अटल बार-बार याद दिलाते हैं ‘राजधर्म’

vijai trivedi rajnathवरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर लिखी पुस्तक- ‘हार नहीं मानूंगा’ का लोकार्पण 3 जनवरी की शाम हो गया। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस पुस्तक का लोकार्पण किया। करीब 300 पन्नों की इस पुस्तक का प्रकाशन हार्पर कॉलिन्स ने किया है। पुस्तक के 32 पन्नों में वाजपेयी से जुड़ी वो तस्वीरें हैं, जो अटल यात्रा के अहम पड़ाव रहे  हैं।
विजय त्रिवेदी ने करीब दो साल की कड़ी मेहनत के बाद एक विशाल सियासी शख्सियत को किताब में समेटा है। इस दौरान उन्होंने बीजेपी, कांग्रेस, जेडीयू, सीपीआईएम, एआईएडीएमके के बड़े नेताओं से अटल बिहारी वाजपेयी के कहे-अनकहे पहलुओं पर लंबी बात की। वाजपेयी के रिश्तेदारों से जानकारी जुटाई। वाजपेयी को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकारों से उनके व्यक्तित्व को लेकर चर्चा की।
खुद विजय त्रिवेदी ने करीब 25 सालों तक वाजपेयी को बेहद करीब से देखा परखा। बतौर सांसद, बतौर नेता विपक्ष और फिर बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कई मौकों पर समझने का मौका उन्हें मिला। पुस्तक अपने आख्यान में न केवल वाजपेयी की शख्सियत से रूबरू कराती है, बल्कि आजादी के बाद के भारत और खास कर जनसंघ के सियासी उत्थान को समझने की इतिहास दृष्टि भी देती है। वाजपेयी के साथ 13 का जो शुभ संयोग चलता रहा है, उसका पालन जाने-अनजाने इस पुस्तक में भी किया गया है। वाजपेयी को 13 अध्यायों में ही समेटा गया है।
पुस्तक के 12 वें अध्याय -‘राजधर्म की राजनीति’ के कुछ ख़ास अंश बदलाव के पाठकों के लिए।

modi medison square28 सितम्बर, 2014। न्यूयार्क का खचाखच भरा हुआ मैडिसन स्कवायर गार्डन। प्रवासी भारतीयों और खास तौर से गुजरातियों का मेला सा लगा हुआ था। केवल न्यूयार्क से ही नहीं, अमेरिका के अलग-अलग हिस्सों से लोग हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देखने, मिलने और उनका भाषण सुनने के लिए पहुँचे हुए थे। कोई मोदी को विकास पुरुष कह रहा था तो कोई हिंदू ह्रदय सम्राट। 2002 में हुए गुजरात दंगों के बाद 2005 में अमेरिका ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को वीज़ा देने से इंकार कर दिया था। उसके बाद मोदी का यह पहला अमेरिका दौरा था। वो भी सरकारी दौरा।

मैडिसन स्कावयर में ‘मोदी – मोदी’ के नारे लग रहे थे। वीडियो स्क्रीन पर चल रही फिल्म में भारत के आगे बढ़ने की कहानी और बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी सरकार की तारीफों का ज़िक्र भी था। मोदी ने अपने भाषण में कई बार वाजपेयी का ज़िक्र किया।

विजय त्रिवेदी की पुस्तक- हार नहीं मानूंगा का लोकार्पण।
विजय त्रिवेदी की पुस्तक- हार नहीं मानूंगा का लोकार्पण।

कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद मैं अपने कैमरामैन के साथ लोगों की प्रतिक्रिया ले रहा था। उत्साहित लोग, जोश से भरी भीड़। उसी दौरान एक सज्जन से सवाल जवाब हो रहे थे कि उन्होंने एक खुलासा किया मोदी के बारे में। वे सज्जन गुजराती थे, बीजेपी समर्थक, नरेन्द्र मोदी के मित्रों में से एक। उन्होंने बताया कि सन 2000 में जब वाजपेयी प्रधानमंत्री के तौर पर अमेरिका दौरे पर आए थे तब उनका भी प्रवासी भारतीयों के साथ एक कार्यक्रम था। उस वक्त नरेन्द्र भाई अमेरिका में ही थे राजनीतिक अज्ञातवास पर, लेकिन वो उस समारोह में शामिल नहीं थे। मोदी के उन गुजराती मित्र ने जब वाजपेयी से मुलाकात में मोदी के वहां होने के बारे में बताया और पूछा कि क्या मोदी से वे मिलना चाहेंगे तो वाजपेयी ने हामी भर दी। अगले दिन जब वाजपेयी और मोदी की मुलाकात हुई। मोदी से वाजपेयी ने कहा, “ऐसे भागने से काम नहीं चलेगा, कब तक यहां रहोगे? दिल्ली आओ…” । वाजपेयी से उस मुलाकात के कुछ दिनों बाद नरेन्द्र मोदी दिल्ली आ गए । उनका वनवास खत्म गया और मोदी तैयार हो गए एक नई राजनीतिक पारी खेलने के लिए ।

