पत्रकार के लिए हत्या की धमकी ही सबसे बड़ी चुनौती नहीं होती

पत्रकार के लिए हत्या की धमकी ही सबसे बड़ी चुनौती नहीं होती

शिरीष खरे

शिरीष खरे, मेलघाट की एक तस्वीर (2008)

ट्रेन की सामान्य गति से मुंबई की ओर लौटते हुए मेलघाट में जो घटा उसके बारे में सोच रहा हूं। जलगांव रेलवे स्टेशन पार करने के बाद सोचने लगा हूं कि आगे किस तरह की रिपोर्टिंग करुं या पत्रकारिता का मोह ही छोड़ दूं। फिर जाने क्या हुआ है कि बीच सफर से मेलघाट के जंगलों की यात्रा पर लौटता हूं।  

एक मां के मुंह से सपाट लहजे में उसके मासूम बच्चे की मौत की खबर सुन मैं भीतर तक हिल गया। खुद अपने एक सवाल पर शर्मिन्दा हूं, जिसे दोहरा नहीं सकता। वह बार-बार पानी के लिए पूछ रही है और मैं हूं कि खुद ‘पानी-पानी’ हूं।
”अब लौटा जाए-” कालूराम नहीं बोलता तो मुझे अहसास ही नहीं होता कि मैं यहां कितने देर से बैठा हूं। फिर हम दोनों उठे उस जगह और स्थिति से जिसका सामना करने के लिए दोनों तैयार नहीं थे। कालूराम मुझे अपनी मोटरसाइकिल से इस वीरान जंगल के गांव-गांव, घाट-घाट और घर-घर घुमा रहा था और मैं उसके पीछे बैठकर सुबह साढ़े छह बजे से अब तक डेढ़ सौ किलोमीटर से कहीं ज्यादा इलाका घूम चुका था। हम दोनों कुपोषण की कहानियां तलाश रहे थे, इस दौरान हमें बताया गया था कि कई दिनों से एक बच्चा बहुत बीमार है, भूख से सूख चुका है। बावजूद इसके, मुझे ऐसी किसी परिस्थिति का अंदाजा इसलिए नहीं था कि इससे पहले मैं कई कमजोर मांओं और बच्चों को देखने के दर्द को झेल चुका था, लेकिन ताजा दृश्य मेरे दर्द की इंतिहा थी, मैंने भूख को इससे पहले इतने करीब से कभी नहीं देखा था। महाराष्ट्र सरकार के पर्यटन विभाग ने बाघ का फोटो दिखाकर जिन हरी-भरी, सुंदर पहाड़ियों को राज्य के सबसे सुंदर स्थलों में से एक बताया था, अंदाजा नहीं था कि यहां की माताएं इस हद तक भूखी होंगी कि भूख से बिलबिलाकर दम तोड़ने वाले अपने नवजातों को बस देखती रह जाएंगी! मैं सोच भी नहीं सकता कि एक मां इस तरह सपाट लहजे में बच्चे की मौत की खबर सुना सकती है, मेरे लिए सबसे हैरान और परेशान करने वाली बात यही थी।

