राम कथा में गांव बनाम शहर की लड़ाई

राम कथा में गांव बनाम शहर की लड़ाई

smart cityनरेंद्र अनिकेत

इन दिनों कई तरह के सपने तैर रहे हैं। ये सपने नहीं हैं, एक यूटोपिया है। शहर ऐसे हुए तो जीवन ऐसा होगा। शहर में यह हुआ तो निवासी यूं जीएंगे और ये न हुआ तो बस जिंदगी यूं ही कटती रहेगी। इन्हीं सपनों के बीच भगवा लपेटे बाबा भी जंगलों से बाहर आकर अपना प्रवचन दाग रहे हैं या फिर संस्‍कृत वाले नाम से कुछ उत्‍पाद बेच रहे हैं। शहर सबके लिए जरूरी हो गया है। धर्म की बात कहनी हो तो शहर मंच बनता है। राजनीति करनी हो तो यहीं के मचान पर चढ़ना होता है।

setu bandhसपनों की दुनिया में इन दिनों एक नाटक भी जारी है। भगवान की पूजा का अधिकार किसके पास है। मर्द हैं कि भगवान की पूजा स्त्रियों को करने नहीं देते। हद तो यह भी है कि देवी की पूजा पर भी खुद ही अधिकार किए बैठे हैं। कुछ मंदिरों में शिव की अराधना भी वर्जित है। पुरुष मानसिकता वाले समाज में स्त्रियों के साथ नाइंसाफी के खिलाफ एक औरत कुछ भगवाधारिणी महिलाओं के साथ क्रांति करती फिर रही है। लाइट – कैमरा – एक्‍शन में समाई पत्रकारिता। पत्रकारों के लिए इससे अच्‍छा क्‍या होगा कि दिखाने के लिए बिना दाम दिए चेहरा है। हंगामा है तो उस पर देर तक बौद्धिक खुजली के लिए लोगों को जमा करने का बहाना है।

यह हंगामा एक बात भूल गया है कि धर्म और उसके अवतार के पीछे की गाथा का मकसद क्‍या है।

क्‍यों इन गाथाओं की रचना हुई और आखिर उन अवतारों का संदेश क्‍या है।

हमें याद है तो बस इतना कि चाहे कितना भी पाप क्‍यों न करें, मंदिरों में अत्‍यंत स्‍वादिष्‍ट प्रसाद चढ़ा दिया तो समझो पाप कट गया। गोया भगवान भी बेचारे इस मुल्‍क में ‘रिश्‍वतखोर’ हो गए हैं।


धरती पर पारदर्शिता का ड्रामा

भक्‍तों के बीच हिस्‍सेदारी की लड़ाई है, पर भगवान चढ़ावे के लिए नहीं लड़ते। आखिर वे किसके लिए लड़ें, किस लिए लड़ें, इसका हिसाब भक्‍त करेंगे या फिर मंदिरों, मस्जिदों के लिए लड़ते रहेंगे यह फैसला उनकी मर्जी पर ही टिका है। भगवान बेचारे पत्‍थरों में रूप अरूप बनकर गुमशुदा हैं।

कबीर दास ने इस पर तीखी टिप्‍पणी की थीदिन में रोजा रखत हो रात हनत हो गाई, एक खून एक बंदगी कैसे खुशी खुदाई। और उनकी दूसरी टिप्‍पणी पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़/ या ते वे चक्‍की भली पिसी खाए संसार।

कबीर के इन दोहों को नास्तिक टिप्पणियां कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है, क्‍योंकि वे राम भक्‍त थे और उनकी भक्‍ति असंदिग्‍ध है। हम यहां उनकी भक्ति पर विचार नहीं कर रहे बस इसे उदाहरण भर के लिए दिया है।

विष्‍णु के दस अवतारों में से दो खास तौर से हिंदू समाज के लिए ध्‍यातव्‍य हैं। एक राम, दूसरे कृष्‍ण- जिनके पीछे कई शिक्षा और ढेर सारा ज्ञान छिपा है।

कृष्‍ण तो गीता में सब कुछ कह जाते हैं, पर राम अपने आचरण से समाज को सीख देते हैं। कृष्‍ण का ज्ञान तो ग्राह्य है पर सोलह कलाओं के इस अवतार को विस्‍तार में वह स्‍वीकृति क्‍यों नहीं है, जो भगवान राम को है।

भगवान राम और भगवान कृष्‍ण में एक अंतर है। राम साकेत से वनवास पर जाते हैं। सीता उनके साथ चलने का तर्क देती है। वह जीत जाती हैं और राम उन्‍हें अपने साथ ले चलने के लिए वि‍वश होते हैं। छोटे भाई लक्ष्‍मण भी राम के साथ निकलते हैं और वन गमन के समय शेष दो भाई भरत और शत्रुध्‍न मौजूद नहीं रहने से वनवास नहीं जाते, पर लौटते ही बड़े भाई के रास्‍ते पर निकल पड़ते हैं।