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vijai trivedi gadkariअक्टूबर 2001 की सुबह। मौसम में अभी गर्माहट थी, लेकिन वातावरण में एक स्याह सन्नाटा पसरा हुआ था। चेहरे मानो एक दूसरे से सवाल पूछते हुए से, बिना किसी जवाब की उम्मीद के… दिल्ली के एक श्मशान गृह में एक चिता जल रही थी। एक प्राइवेट चैनल के कैमरामैन गोपाल बिष्ट के अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने कुछ पत्रकार साथी और इक्का-दुक्का राजनेता थे।अंतिम संस्कार चल ही रहे थे कि एक नेता के मोबाइल फोन की घंटी बजी। प्रधानमंत्री निवास से फोन था।

फ़ोन करने वाले ने पूछा, “कहां हैं?”
फ़ोन उठानेवाले ने जवाब दिया, “श्मशान में हूं।“
फ़ोन करने वाले ने कहा, “आकर मिलिए।“

इस बहुत छोटी सी बात के साथ फोन कट गया। श्मशान में आये उस फोन ने हिंदुस्तान की राजनीति के नक्शे को बदल दिया।

ये राजनेता थे नरेन्द्र मोदी। भारतीय जनता पार्टी के गुजरात से नेता, जिन्हें केशूभाई पटेल के विरोधियों का साथ देने के लिए उनकी नाराज़गी झेलनी पड़ी थी। उन दिनों वे दिल्ली में अशोका रोड पर बीजेपी के पुराने दफ्तर में पिछवाड़े में बने एक छोटे से कमरे में रह रहे थे, जिसमें फर्नीचर के नाम पर एक तख्त और दो कुर्सियां हुआ करती थीं। उस वक्त पार्टी में प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली जैसे नेताओं का ही दबदबा सा था।

जब मोदी उस रात अटल बिहारी वाजपेयी के घर पहुंचे तो उन्हें एक नई ज़िम्मेदारी दी गई – गुजरात जाने की ज़िम्मेदारी। पार्टी के दिग्गज नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल को हटाकर नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री बनने की जिम्मेदारी।

तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि मोदी का राजनीतिक करियर अचानक पार्टी हाईकमान और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के एक फ़ैसले से इस तरह बदल जाएगा।

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keshu bhai modi-1दो अक्टूबर को केशूभाई पटेल को दिल्ली बुलाया गया और उन्हें पार्टी अध्यक्ष जना कृष्णमूर्ति को अपना इस्तीफा सौंपने के लिए कहा गया। बुजुर्ग केशूभाई के पास कोई रास्ता नहीं बचा था। अहमदाबाद में नए नेता के चुनाव के लिए विधायक दल की बैठक बुलाने से पहले ही मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे सुरेश मेहता ने कहा कि मोदी नेता नहीं बन सकते क्योंकि वो विधायक नहीं हैं। लेकिन नरेन्द्र मोदी को सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता चुन लिया गया। बिलकुल कांग्रेस की कार्यशैली में। केशूभाई ने मोदी के नाम का प्रस्ताव रखा, सुरेश मेहता ने समर्थन किया और 7 अक्टूबर 2001 को मोदी मुख्यमंत्री बन गए। संघ के एक नेता ने कहा भी कि हाईकमान ने ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि केशूभाई और मोदी में से किसे कितने विधायकों का समर्थन हासिल है। हाईकमान यानी तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी।

