सरकार ! उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया…

सरकार ! उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया…

जरा याद उन्हें भी कर लो । शहीद अमीर सिंह

ब्रह्मानंद ठाकुर

सारा देश 68वां गणतंत्र बड़े उत्साह से मना रहा है । 26 जनवरी 1950 को आजाद भारत का अपना संविधान लागू हुआ था । समता ,स्वतंत्रता और बंधुता के आदर्शों को स्थापित करने वाला संविधान । भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्ति के लंबे संघर्ष मे लाखों देशभक्तों ने अपनी कुर्बानी दी थी । देश आजाद हुआ लेकिन अनेक ऐसे शहीद विस्मृतियों के गर्त में धकेल दिए गये । अपने इस आलेख में ऐसे ही एक वीर सपूत की चर्चा करने जा रहा हूं जिनकी प्रतिमा 5 वर्षों से तैयार होकर स्थापना के इंतजार में है और शहादत स्थल पर इस प्रतिमा की स्थापना की अनुमति सरकार से अब तक नहीं मिली है । 1942 केअंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन के इस जांबाज शहीद का नाम है- अमीर सिंह । इनकी प्रतिमा का निर्माण विधान पार्षद डाक्टर देवेश चंद्र ठाकुर ने अपने फंड से कराया है और इसकी स्थापना सकरा सब रजिस्ट्री कार्यालय परिसर में होनी है, जिसकी अनुमति अबतक नहीं मिली है । लिहाजा स्थापित किए जाने के इंतजार में अमीर सिंह की यह प्रतिमा सकरा के बगल के एक गांव में शत्रुघ्न प्रसाद सिंह के बथान में पडी हुई है । स्थापना हेतु जगह की स्वीकृति देने के लिए प्रशासन अमीर सिंह के बारे में जानकारी जुटा रहा है । आखिर इस कार्य के लिए दो गज सरकारी जमीन देने का सवाल जो है ! अनुमति लेने की कवायद चार सालों से चल रही है।

11 सितम्बर 1942 को इसी सकरा सब रजिस्ट्री कार्यलय में तिरंगा फहराने की कोशिश करते हुए अंग्रेजी हुकूमत की फौज की गोली से अमीर सिंह मौके पर शहीद हो गये थे । मुजफ्फरपुर जिले के वर्तमान बंदरा प्रखंड का एक गांव है नूनफारा । इस गांव का एक टोला है जिसे बदहा टोला कहा जाता है। आजादी से पहले यहां बाहरी जमींदारों की जमींदारी हुआ करती थी। तब की यही परम्परा थी कि गरीब के घर पैदा हुए बच्चे का नाम माता -पिता अमीर लिख देते थे । वे तीन भाईयों में मझले थे । बड़े भाई का नाम धनवीर और छोटे का रामबृक्ष था । दो बहनें भी थीं- कपिया और बढनिया । तब गरीब परिवारों के बच्चों का कुछ ऐसा ही नाम रखा जाता था । उनकी एक बहन बढनियां अभी भी जीवित है। अपने भरे पूरे परिवार के साथ सुराल में रहती है । अमीर सिंह पैदा भले ही गरीब घर में हुए लेकिन दब्बू नहीं विद्रोही स्वाभ के थे । किशोरावस्था आते-आते उनका यह विद्रोही स्वभाव धीरे धीरे मुखर होने लगा । वे शोषित पीड़ित किसान मजदूर के हमदर्द बन गये। जमींदार और उसके स्थानीय कारिंदों के हर अनाचार, अत्याचार, शोषण और बेगार का विरोध करना ही उनका उद्देश्य हो गया । वे गरीबों पर अत्याचार बर्दास्त नहीं करते । आखिर इसका परिणाम तो मिलना ही था । जमींदारों के कान खडे हुए । तय हुआ कि इस उदंड और जमींदार विरोधी युवक को सबक सिखाया जाए । जमींदारों ने अपने आका अंग्रेज साहबों के कान भरना शुरू कर दिया । तब इस इलाके में आंग्रेज की अनेक कोठियां हुआ करती थीं । इन्हीं गोरे साहबों के बल पर तो जमींदारों का भी अत्याचार चलता था, दोनों एक दूसरे के पृष्ठपोषक थे ।

जिनके खूं से जलते है चिराग -ए-वतन, जगमगा रहे हैं मकबरे उनके, बेंचा करते थे जो शहीदों के कफन “

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ इलाके के किसान -मजदूरों को भड़काने का आरोप लगा कर अमीर सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया । उन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया । अनेक सुराजी पहले से ही वहां जेल की सजा काट रहे थे । अमीर सिंह पर उनका प्रभाव पड़ा । गांव में अंग्रेजो और जमींदारों का मिलाजुला अत्याचार देख कर उनके मन में आजादी का जो अंकुर फूटा था वह जेल में बंद स्वतंत्रता सेनानियों के सान्निध्य से पल्लवित -पुष्पित होने लगा । जेल में ही उन्होने स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने का निश्चय कर लिया । कुछ समय बाद पर्याप्त सबूत के अभाव में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया । जेल से जब छूटे तो देश भक्ति का जो रंग उन पर चढा था वह और चटक हो गया था । बाहर आते ही वे सुराजियों के साथ आंदोलन की गतिविधियों में भाग लेने लगे । इसी बीच जयमाला देवी से उनका विवाह हुआ । उनका यह दाम्पत्य सूत्र बंधन भी उन्हें अपने लक्ष्य से डिगा नहीं पाया । अपनी गतिविधियां जारी रखीं ।

