‘तड़प’ और ‘सपने’ के साथ ‘मुर्दा’ नहीं है निखिल दुबे

‘तड़प’ और ‘सपने’ के साथ ‘मुर्दा’ नहीं है निखिल दुबे

पशुपति शर्मा के फेसबुक वॉल से साभार

वो ख़बरों का ‘शार्प शूटर’ है। लंबा कद, तीखे ‘नैन-नक्श’, आड़ी-तिरछीं काली-सफेद मूंछें और उसे ऐंठने की अपनी अदा। न्यूज़ रूम में देखने पर कभी-कभी ये भ्रम भी हुआ कि मुंबई एटीएस का कोई ‘तेज-तर्रार’ अधिकारी खबरों की दुनिया में चहलकदमी तो नहीं कर रहा। लेकिन नहीं वो शख्स हर बार आपकी बंधी-बंधाई धारणाएं तोड़ने की जिद ठाने बैठा है। जब तक आप उसके बारे में एक राय बनाएंगे, वो तब तक अपनी शख्सियत के कई और पहलू उधेड़ कर रख देगा। जब तक आप उसे समझ पाने का भ्रम बनाएंगे, तब तक वो ‘अब तक 56’ स्टाइल में किसी और ‘एनकाउंटर’ के लिए निकल पड़ेगा और आप सोचते रह जाएंगे, अगर आपमें इतनी ‘क्षमता’ बची हो तो।

किशोरावस्था और युवावस्था का एक लंबा दौर रंगकर्म में बीता। वहां हर पल कुछ सीखने की ललक रही। वो आज भी बनी हुई है। रंगकर्म की तरह ही ‘ख़बर-कर्म’ में भी खुद को हमेशा नई भूमिकाओं और चुनौतियों के सामने खुद को पेश करने का अपना रोमांच है। और मैं जिस शख्स की बात कर रहा हूं वो इस रोमांच का एहसास कराने में भी कमतर नहीं। वो हमेशा आपके सामने नई चुनौतियां पेश कर आपको ‘उद्वेलित’ और ‘क्रियाशील’ रखता है। पिछले 78-80 दिनों में ‘ख़बरकर्म’ की ऐसी ही छोटी सी ‘वर्कशॉप’ में उस शख्स ने काफी कुछ सिखाया।

“अरे जाओ… जो खबर लिख रहे हो और जिस तरह से लिख रहे हो वो तुम्हारी अम्मा को समझ आएगी क्या?”, सुनो तो कभी-कभी अटपटा भी लगता है लेकिन उसके पीछे की संवेदना तक पहुंचते ही जुबान के ऐसे बोल के मायने बदल जाते हैं। बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों में, बड़े पदों पर काम करने, बड़ी सैलरी के बावजूद वो शख्स अम्मा की बीनी स्वेटर बड़े प्यार और सम्मान से ‘धारण’ किए रहता है। मां से अपने स्नेहिल रिश्तों को ‘तहखानों’ में नहीं रखता, उसकी ऊर्जा का एहसास आस-पास मौजूद लोगों को भी कराता रहता है।

एक प्रोफेशनल के तौर पर वो चंद पलों में उतनी ही शिद्दत से ‘गरिमामयी गालियों’ के साथ तूफान खड़ा कर देता है। आप नाराज हों, आप परेशान हों, उससे कोई फर्क नहीं। वो लोग जो ‘करीबी’ होने के भ्रम में ‘अनप्रोफेशनल’ होने की कोशिश करें तो वो भरे न्यूज़ रूम में उनका ‘पानी उतारने’ में भी कोई कसर नहीं रखता। ‘मां के लाल’ को ‘शार्प शूटर’ के तौर पर खुद को ‘स्विच’ करने में दो पल भी नहीं लगते। फैसले लिए, अमल किया। वो भी बहुत ही स्वाभाविक और त्वरित गति से। हिंदी का एक कठिन शब्द है- प्रत्युत्पन्नमतित्व। इस शब्द के इस्तेमाल के लिए शख्सियत ढूंढे नहीं मिलती, लेकिन वो आपको इस शब्द के इस्तेमाल का मौका भी मुहैया करा देता है। ‘शीघ्रातिशीघ्र सोचने-समझने की शक्ति’ से लैस ख़बर-योद्धा।

वो शख्स ‘बिटिया की बिछिया’ से लेकर ‘आपकी शर्ट के अधखुले बटन’ तक, सब पर नज़र रखता है। वो ये जानता है कि न्यूज़रूम में कौन ‘बेगुसराय वाली’ है और कौन ‘छपरा वाली’। वो जानता है कि किस प्रोड्यूसर की ‘भय-ग्रंथि’ क्या है और किसकी ‘कुंठाएं’ क्या है। वो जानता है कि आपकी ‘कमजोरी’ क्या है और आपकी ‘ताकत’ क्या है? और सबसे बड़ी बात इन सारी बारीक ‘नोटिंग्स’ को कैसे न्यूज़ रूम का माहौल बदलने के लिए ‘इस्तेमाल’ किया जा सकता है, ये भी जानता है। और सब जानना भी बेहद ‘खतरनाक’ होता है भाई। वैसे ही जैसे, हमारे सपनों का मर जाना।

सबसे खतरनाक होता है/मुर्दा शांति से भर जाना/तड़प का न होना सब सहन कर जाना/घर से निकलना काम पर/ और काम से लौटकर घर जाना/सबसे खतरनाक होता है/हमारे सपनों का मर जाना। (अवतार सिंह संधू ‘पाश’)

वो ‘मुर्दा’ नहीं है, बाकी है उसमें ‘तड़प’, उसे आदत नहीं पड़ी है ‘घर-दफ़्तर’ की, उसके ‘सपने’ जिंदा हैं। और तमाम अफसोस के बावजूद ये एहसास बल देता है कि हमारी ‘तड़प’ कहीं तो ज़िंदा है, हमारे ‘सपने’ कहीं तो जिंदा हैं।

न्यूज़रूम आपको मिस करेगा मेरे वरिष्ठ साथी निखिल। आपको अगले सफ़र के लिए तमाम शुभकामनाएं।