चित्र- रवि वर्मा
चित्र- रवि वर्मा

राम का वनवास प्रस्‍थान जब शुरू होता है तब जनता उबल जाती है और निकल पड़ती है। अर्थ सीधा सा है तपस्‍वी वेशधारी राम के साथ गांव खड़ा हो जाता है। गांव के हुए राम को जनता अपना मान लेती है और उनके संघर्ष में शामिल हो जाती है। महल से निर्वासित राम को कई शर्तों के साथ वनवास का समय बिताना पड़ा। तापस वेश विशेष उदासी, चौदह वर्ष राम बनवासी। वनवास के दौरान वह नगर में नहीं गए। पर्णकुटी में रहते हुए वह स्‍थानीय उपलब्‍ध आहार पर ही आश्रित रहे। क्षत्रिय थे और धनुष सदैव उनके साथ ही रहा पर कभी किसी जीव का शिकार नहीं किया। राम के साथ वन में सीता भी खुश रहीं।

ध्‍यान रखा जाना चाहिए कि वनवास की अवधि में सीता मां नहीं बनती हैं। कारण साफ है कि राम साथ थे, पर तपस्‍वी वेश में शर्तों के साथ।

इस कथा में मोड़ आता है। पंचवटी में स्थित उनकी कुटिया के सामने से एक स्‍वर्ण मृग दौड़ता चला जाता है। राम उसे देखते हैं मुग्‍ध होते हैं पर उस पर निशाना नहीं साधते हैं। वह उस मृग के पीछे तब चल पड़ते हैं जब सीता उन्‍हें बताती है कि इसके चर्म से बहुत सुंदर कंचुकी बनेगी। उस मृग के पीछे राम का कुटिया से जाना और लक्ष्‍मण को बलपूर्वक राम के पीछे भेजने का काम सीता करती हैं। जाते-जाते लक्ष्‍मण कुटिया के बाहर एक रेखा खींच जाते हैं और सीता से उसे न लांघने की ताकीद कर जाते हैं। रावण साधू के वेश में आता है और सीता को वह रेखा लांघने के लिए विवश करता है। सीता जब रेखा पार कर जाती है तो रावण उनका हरण करता है। उससे बचने के लिए सीता जब कुटिया की तरफ दौड़ती हैं तो रावण अट्टहास करता है और कहता है कि जब स्‍त्री एक बार मर्यादा लांघ जाती है तो उसकी वापसी के रास्‍ते बंद हो जाते हैं।

यह तर्क दिया जा सकता है कि यह रामकथा में भारतीय पुरुषवादी व्‍यवस्‍था का खेल है। लेकिन इस बात को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते कि रामकथा केवल भारत की कथा नहीं है। समकालीन दुनिया में और भारत की सभी भाषाओं में रामकथा लिखी गई। फिर जिस देश में स्त्रियों को पुरुष चुनने और विशेष परिस्थिति होने पर उसका त्‍याग करने का अधिकार हासिल था, वहां पुरुष इस व्‍यवस्‍था को थोपकर क्‍या पाता।

WhatsApp Image 2016-08-13 at 17.17.19यह पूरी कथा समाज व्‍यवस्‍था को कई सबक सिखाती है। यह कथा यह बताती है कि रिश्‍ते महलों में सिसकते हैं और प्रकृति की गोद में पलते हैं। ऐसे में रामकथा के इस अंश पर यह आक्षेप हमें इसके निहितार्थ से दूर कर देता है। दरअसल रामकथा शहर बनाम गांव, उन्‍मुक्‍तता बनाम अनुशासन, समृद्धि के उद्दाम आचरण बनाम संगठित और मर्यादित जीवन के बीच का संघर्ष है।

पूरी कथा पुरुष के बहुविवाह, संतान के लिए उपाय और राजा बनने के योग्‍य कौन है इसके संघर्ष और तर्क पर टिकी हुई है। यह सारा संघर्ष जीवन का नहीं है। एक शहर, एक राजमहल की दीवारों के भीतर तक कैद नहीं है। इसमें जीवन के विविध पहलुओं का संघर्ष है। शहर के उद्दाम जीवन के विरुद्ध शांत और सहजीवी वनवासी, ग्रामवासी का संघर्ष है। यह कथा इस बात को भी सामने रखती है कि संकट के समय नगरवासी से वनवासी हुए राम का साथ वा-नर (वे भी नर हैं) देते हैं।