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27 फरवरी, 2002। गुजरात के गोधरा स्टेशन पर आई साबरमती एक्सप्रेस के कोच एस 6 में लगी आग में 59 लोग जिंदा जल गए थे। इनमें से ज्यादातर कार सेवक थे। लखनऊ से चलने वाली साबरमती एक्सप्रेस में रोजाना ही अलग अलग जत्थों में अयोध्या में आहुति देकर कार सेवक लौट रहे थे।

godhraअहमदाबाद में 27 फरवरी की उस रात करणावती क्लब में हज़ारों लोग गज़ल गायक जगजीत सिंह के कार्यक्रम का आनंद ले रहे थे। किसी को कोई खबर नहीं थी, लेकिन अगले दिन पूरा शहर आग की लपटों में घिरा था। हर तरफ दंगाइयों का ज़ोर दिख रहा था। अहमदाबाद के अलावा 110 किलोमीटर दूर वडोदरा और आस पास के ग्रामीण इलाकों में भी दंगे की लपटें तेज़ी से फैलने लगी। एक सम्प्रदाय के लोगों को पहचान कर-कर के निशाना बनाया जाने लगा। अहमदाबाद के नरोदा पाटिया में एक ही समुदाय के 97 लोग मारे गये। गुलबर्ग सोसायटी में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी समेत 70 लोग मारे गए।

वडोदरा की बेस्ट बेकरी में 14 लोग मारे गये। मेहसाणा जिले के विसनगर में 11 लोग मारे गये तो सरदारपुरा में 33 को जिंदा जला दिया गया। तीन दिन तक दंगाइयों का गुजरात पर मानो कब्जा रहा। केन्द्र सरकार ने रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडिस को दिल्ली से अहमदाबाद भेजा था ताकि सेना की तैनाती की जा सके और हालात को काबू में लाया जा सके।

 मोदी के उस कथित बयान की चर्चा भी काफी रही जिसमें उन्होंने गुजरात को दंगों को क्रिया की प्रतिक्रिया कहा। वैसे खुद मोदी ने इस तरह के बयान का खंडन किया लेकिन मोदी ने कभी इन दंगों को लेकर माफी नहीं मांगी।

2009 के लोकसभा चुनावों से पहले अप्रैल में चुनाव प्रचार के दौरान जब मैं एक हैलीकाप्टर में मोदी का इंटरव्यू कर रहा था तो मैंने सवाल पूछा कि क्या गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी दंगों के लिए माफी मांगेंगे तो मोदी नाराज़ हो गए। उन्होंने इंटरव्यू बीच में रोक ही दिया। मुझे और मेरे कैमरामैन को भी अधूरी यात्रा में हैलीकाप्टर से उतार दिया।

बहरहाल सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गुजरात दंगों में 1267 लोग मारे गए। हज़ारों लोगों को अपना घरबार छोड़ना पड़ा और बरसों बाद तक अपने पुराने घरों में लौटने की बात तो दूर रही, वे लोग ठीक से बस भी नहीं पाए।
वाजपेयी की छवि एक सेक्यूलर नेता की रही है। लोग सोच रहे थे कि वाजपेयी इतने बड़े दंगों पर तुरंत वहां पहुंच कर दंगा पीड़ितों के घावों पर मरहम रखेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वाजपेयी ने दो मार्च को कहा, “गोधरा से लेकर अहमदाबाद तक जो ज़िंदा जलाने की घटनाएं हुई हैं वो देश के माथे पर कलंक हैं, उसमें निरीह बच्चे और औरतें भी शामिल हैं। ये दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचाने वाले हैं।” लेकिन क्या उन्होंने कोई कार्रवाई की? शायद नहीं।

अगले दिन यानी तीन मार्च को वाजपेयी के सुर कुछ बदले हुए थे। वाजपेयी ने सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया से सकारात्मक रवैया अपनाने की अपील की। वाजपेयी ने बजंरग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। देश ही नहीं दुनिया भर में गुजरात दंगों को लेकर चर्चा चल रही थी। लेकिन कुछ साल पहले गांधीनगर से चुनाव जीतने वाले वाजपेयी तुरंत गुजरात नहीं गये।

राष्ट्रपति के आर नारायणन ने उस वक्त गुजरात दंगों को लेकर प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखी। इन चिट्ठियों में नारायणन ने क्या लिखा, इसकी जानकारी को सार्वजनिक करने की मांग को दिल्ली हाईकोर्ट ने ठुकरा दिया लेकिन राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद खुद नारायणन ने इस बारे में कुछ खुलासा किया।

