‘दाल क्रांति’ से ही मिलेगी ग़रीबों को दाल-रोटी

‘दाल क्रांति’ से ही मिलेगी ग़रीबों को दाल-रोटी

जितेंद्र कुमार शर्मा

pulses -1आज गरीबों की थाली से दाल गायब होती जा रही है। हरित क्रांति में गेंहू और धान जैसी फ़सलों पर तो काफी जोर रहा लेकिन दलहन को लेकर हम आज तक आत्मनिर्भर नहीं हो पाए। शायद यही वजह है कि हाल ही में सरकार को बफर स्टॉक के लिए 30,000 मीट्रिक टन और दालों का आयात करने का फ़ैसला लेना पड़ा। अब तक सरकारी एजेंसियां घरेलू बाजार और किसानों से तकरीबन 1,19,572 मीट्रिक टन दालों की खरीदारी कर चुकी हैं। बावजूद इसके दाल की आसमान छूती क़ीमतों पर लगाम नहीं लग पाई है।

ऐसे में ग़रीब लोगों तक दाल की पहुंच को मुमकिन करना एक बड़ी चुनौती है। गरीबों की दाल-रोटी का इंतज़ाम तब तक मुमकिन नहीं, जब तक कि किसानों के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर रणनीति न बनाई जाए। ऐसे में हिंदुस्तान टाइम्स के 30 अगस्त के अख़बार में के वी लक्ष्मण की रिपोर्ट उम्मीद बंधाती है। इस रिपोर्ट में हरित क्रांति के जनक कहे जाने वाले प्रोफेसर एम एस स्वामीनाथन की पहल का जिक्र किया गया है। क्या टीम स्वामीनाथन ने दाल क्रांति के लिए भूमिका तैयार कर दी है?

हरित क्रांति के जनक प्रोफेसर स्वामीनाथन
हरित क्रांति के जनक प्रोफेसर स्वामीनाथन

बात अप्रैल 2013 की है जब प्रोफेसर स्वामीनाथन के बुलावे पर तमिलनाडु के इलुपुर तालुका के इदयमपट्टी गांव में किसानों की एक पंचायत हुई। इन सभी किसानों को 71 टीमों में बांट कर खाद-बीज और तकनीक के इस्तेमाल का बुनियादी प्रशिक्षण दिया गया। इन किसानों ने दलहन की खेती की। टीम स्वामीनाथन ने यहां इलीपुर एग्रीकल्चरल प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड का गठन करवाया, ताकि किसानों को उनकी फ़सल की सही कीमत मिले। इस पूरे प्रोजेक्ट ने इलाके के किसानों को कुछ हद तक खुशहाल बना दिया है।

ग़रीब परिवारों के लिए दाल ही प्रोटीन का सबसे किफायती जरिया है। पिछले दो से तीन सालों में दालों की क़ीमत में डेढ से दो गुना तक इजाफा हो चुका है। आंकड़ों के लिहाज से हिंदुस्तान दालों का सबसे बड़ा उत्पादक देश रहा है। इसके साथ ही सच ये भी है कि भारत उपभोग के लिहाज से भी सबसे आगे है और नतीजा ये कि भारत को सबसे ज़्यादा दाल का आयात भी करना पड़ता है। दुनिया में दालों की खेती की 33 फ़ीसदी हिस्सेदारी भारत की है। इसी तरह भारत में दालों का उत्पादन दुनिया के कुल उत्पादन का 22 फ़ीसदी है।

दाल की खेती काफी हद तक मानसून के मिजाज पर निर्भर करती है। बीज और मजदूरी के लिहाज से भी लागत ज्यादा आती है। सरकार ने भी अभी तक दलहन की बुवाई और खेती को बढ़ावा देने के लिए बहुत कारगर नीतियां नहीं बनाई है। यही वजह है कि किसानों का ज्यादा जोर गेहूं और धान की बुवाई पर ही हुआ करता है। टीम स्वामीनाथन ने जो प्रयोग तमिलनाडु में किया है, उसे देश के दूसरे हिस्सों में भी आजमाए जाने की जरूरत है।


jitendra sharma profileजितेंद्र कुमार शर्मा। बैंकिंग सेक्टर में कार्यरत। पटना सिटी के मूल निवासी। पटना यूनिवर्सिटी से बीकॉम ऑनर्स और एलएलबी।