपी के कद्दावर नेता शरद पवार तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। समय के इस अंतराल में विदर्भ को देशभर में किसानों की आत्महत्या वाले इलाके के तौर पर जाना जाने लगा। दूसरी तरफ, मेलघाट इलाके की इन पहाड़ियों को लेकर न जाने क्यों भूख से बच्चों की मौतों पर खमोशी पसरी रही।
और एक लंबी खमोशी के साथ हम प्रवेश करते हैं चिखलदरा कस्बाई क्षेत्र में, जो आज के दौर की सभी बुनियादी सुख-सुविधाओं के लिहाज से बाकी कस्बों जैसा ही है, लेकिन शांत, व्यवस्थित अनुशासित और हरियाली की चादर ओढ़े देश के सामान्य कस्बों से अलग, क्योंकि करीब साढ़े चार हजार की आबादी वाले इस कस्बे के आस-पास पहाड़ियों पर सूरज के उदय और अस्त होने की दर्जन भर सुंदर जगहों के अलावा यहां कई झील और झरने हैं, जिन्हें देखने देश और दुनिया से लोग चिखलदरा के होटलों में ठहरते हैं।
ऐसे ही एक होटल के कमरे में मैं ठहरा हूं। सोचता हूं कि बीते छह साल से अनगिनत रेल के डिब्बों और होटल के कमरों में पनाह ली, जहां सैकड़ों रिपोर्ट तैयार कीं और साथ ही खुद के बारे में सोचा और फिर वहीं के वहीं उन्हें भूलता और जगह बदलता गया। सोचता हूं कि चिखलदरा का यह कमरा बाकी होटल के कमरों से थोड़ा बड़ा है, लेकिन इतने बड़े कमरे की जरुरत क्या थी! फिर मैं अपनी निम्न-मध्यमवर्गीय उस आदत के बारे में सोचता हूं तो खुद पर हंसता हूं, जो अक्सर मुझसे पूछती रहती है कि यदि आॅफिस में एक छोटी जगह पर लिखा-पढ़ी का काम चल सकता था तो इतनी ज्यादा जगह घेरने की जरुरत क्या थी? या रेल के स्लीपर में सीट मिल सकती थी तो सेकंड क्लास एसी से चलने की जरुरत क्या थी? या जब सिंगल बेड पर ही अकेला सोया जा सकता था तो इस वक्त इस डबल बेड की जरुरत क्या थी!
यही सब सोचते हुए जब मैं टीवी के चैनल बदल रहा होता हूं तो डीडी न्यूज पर ठहरकर सुखद आश्चर्य से लगभग उछल पड़ता हूं, कोई खबर के मारे नहीं, बल्कि खबरों का बताने वाली एंकर को देखकर, यह नीतू सिंह है। कई साल से मैंने न न्यूज चैनल देखा है और न नीतू सिंह को। और आज देख रहा हूं तो मेलघाट के इस कमरे में टीवी पर। नीतू सिंह और चित्रा अग्रवाल दोनों भोपाल से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में दिल्ली पहुंची थीं। उन्हीं दिनों आगरा शहर की ये दोनों लड़कियां आखिरी बार नोएडा स्थित ‘सहारा समय’ कार्यालय के मुख्य गेट पर मिली थीं। फिलहाल दोनों ही डीडी न्यूज में हैं और मैं ग्राम मदनपुर का लड़का वाया मुंबई मेलघाट के इन जंगलों में कहानियां तलाशने आया हूं। मेरे पास नीतू सिंह का मोबाइल नंबर होता तो पक्का बात करता, लेकिन वर्ष 2002 में मोबाइल साधारण लोगों के हाथों में नहीं होता था और तब से याद नहीं आ रहा है कि ऐसे ही दिल्ली जाने वाले कितने सारे दोस्तों से आखिरी बार कब-कब बातें हुईं!
खैर, आज आधा दिन शेष है, चाहूं तो 25-30 किलोमीटर का इलाका घूम सकता हूं, लेकिन नहीं। बतौर रिपोर्टर मुझे लगता है कि रिपोर्टिंग के लिए जाने से पहले जितना हो सके उतना सोया जाए, जिससे लंबी यात्रा की थकान कम हो जाए और अगले दिन एक बार में ही 150 किलोमीटर से अधिक घूमा जा सके। लिहाजा, नहाने, दोपहर के भोजन और रिर्पोटिंग की पूर्व तैयारी के बाद बाकी दिन और पूरी रात सोने की तैयारी है, इस उम्मीद से कि अगली सुबह मेरी जिन्दगी की एक नई सुबह होगी।
(ये सीरीज जारी है)


shirish khareशिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।