गुजरात में गांधी के मायने समझने की एक कोशिश

गुजरात में गांधी के मायने समझने की एक कोशिश

धीरेंद्र पुंडीर

गुजरात में दांडी यात्रा के बाद दिल्ली के रास्ते में आते वक्त सोच रहा था कि दांडी यात्रा में मैंने क्या हासिल किया। साबरमती आश्रम की ओढ़ी हुई सादगी में मिश्रित एक अहमन्यता का भाव तो दांडी के सैफी बंगले में उदास सी दिखती इमारत। सरकार के नाम पर जनता के टैक्स से मजे लूटते हुए ब्यूरोक्रेट और हर जीत के बाद बौनी होती राजनीति। 87 साल पहले जिस यात्रा ने सदियों से गुलामी की जंजीरों को ढो रहे एक देश को खड़ा करने की कोशिश की थी और यकीन दिलाया था कि आजादी से भी बड़ी चीज है आत्मसम्मान हासिल करना।

आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के योगदान को लेकर हम सब कई बार बहसों में उलझते हैं, कई गर्म दल के समर्थकों को लगता है कि क्रांतिकारियों की भूमिका को कमतर आंकने का काम किया गया है। आज़ादी के बाद पैदा हुई कांग्रेस ने पूरी जीत का श्रेय बरास्ते गांधी-नेहरू को थमा दिया। इस पर वाद विवाद होता है। कई बार आप इस तरफ होते हैं कई बार आप उस तरफ होते हैं। आप भगतसिंह और गांधी को एक दूसरे के सामने खड़ा करने की कोशिशों को कभी नकारते हैं, कभी स्वीकारते हैं। आजादी के बाद गांधी के चेलों की कमाई को लेकर और कांतिकारियो के घरवालों की भीख मांगने की हकीकत से आपका मन उचाट होता है। और मैं भी इन सब सवालों के बीच झूलता रहता हूं।

इस बार गुजरात के चुनाव के वक़्त मुझे कवरेज के तौर पर प्लान देना था। मैंने कई बार सोचा और गांधी ही मुझे याद आए। कई आंदोलनों को देखने के बाद और गांधी के साबरमती आश्रम के प्रवास के दौरान उनकी कार्यशीलता पर नजर डाली। और फिर मुझे उनका दांडी यात्रा के वक्त दिया गया वो शानदार भाषण मिला, जिसमें उन्होंने कहा था कि चाहे मैं कव्वे की मौत मरूं या सियार की, लेकिन स्वराज लिए बिना साबरमती आश्रम वापस लिए नहीं लौटूंगा। मैं देख पढ़ रहा था और गुजरात के बारे में सोच रहा था तभी एक भाषण सामने से गुजरा और देखा कि उसमें महात्मा ने साफ किया था कि इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि आज गुजरात पहल करता है तो कल सारा भारत जाग्रत होगा। और मुझे लगा कि यही वो सिरा है जिसको लेकर गांधीजी और उनके सपने को आज की राजनीति के बरक्स परखा जा सकता है।

मैंने तय किया कि दांडी की यात्रा की जाए। पैदल 387 किलोमीटर। गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए। बाद में चुनावी कार्यक्रम को देखते हुए, इसमें फिर से बदलाव किया और तय किया गया कि चुनाव के लिए दौरे करते वक्त दांडी यात्रा की जाए। मुझे लगा कि यदि इस तरह से यात्रा करूं और नाम दूं दांडी यात्रा तो ये एक किस्म का दगा होगा। और हमने यात्रा का नाम बदल दिया और नाम रखा- चुनाव की दांडी यात्रा। और शुरू हुआ एक कांत्रि को समझने का सिलसिला।

मैं सोच रहा था कि गांधी की दांडी यात्रा आज़ादी की लड़ाई के लिए चल रहे आंदोलनों का एक अहम हिस्सा थी, बस इतना ही। जैसे ही मैंने साबरमती आंदोलन पर बात करनी शुरू की तो पता चला कि भले ही बाकी आंदोलनों से इसलिए जोड़ दिया जाए कि इसका मकसद अंग्रेज सरकार से आजादी की मांग करना है लेकिन ये आंदोलन उससे कहीं आगे का था। ये आंदोलन देश के सदियों की नींद से उठाने की कहानी है। ये कहानी देश को दुनिया की आंखों में आंखें डालकर खड़ा करने की कहानी है। गांधी के सपनों का भारत कैसा होगा, इस आंदोलन ने उसकी बुनियाद रखी।

चुनाव के बहाने ही सही मैंने हिंदुस्तान के बदलते हुए कलेवर को इस दौरान महसूस किया। मैं सिर्फ चुनाव कवर करने ही नहीं गया था बल्कि बदलाव की उस प्रक्रिया को देखने गया था जिसने हजारों साल की गुलामी से निराशा में डूबे देश को बदलाव की उम्मीद दी थी। और सबसे बड़ी उम्मीद थी कि गुलामी के साथ सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति। आजादी की लड़ाई से भी बड़ी लड़ाई थी जातिवाद के दलदल से देश को उबारने की। एक बेहद पतला दुबला शख्स अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला करता है कि गुलामी की इस जड़ को खत्म करना है। इसके खिलाफ युद्ध का उद्घोष हिंदुतान की अँगड़ाई थी। आजादी की लड़ाई का श्रेय निस्संदेह एक के सर नहीं है। दांडी की लड़ाई ने दूसरी कई बातों का सेहरा गांधी के सर बांधा है।

आज वो तमाम रास्ते जिनसे गांधी गुजरे थे बदहाली का शिकार हैं। इस यात्रा पर एक टिप्पणी थी उस गांव से जहां गांधी ने पहली बार गांववालों को दलितों के साथ बैठा दिया था। वहीं गाधीजी की नाक टूटी हुई मूर्ति एक गंदे से कमरे में कूड़े के बीच थी और मैंने सामने रह रहे एक नौजवान से पूछा कि क्या यही वो जगह है जहां गांधी जी ने दांडी यात्रा के दौरान सभा की थी तो उस नौजवान ने हंसते हुए जवाब दिया कि ये तो मालूम नहीं लेकिन यहां कमरे में एक गांधी जी रखे हुए हैं। मैंने सन्न रहते हुए पूछा कि किस क्लास में पढ़ते हो तो उसने जवाब दिया कि वो एमएससी कर रहा है इंड्रस्ट्रियल कैमिस्ट्री से। वो वहीं सामने के घर में रहता है। मैं कुछ कहता तो उसने पहले ही कह दिया कि ये दलितों की बस्ती है।


dhirendra pundhirधीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।