‘शिक्षा के बिना समाज में बदलाव मुमकिन नहीं’

‘शिक्षा के बिना समाज में बदलाव मुमकिन नहीं’

ब्रह्मानंद ठाकुर

हिन्दी का शायद ही कोई  ऐसा विरला साहित्यकार होगा जिसकी जयंती उसके निधन के 81 साल बाद भी इतनी शिद्दत से मनायी जाती हो।  प्रेमचंद जयंती समारोह समित , मुजफ्फरपुर पिछले 18 सालों से प्रेमचंद जयंती समारोह मनाता आ रहा  है। इस आयोजन की यह खासियत है कि यह तीन चरण में मनायी जाती है। ये समारोह मुंशी प्रेम चंद के जन्म दिन 31 जुलाई को एक संगोष्ठी से शुरू होता है । संगोष्ठी का विषय निर्धारण कर उस पर चर्चा कराई जाती है। संगोष्ठी के विषय का निर्धारण समिति के सदस्य आपस में विचार विमर्श के बाद करते हैं। दूसरे चरण मे शिशु से लेकर, 12वीं कक्षा के छात्र, छात्राओं की प्रतियोगिता कराई जाती है। प्रतियोगिता में कविता,  कहानी, निबंध, एकल गीत, एकल अभिनय , पेंटिंग आदि विषय शामिल रहते हैं। इस प्रतियोगिता में जिले भर से ढाई से तीन हजार छात्र शामिल होते हैं।  इन विषयों के जानकार प्राध्यापकों, शिक्षकों एवं कलाकारों की निर्णायक मंडल का गठन किया जाता है जो प्रतिभागियों का मूल्यांकन कर उसे पुरस्कार के लिए चयनित करते हैं। तीसरा चरण सांस्कृतिट कार्यक्रम और पुरस्कार वितरण का होता है। इसमें प्रेमचंद की भावधारा के किसी ख्यातिप्राप्त साहित्यकार को आमंत्रित करने की परम्परा रही है। इसबार परिचर्चा का विषय रखा ‘प्रेमचंद की विचार यात्रा’। समारोह का दूसरा चरण आगामी 27 अगस्त को होगा जिसमें छात्र- छात्राओं के बीच प्रतियोगिता का आयोजन किया जाएगा। तीसरा चरण पुरस्कार वितरण का होगा जिसकी तिथि समारोह समिती बाद में निर्धारित करेगी।

प्रेमचंद जयंती समारोह समिति के अध्यक्ष  सेवानिवृत शिक्षक सह वरिष्ठ साहित्यकार शशिकांत झा कहते कहैं कि “आज पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतें समाज में आर्थिक विषमता पैदा कर शिक्षा, संस्कृति, नीति-नैतिकता को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। साम्प्रदायिकता का जहर फैलाया जा रहा है। धर्म को राजनीति का मुख्य अंग बना दिया गया है। किसान -मजदूरों की हालत लगातार बदतर होती जा रही है।  युवाओं के सामने रोजगार का संकट है। शिक्षा को बाजार की वस्तु बना देने से यह आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चुकी है। हत्या, बलात्कार और नारी उत्पीडन की घटनाएं पराकाष्ठा पर है। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रेमचंद और उनका साहित्य युवापीढी को मार्गदर्शन करने वाला है। जरूरत आज इसी बात की है कि छात्र और युवा पीढी को प्रेमचंद के साहित्य और उनकी विचारधारा से अवगत कराया जाए।”

संगोष्ठी मे मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए बाबसाहेब भीमराव अम्बेडकर बिहार विवि के पूर्व कुलपति डॉक्टर रवीन्द्र कुमार वर्मा रवि ने प्रेमचंद को आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी साहित्यकार बताते हुए कहा कि “उनकी रचनाओं में उत्तरोत्तर विकास हुआ है और गोदान तक आते आते उनका मोह गांधीवाद से भंग हो गया। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की ऐसी परम्परा का विकास किया जिसने न केवल पूरी सदी का मार्गदर्शन किया बल्कि  वह आज भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की जगह शोषणमुक्त वर्गविहीन समाज की स्थापना का संदेश दे रहा है। उनका सम्पूर्ण लेखन हिन्दी साहित्य की ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दीसाहित्य का अययन अधूरा रहेगा।“ डाक्टर रवि ने कहा कि हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद ही ऐसे व्यक्ति हुए जिन्होने अपने समय की प्रचलित कथा परम्परा (तिलस्मी और ऐय्यारी) के बदले लोकोन्मुखी आदर्शवादी और फिर आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कथा परम्परा की शुरुआत की।

महात्मागांधी के विचारों से प्रेमचंद जहां भी सहमत नहीं हुए , वहां उन्होंने उनका विरोध किया। अछूतोद्धार के नाम पर महात्मा गांधी द्वारा दलितों को मंदिर प्रवेश कराए जाने का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि दलितों को पहले शैक्षिक और आर्थिक रूप से समृद्ध बनाया  जाए, उनकी तमाम समस्याएं खुद ब खुद दूर हो जाएगी । इस मामले में अम्बेडकर से उनका विचारसाम्य था। प्रगतिशील लेखट संघ की अध्यक्ष डाक्टर पूनम सिंह ने प्रेमचंद को किसी एक विचार धारा के खांचे मे फिट करने के प्रयासों का विरोध करते हुए कहा कि साहित्यकारों को किसी खास वैचारिक दायरे मे सिमट कर देखना कहीं से भी उचित नहीं है। उन्होने कहा कि प्रेमचंद के स्वराज, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार और सांस्कुतिक संकट सम्बंधी विचारों की आज समीक्षा की जरूरत है।

35 वर्षों के लेखन में प्रेमचंद ने 250 हिन्दी और 178 उर्दू कहानियां, एक दर्जन उपन्यास और अनेक निबंध लिखे है। इन सभी को पढ़े बिना प्रेमचंद की विचार यात्रा का समग्र मूल्यांकन सम्भव नहीं है। लेकिन इतना तय है कि 1901 से 1936 तक की अवधि में उनके विचार लगातार लोकोन्मुख होते रहे।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।