मतलब साफ है कि मनुष्‍य जो भी हैं वह केवल और केवल मनुष्‍य हैं। वंश, नस्‍ल के आधार पर किसी को भी खारिज करना अनुचित है। ईश्‍वर की दृष्टि में सभी समान हैं। समृद्धशाली लंका के अधिपति रावण को राम पराजित ही नहीं करते, धराशायी कर देते हैं। विजयी होने पर भी वहां का राज अपने अधीन नहीं करते, उसकी स्‍वतंत्रता बहाल रखते हैं और राक्षस कुनबे के ही ग्राम जीवन अनुग्राही विभीषण को राजा बनाते हैं।

उस संघर्ष में राम उस लंका पर विजय प्राप्‍त करते हैं समृद्धि जिसका द्वार चूम रही थी। उसकी समृद्धि का बखान यही है कि लक्ष्‍मी और सरस्‍वती सेविका बनी हुई हैं। कहने का अर्थ यह कि सेवक, सेविका भी हर लिहाज से संपन्‍न हैं। लेकिन रिश्‍ते का हाल यह है कि शादीशुदा सूर्पनखा लक्ष्‍मण पर मोहित होती है। लक्ष्‍मण अपनी असमर्थता जताते हैं, राम की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि सेवक हूं हमारे समस्‍त सुख पर स्‍वामी का अधिकार है। वही कुछ कर सकते हैं ।सूपर्नखा राम के पास पहुंचती है और उनसे भी विवाह का प्रस्‍ताव कर बैठती है। राम जब सीता का सहारा लेते हैं तो वह अपना रौद्र रूप दिखाती है।

शहरी जीवन में रिश्‍ते का यह हाल क्‍यों है इसका विश्‍लेषण क्‍या किया जाए। हमारी आज की जिंदगी में इसकी पूरी व्‍याख्‍या पसरी हुई है। इसके विपरीत रामकथा के इस प्रसंग का उल्‍लेख यहां अनिवार्य है कि वनवास से लौटे राम को लोकापवाद के कारण सीता का त्‍याग करना पड़ता है।स्‍त्रीवादी कहलाने के लिए इसका विश्‍लेषण करते हुए लोग राम को अपराधी ठहरा देते हैं। इस क्रम में यह भूल जाते हैं कि रामकथा का युग और उनके विचार के युग में कितना अंतर है। रामकथा की जरूरत क्‍या थी उस समय का समाज क्‍या था और किन परिस्थितियों में उस कथा की रचना की गई होगी।

राम हुए थे या नहींराम भगवान थे या नहीं यहां यह बहस का मुद्दा नहीं है। सवाल यह है कि आखिर रामकथा की जरूरत क्‍यों पड़ी होगी। यह सवाल उठाते ही एक तबका यह जवाब दे देगा – जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखिय तिन तैसी। लेकिन कथा की आलोचना करते समय इस सीमा में बंध जाना कथा के सार से खुद को वंचित करना है।समाज में दो चीजें साथ चलती हैं। हम जिसे खो चुके होते हैं उसकी याद हमें सालती है। हमें जो मिलता है उसका गुणदोष हमें चिढ़ाता है। आदमी बीते वक्‍त को याद करता है। इसी याद करने की प्रक्रिया को नॉस्‍टेल्जिया कहा जाता है।

गहरा मंथन करें तो यही सामने आता है कि जब समाज में रिश्‍ते सोना की चमक में खो रहे थे, तब एक ऐसे समाज का यूटोपिया तैरने लगा था, जहां चमकने वाली इस चीज पर रिश्‍ते कुर्बान नहीं होते। जहां सोने की ताकत के सामने एकजुटता कमजोर नहीं होती। जहां स्वर्ण के लिए स्‍त्री अपनी शुचिता नहीं खोती है।

krishnaयह कथा इस कसौटी पर खड़ा उतरती है। राम के चारों भाई राम के साथ हो जाते हैं। यहां तक कि बेटे के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करने वाली कैकेयी अकेली रह जाती है। पति राजा दशरथ संसार त्‍याग देते हैं और बेटा भरत भी राम के पथ का अनुसरण करते हुए महल त्‍याग कुटिया में रहने चले जाते हैं। वह जमीन पर राम से भी नीचे की जगह बनाते हैं और सोते हैं। राम नहीं हैं तो सिंहासन पर उनकी खड़ाउं रखते हैं और प्रतिनिधि राजा की तरह शासन चलाते हैं। अर्थात भरत भी ग्रामवासी हो जाते हैं।