आईने में अपना अक्स-दो

यह है 13 नवंबर, 2008 की शाम से कुछ पहले का समय। मेलघाट में यह मेरा चौथा और आखिरी दिन है। यदि मेलघाट की चिखलदरा को केंद्र माने तो तीन सहयात्रियों के साथ एक जीप और दो अलग-अलग मोटरसाइकिलों से चार दिशाओं की ओर मैं अबतक छह सौ किलोमीटर का इलाका घूम चुका हूं। यानी हर दिन एक अलग दिशा में औसतन डेढ़ सौ किलोमीटर। इस तरह, कुल तेरह गांवों के विवरण जमा कर चुका हूं। चिखलदरा से सवा सौ किलोमीटर दूर यह मेरी मेलघाट यात्रा के आखिरी गांव का आखिरी घर है, लेकिन मैंने तय किया है कि इस घर का नाम मैं छिपा लूंगा और उस महिला का नाम और उम्र भी छिपा लूंगा, जिससे मिलकर मैं अभी-अभी लौट रहा हूं। अब मैं शायद ही उसके घर लौटूं, पीछे मुड़कर देखता हूं तो उसका घर कोरकू जनजाति के बाकी घरों जैसा ही है, लेकिन उनसे इतना छोटा है कि उस घर में तीन से चार लोग भी पैर पसारकर न बैठ पाएं। घर के नाम पर माटी, घास और कमजोर लकड़ियों की चारदीवारी के बूते खड़ी पतरी की छत तो है, लेकिन उसके अंदर कितना खालीपन! कालूराम नहीं बताता तो मुझे पता ही नहीं चलता कि असल में इससे पहले उस महिला के और दो बच्चों ने भूख से बिलबिलाकर इसी तरह दम तोड़ा है।
-”मैं  हूं देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से उत्तर पश्चिम की तरफ 700 किलोमीटर दूर, ”पर मैं हूं कौन-सी दुनिया में भाई!”
-”मेलघाट, बच्चों की मौत का घाट।” मेरे सवाल पर उत्तर है कालूराम का, जो मूलत: उसका उत्तर भी नहीं है, बीते अठारह साल में भूख से बच्चों की हजारों मौतों के बाद यह यहां एक साधारण उत्तर है।
कालूराम बेलसरे, जो चिखलदरा में पहली बार मिला तो महज एक सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से और आज मेलघाट यात्रा के इस आखिरी छोरे पर अनायास ही दोस्त बन गया। वह मेरी मेलघाट यात्रा का तीसरा सहयात्री है।
”तुम आज इस हकीकत से सामना नहीं कराते तो भी मैं शायद पत्रकार ही रहता, जो इस गुमान में ही जी रहा होता कि किसी पत्रकार के लिए हत्या की धमकी ही सबसे बड़ी चुनौती हो सकती है।…मैं कभी यह जान ही नहीं पाता कि इस तरह के दर्द को झेलने का जज्बा कायम रखना, एक पत्रकार के लिए उससे भी बड़ी चुनौती हो सकती है।” मुंबई लौटने से पहले मैंने कुछ इसी तरह की बातें कालूराम से कहीं। लेकिन, वह कुछ नहीं बोला।
मोटरसाइकिल पर पीछे बैठा मैं उसे नहीं देख सकता और यह बात ध्यान से हट गई कि किस तरह वह कच्ची पगडंडियों से पक्की लेकिन कमजोर और उबड़-खाबड़ ढलान की एक सुनसान सड़क पर आकर सावधानी से मोटरसाइकिल चला रहा है। फिर भी मैंने उससे यह तो कहा ही,”भला हुआ जो तुमने मुझे वहां से लौटने के लिए कहा।”
और ट्रेन की सामान्य गति से मैं मुंबई लौट रहा हूं। नागपुर से सीएसटी (छत्रपति शिवाजी टर्मिनल), मुंबई की ओर जाने वाली 12106 विदर्भ एक्सप्रेस से। सोच रहा हूं कि छोटी जगहों पर रहकर काम करने वाले पत्रकार कितने मजबूत दिल के होते होंगे, जो इस तरह की बुरी से बुरी स्थितियों के बावजूद हर समय रिपोर्ट लिखने और भेजने को तत्पर रहते हैं। सच, दर्दों को लगातार झेलकर लिखना आसान काम नहीं है और ऐसी जगहों के कई पत्रकार इस जिम्मेदारी को अपनी-अपनी भाषाओं में बखूबी निभा रहे हैं। लेकिन, जो मुझे जानते हैं उन्हें यह पता है कि जख्मों को खुला रखना और नए जख्मों को जगह देकर लिखना, मूलत: मेरा स्वभाव नहीं है।

आधी रात जलगांव रेलवे स्टेशन पार करते सोच रहा हूं कि आगे किस तरह की रिपोर्टिंग करुं, या फिर पत्रकारिता का मोह ही छोड़ दूं! बडनेरा से रात 8 बजे इस सेकंड क्लास एसी कोच की अपर सीट पर लेटा हूं, कुल 11 घंटे के सफर का हिसाब लगाते हुए यही सोच रहा हूं कि गाड़ी समय पर दौड़ती रही तो सुबह 7 बजे तक पक्के तौर पर मुंबई की दुनिया में लौट जाऊंगा। लेकिन, मेलघाट में बिताए उन चार दिनों की घटनाओं, घाटियों, लोगों और दृश्यों से कभी लौट पाऊंगा, जो लौट-लौटकर याद आ रहे हैं! साढ़े तीन घंटे में कंबल को सिर से ढके मैं मेरी तरह ही मुंबई लौट रहे बाकी लोगों की आवाजों और चेहरों से कट गया हूं। ‘ ‘गाड़ी 20 मिनट लेट ” होने की सूचना देने वाली बुजुर्गिया आवाज को छोड़ दें तो मैं बीते कुछ घंटों से अपने खयालों में ऐसा तल्लीन हूं कि ट्रेन की खटर, खटर, खटर, खटर, खटर की आवाज के सामानांतर ढोल, मोटरसाइकिल, आटा-चक्की की अलग-अलग आवाजों के साथ कुछ अस्थिर चेहरे दिखाई दे रहे हैं। और जल्द ही एक लयबद्ध गीत की आवाज ने बाकी आवाजों को शांत कर दिया है, यह गीत नहीं मंगल-गीत है, जिसकी धुन के पीछे से मुझे अब खतरे की गूंज सुनाई दे रही है, जो तब नहीं सुनाई दे रही थी जब पहली बार सुना था।


shirish khareशिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।


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2 thoughts on “पत्रकार के लिए हत्या की धमकी ही सबसे बड़ी चुनौती नहीं होती

  1. This is the first report of this series on Badlaav that I hv read.. it’s like everything is happening in front of my eyes. Not many people have the courage to do what u r doing. Thanks for bringing the horrific truth of our shining India, out in open. I m so proud of you.

  2. मैं शिरीष को इस रूप में कभी ना जानता था, या यूं कह लें अंजान था शिरीष की लेखनी से, अनुभवों से। मैं तो शिरीष में अपने थियेटर के दिनों के साथी को ही देख पाता था जिसकी अभिनय क्षमता का मैं कायल था। सही मायने में पहली बार शिरीष का लिखा कुछ पढा। अंक समाप्त हुआ तो लगा कि बाकी के अंक भी अभी मिल जाए। बधाई शिरीष और बधाई टीम बदलाव।

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