1942 में अंग्रेजो के विरुद्ध व्यापक जनक्रांति फूट पड़ी थी । 9अगस्त 1942 को महात्मा गांधी समेत देश के अधिकांश बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गये थे । गांधी जी द्वारा ‘करो या मरो’ का नारा दिया जा चुका था । नेता विहीन आंदोलनकारियों की समझ में जो आया वही किया । सशस्त्र क्रांति के समर्थक जो सत्याग्रह आंदोलन में विश्वास नहीं करते थे, वे भी इस आंदोलन में कूद पड़े, तोड़-फोड़ शुरू हो गया । संचार व्यवस्था भंग की गयी , रेल-तार उखाड़े जाने लगे । ब्रिटिश हुकूमत ने बड़ी निर्ममता से इस आंदोलन को कुचलने का काम किया । इस दौरान बिहार के 15 हजार आंदोलनकारियों को जेलों में बंद किया गया ।  8 हजार 7 सौ 83 को सजा मिली और 134 देशभक्त शहीद हो गये थे । अमीर सिंह की शहादत का भी वही दौर था ।  11 सितम्बर 1942 का दिन । स्वतंत्रता सेनानियों की उत्साही जमात रेल की पटरियां उखाड़ने, संचार व्यवस्था ठप करने के लिए तार काटने के बाद नारा लगाते हुए सकरा थाने पर तिरंगा फहराने के लिए बढ रही थी । वहां झंडा फहरा दिया । फिर भीड़ वहां से कुछ सौ मीटर दूर रजिस्ट्री कार्यालय में झंडा फहराने के लिए बढने लगी कि सकरा थाने के तत्कालीन दारोगा दीपनारायण सिंह की चेतावनी भरी जोरदार आवाज गूंजी ‘सभी भाग जाओ , गोरखा फौज आ गयी है, अब गोली चलेगी।’ जांबाज स्वतंत्रता सेनानियों की भीड़ उस चेतावनी को अनसुनी करती आगे बढ़ती रही। कुछ ही मिनटों में वे लोग रजिस्ट्री कार्यालय में पहुंच गये । गोरखा फौज पहुंच चुकी थी । गोलियों की तड़तड़ाहट से वातावरण थर्रा उठा था । लोग भागने लगे । आखिर जान तो सबको प्यारी होती है न ! इसी दौरान एक गोली अमीर सिंह को लगी और वे मौके पर शहीद हो गये । खबर आग की तरह फैल गयी । जयमाला देवी को जब इस घटना में अपने पति के शहीद होने की सूचना मिली तो उसने खाना-पीना छोड़ दिया । एक साल बाद वह भी इस दुनिया से चल बसी ।

शहीद अमीर सिंह । कब होगी मूर्ति की स्थापना ?

इस घटना के 52 वर्षों के बाद 1994 में जब बंदरा प्रखंड के गठन के बाद उसका उद्घाटन हो रहा था तब तत्कालीन विधायक सह मंत्री रमई राम ने मुख्य सड़क (जहां से अमीर सिंह के गांव बदहा टोला के लिए एक सडक जाती है) वहां अमीर सिंह द्वार का निर्माण कराया था । कुल मिलाकर मात्र यही एक उनकी निशानी है । रख रखाव के अभाव में यह द्वार भी जर्जर अवस्था में पहुंच गया है । इसके रंग रोगन की फिक्र न प्रशासन को है न पंचायत को । उनकी प्रतिमा की स्थापना के बारे में विधान पार्षद डाक्टर देवेश चंद्र ठाकुर का कहना है कि राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक कमिटी बनी हुई है, जो सरकारी परिसर में किसी प्रतिमा की स्थापना की अनुमति देती है । दो साल पहले इस दिशा में जिला स्तर से पत्र भेजा गया था जिसे कुछ वांछित जानकारी मांगते हुए वापस कर दिया गया । इधर फिर उसकी जानकारी प्रखंड के अधिकारियों से प्राप्त कर भेजी गयी है । जबकि सच्चाई यह है कि अमीर सिंह की शहादत के बारे में खुद बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग द्वारा प्रकाशित ‘भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में बिहार का योगदान ‘पत्रिका के अंक 8-10 (संयुक्तांक) वर्ष1998 में अमीर सिंह की शहादत का उल्लेख है । बहरहाल अमीर सिंह की प्रतिमा की स्थापना के लिए सकरा सब रजिस्ट्री कार्यालय में जगह की अब तक स्वीकृति नहीं मिलने पर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का शेर बरबस याद आ ही जाता है“कितना बदनसीब है जफर दफन के लिए, दो गज जमीं न मिली कू-ए-यार में ”


brahmanandब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के रहने वाले । पेशे से शिक्षक फिलहाल मई 2012 में सेवानिवृत्व हो चुके हैं, लेकिन पढ़ने-लिखने की ललक आज भी जागृत है । गांव में बदलाव पर गहरी पैठ रखते हैं और युवा पीढ़ी को गांव की विरासत से अवगत कराते रहते हैं ।