माना जाता है कि गुजरात दंगों को लेकर राष्ट्रपति और सरकार में ठन सी गई थी। के आर नारायणन ने राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद मलयालम पत्रिका मानव संस्कृति में पी टी थामस को दिए इंटरव्यू में कहा,“गुजरात में हुए दंगों को सरकार और प्रशासन की तरफ से समर्थन मिल रहा था। मैंने इस मसले पर प्रधानमंत्री को कई बार और कई चिट्ठियां भी लिखीं। मैंने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर इस मुद्दे पर सीधे बातचीत भी की, लेकिन वाजपेयी ने कुछ ठोस नहीं किया।”

क्या इन्हीं चिट्ठियों और नाराज़गी की वज़ह से ही वाजपेयी सरकार ने नारायणन को दोबारा राष्ट्रपति नहीं बनाया?

गुजरात दंगों को लेकर वाजपेयी के मन में क्या चल रहा था और वे कितने दबाव में थे, इसका जिक्र जसवंत सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता के साथ इंटरव्यू में किया। जसवंत सिंह ने बताया कि मार्च 2002 में संसद का सत्र चल रहा था। तब एक दिन अचानक प्रमोद महाजन का फोन जसवंत सिंह के पास आया। महाजन की आवाज़ में घबराहट थी। प्रमोद महाजन को वाजपेयी का सबसे विश्वस्त माना जाता था।उन्होंने कहा कि आप तुरंत संसद भवन आ जाइए।

vijai ji jaswant singhजसवंत सिंह बता रहे थे,“मैं जब संसद भवन में प्रधानमंत्री वाजपेयी के दफ्तर में पहुंचा तो देखा वाजपेयी कागज और पैन लेकर बैठे हैं। महाजन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं। मुझे देखते ही महाजन ने कहा कि इन्हें समझाइए, इस्तीफा दे रहे हैं। मैंने वाजपेयी जी का हाथ रोका तो वाजपेयी ने टोकते हुए कहा कि आप मेरा हाथ छोड़िए, ऐसा मत कीजिए।” वाजपेयी मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने निजी सचिव को बुलाया, तब जसवंत सिंह ने निजी सचिव को बाहर जाने और फिर नहीं आने के लिए कहा।

वाजपेयी ने फिर पेन उठाया और इस्तीफा लिखने लगे। जसवंत सिंह ने फिर उनका हाथ पकड़ लिया। महाजन ये सब कुछ बेबसी से देख रहे थे। जसवंत सिंह ने काफी मानमनौव्ल की। वे उन्हें प्रधानमंत्री निवास 7, रेसकोर्स रोड ले गए।बाद में वाजपेयी मान गए और इस्तीफा नहीं दिया।

तो इस घटना से क्या ये माना जाए? कि वाजपेयी मोदी को हटाना चाहते थे? वाजपेयी काफी दुखी थे और पार्टी में कुछ लोग उन पर मोदी को नहीं हटाने के लिए दबाव बना रहे थे। ख़ासकर आडवाणी नहीं चाहते थे कि मोदी का इस्तीफा लिया जाए क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे पार्टी टूट जाएगी।

एक टीवी इंटरव्यू में वाजपेयी ने कहा,“2004 लोकसभा चुनावों में हार की वज़ह 2002 के गुजरात दंगे हो सकते हैं। मैं व्यक्तिगत रुप से मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के पक्ष में था लेकिन संघ परिवार से जुड़े नेताओं ने मोदी का पक्ष लिया।”
इस इंटरव्यू से संघ परिवार में भूचाल से आ गया। वाजपेयी ने आगे कहा कि 22 से 24 जून तक मुंबई में होने वाली कार्यकारिणी में मोदी पर फैसला हो सकता है। वाजपेयी के बयान से संघ में हड़कंप मच गया। आडवाणी तो विवाद से दूर रहे लेकिन संघ प्रमुख के एस सुदर्शन ने गुजरात दंगों को लोकसभा हार से जोड़ने से इंकार कर दिया।

modi atal godhra4 अप्रैल 2002 को प्रधानमंत्री वाजपेयी अहमदाबाद पहुंचे। देरी से पहुंचने पर उन्होंने खेद व्यक्त किया। दंगों को देश के लिए काला धब्बा बताया। पूरे दिन दंगा पीड़ित इलाकों में घूमने के बाद वाजपेयी ने मुख्यमंत्री मोदी को राजधर्म निबाहने की सलाह दी। वाजपेयी प्रेस कान्फ्रेंस कर रहे थे। मुख्यमंत्री मोदी उनके साथ बैठे थे।