इस कथा में सत्‍ता के लिए रिश्‍ते का सवाल जब आता है तो रिश्‍ता बचता है सत्‍ता ही त्‍यागी जाती है। सोने के मृग पर मोहित राम भी होते हैं पर उसकी सुंदरता और उसका जीवन दोनों ही उन्‍हें भाता है। वह इससे चूकते हैं तो अपने अंतरंग रिश्‍ते के प्रेरित करने पर। रामकथा का यह हिस्‍सा हमें यह बताता है कि आदमी के भीतर कुत्‍सा तब तक सोयी रहती है जब तक उसे कोई जगाता नहीं है।

मनोविज्ञान भी यह कहता है कि हमारा इड्स जाग्रत अवस्‍था में दबा हुआ रहता है, क्‍योंकि उस समय हमारा इगो सुपर इगो के प्रभाव में रहता है। जब हम सो जाते हैं तब इड्स सक्रिय हो जाता है और इगो को अपने प्रभाव में ले लेता है। यदि जाग्रत अवस्‍था में सुपर इगो निष्‍प्रभावी हो जाए तो हम जाग्रत अवस्‍था में भी इड्स के प्रभाव में रहते हैं और वह सभी करते हैं जिसे सुपर इगो हमेशा हमें गलत है कहकर सावधान करता रहता है। अपराध के मूल में भी यही मनोदशा काम करती है जिसमें आदमी विवेक में भी वह सभी काम करता है जिससे हम दूर भागना चाहते हैं।

राम की पूरी कथा उस यूटोपियाई समाज की कसौटी पर खड़ा उतरती है जहां योद्धा सोना लूटने के लिए एकजुट नहीं होते हैं। एक समान पीड़ा से पीडि़त राम और सुग्रीव दोस्‍त बनते हैं। शक्ति के दंभ में फंसे बाली को राम साथ नहीं लेते हैं। उनसे सवाल भी बाली पूछता है – मैं वैरी सुग्रीव पियाराअवगुन कवन नाथ मोहि मारा। राम का जवाब भी ध्‍यान देने योग्‍य है – अनुज बधू भगिनी सुत नारी, सुन सठ कन्‍या सम ये चारी। इन्‍हें कुदृष्टि विलोकय जोई, तासु वधै कछु पाप न होई।

साफ है कि राम रिश्‍ते को अहम मानते हैं। यही कारण है कि उस कसौटी पर बाली पापी नजर आता है और वह उसका वध करने से नहीं हिचकिचाते हैं। बाली का साथ यदि उन्‍होंने लिया होता तो राम रावण की लड़ाई लंबी न चलती। लेकिन तब राम रिश्‍ते की इन पवित्रताओं को शायद स्‍थापित नहीं कर पाते। तब उनकी लड़ाई सीता के लिए नहीं होकर स्वर्ण के  साम्राज्‍य के लिए, ऐश्‍वर्य के लिए हो जाती और फिर उनकी कथा धर्म से कहीं दूर खड़ी राजकथा कहलाती। इसी कसौटी पर खड़ी कथा जीवन के पहलू को छूती है।

रिश्‍ते की भूमि पर खड़ी कहानी अपनी सीमा लांघती है और एक बड़़े भूभाग में हर हिस्‍से तक पहुंच जाती है। यही कारण है कि राम धर्म की सीमा भी लांघ जाते हैं और सभी के हो जाते हैं। बौद्ध भी जातक रामायण की रचना करते हैं। यह यूटोपिया भारत का नहीं होकर भारतीय विरासत की ओर सम्‍मान की दृष्टि रखने वाली दुनिया को ही अपनी जद में समेट लेता है।

लेकिन आज राम का भारत सोने की लंका बनने की राह पर चलने को आतुर है। उस लंका में राम की जगह पत्‍थर की मूर्ति में है। सोने की प्रतिमा में है। पत्‍थरों से बने आकर्षक भवन में है। माटी में आंसू है तो रिश्‍ते में समझौता। सोना कसौटी पर नहीं आंका जाता है, उसकी चमक में सब कुछ खो जाता है। यहां तक कि सत्‍ता भी सोने का खेल खेलती है और अपना हर दोष राम के पीछे छिपाने का पाप करती है।

यह नई रामकथा की तैयारी है, जहां राम एक व्‍यापारी है। सब कुछ बिकता है किसके लिएकिस लिए इसका जवाब लाचारी है।


narendra aniketनरेंद्र अनिकेत। कहानीकार एवं पत्रकार। जन्म 12 अप्रैल 1967, भगवानपुर कमला, जिला समस्तीपुर, बिहार। शिक्षा एम. ए. हिंदी साहित्य, पिछले 20 वर्षों से विभिन्न अखबारों में सक्रिय रहे हैं। आप इनसे [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।