दंगा पीड़ित इलाकों में दौरे के बाद वाजपेयी ने कहा,“विदेशों में हिंदुस्तान की बहुत इज्जत है, उसमें मुस्लिम देश भी शामिल हैं। मगर वहां जाने से पहले मैं सोच रहा हूं कि कौन सा चेहरा लेकर जाऊंगा… कौन सा मुंह लेकर जाऊंगा। हर कैंप में रहने वाले की देखभाल हो, जो बच्चे अनाथ हो गए हैं, जो बहनें बेवा हो गई हैं, उनका विशेष ध्यान रखने की ज़रुरत है। घाव पर मरहम रखने की ज़रुरत है। ये काम सरकार के साथ-साथ समाजसेवी संस्थाओं को भी करने की ज़रुरत है।

गुजरात के दंगा पीड़ित इलाकों के साथ साथ वाजपेयी बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नकवी के साथ गोधरा भी गए,जहां साबरमती एक्सप्रेस में जल कर 59 लोग मारे गए थे। वाजपेयी ने गोधरा को दुर्घटना नहीं, सोची समझी साज़िश कहा। सरकार ने उसकी जांच के लिए एक जांच आयोग बनाया गया था, लेकिन वाजपेयी ने इस आयोग की रिपोर्ट का इंतज़ार किए बिना गोधरा की घटना को सोची समझी साज़िश कहा। यही लाइन बीजेपी की थी। जब वाजपेयी से गुजरात के दंगों पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि इसके लिए जांच आयोग की रिपोर्ट का इंतज़ार करना चाहिए। शायद इसीलिए बहुत से लोग वाजपेयी और बीजेपी या संघ की सोच में कोई फर्क नहीं देखते।

दंगा पीड़ित इलाकों का दौरा करने और उसके बाद राजधर्म की सलाह देते वक्त क्या वाजपेयी के दिमाग और मन में अपनी ही लिखी कविता कहीं चल रही थी? ये कविता थी‘सत्ता’…

vijayji atal-2मासूम बच्चों,
बूढ़ी औरतों,
जवान मर्दों,
की लाशों के ढेर पर चढ़कर
जो सत्ता के सिंहासन तक पहुंचना चाहते हैं
उनसे मेरा एक सवाल है:
क्या मरने वालों के साथ
उनका कोई रिश्ता न था?
न सही धर्म का नाता,
क्या धरती का भी संबंध नहीं था?
अथर्ववेद का यह मंत्र
क्या सिर्फ जपने के लिए है,
जीने के लिए नहीं?
आग में जले बच्चे,
वासना की शिकार औरतें,
राख में बदले घर
न सभ्यता का प्रमाणपत्र हैं,
न देशभक्ति का तमगा…
वे यदि घोषणापत्र हैं तो पशुता का,
प्रमाण है तो पतितावस्था का,
ऐसे कपूतों से,
मां का निपूती रहना ही अच्छा था…

उस शाम एक महिला पत्रकार ने अंग्रेज़ी में सवाल किया कि मुख्यमंत्री के लिए आपका क्या संदेश है।वाजपेयी ने कहा कि मुख्यमंत्री के लिए एक ही संदेश है कि वे राजधर्म का पालन करें। राजधर्म – यह शब्द काफी सार्थक है। मैं उसी का पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिए, शासक के लिए प्रजा – प्रजा में भेदभाव नहीं हो सकता। न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर, न धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर।

vijayji modi-2पास में बैठे मुख्यमंत्री मोदी असहज नज़र आ रहे थे। मोदी ने वाजपेयी को देखते हुए धीमे से कहा, “हम भी वही कर रहे हैं साहब।”

वाजपेयी ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में थोड़ा रुक कर कहा,“मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र भाई यही कर रहे हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद।“


इसके आगे के हिस्से के लिए पढ़ें विजय त्रिवेदी की पुस्तक- ‘हार नहीं मानूंगा’