मां की ‘ख़ामोशी’ की भाषा समझते हैं हम

मां की ‘ख़ामोशी’ की भाषा समझते हैं हम

सर्बानी शर्मा

माया शर्मा, सर्बानी शर्मा की मां

मेरी मां। मां नहीं भाभी। वो हमारी मां नहीं बन पाईं कभी। हम उसे बचपन से ही भाभी कहकर पुकारते रहे हैं। मां ने हमें बड़ी मुश्किलों से पाला-पोसा। मां को बचपन में हमेशा हमने घुंघट में देखा। दादी की डांट फटकार खाना उनके लिए रोज की बात थी। हमें ये देखकर अचरज होता कि भाई (मेरे पिता, उन्हें भी हम भाई कह कर ही पुकारते हैं आज भी) ने कभी हमारी मां का ऐसी मुश्किल घड़ियों में खुलकर साथ नहीं दिया। मां की ख्वाहिश रहा करती कि हम कभी उनको मां कह कर पुकारें, लेकिन हमारी जुबान पर मां की बजाय भाभी शब्द ने ही जगह बना ली।

मां, मेरी काफी हुनरमंद रहीं। सिलाई, कढ़ाई और बुनाई में मास्टर। एक बार मां ने मुझे एक हफ्ते में स्वेटर बुनकर दिया था। मेरी मां ने अपने हाथों से सिलकर कई फ्रॉक और ड्रेस मुझे पहनायीं। हम भाई बहनों को पढ़ाई में काफी मदद करती थीं। मैं जब दसवीं क्लास में थी तो मेरी तबीयत काफी खराब रहा करती थी। तब मां ने मेरी खूब सेवा की। मैं बैठकर ज्यादा देर तक पढ़ भी नहीं पाती थी। मां ही मुझे किताबें पढ़ कर सुनाया करतीं, सवाल जवाब याद कराया करतीं।

सर्बानी अपनी मां के साथ

मेरी मां चूल्हे पर खाना पकाया करतीं थीं। मेरे छोटे भाई भानू की तबीयत अक्सर खराब रहा करती थी। मां घर-परिवार की जिम्मेदारी संभालते-संभालते झुंझला जाया करतीं। एक बार इसी झुंझलाहट में मां ने कहा- भानू को कूड़े में फेंक आओ और मैं उसे कूड़े में फेंक आई। कुछ देर बाद जब मां का गुस्सा शांत हुआ तो पूछा भानू कहां है। और फिर हम उसे कूड़े के ढेर से ढूंढ कर घर लेकर आए।

मेरी मां की एक बात और मुझे काफी प्रेरणा देती है। मां को बचत करने की आदत हमेशा से रही। घर खर्च के लिए पिता से जो भी पैसे मिलते मां उससे हर दिन कुछ पैसे बचा कर जरूर रखतीं हैं। हमारा घर हाट के बीच में है। सुबह सब्जी बेचने और खरीदने वालों की आवाज़ से ही हमारी नींद खुला करती है। कई लोग साइकिल हमारे घर के आंगन में लगाया करते हैं। मां एक लड़का रखा करतीं और साइकिल स्टैंड के पैसे भी अलग से जमा करतीं। इसके अलावा सब्जी के तौल के लिए बड़ा तराजू भी उनकी छोटी बचत का जरिया रहा है। हमें याद है बड़े मौकों पर मां की ये छोटी बचत पिता के लिए काफी मददगार रही। हम भाई-बहनों के छोटे-मोटे खर्च के लिए भी मां इन्हीं पैसों का इस्तेमाल करती हैं।

मां को जब याद करती हूं तो बस उनके जीवन के संघर्ष ही संघर्ष मेरी आंखों के सामने घूमने लगते हैं। मां बहुत कम बोलतीं हैं। उनकी खामोशी की भाषा को हमें समझना होता है। उन्हें हमने परेशान या बेचैन होते कम ही देखा है। उन्होंने सहनशीलता का पाठ कहां से पढ़ा है, कह पाना मुश्किल है। मेरे मंझले भाई मोन्टी की मौत के सदमे को भी मां ने उतनी ही खामोशी से झेला है। वो हर खुशी और ग़म को एक सम-भाव से ज़िंदगी में आत्मसात कर जाती हैं। बेहद मजबूत इरादों के साथ उन्होंने अब तक की ज़िंदगी जी है। उनकी जुबान पर किसी के लिए शिकायत के बोल नहीं आया करते।


सर्बानी शर्मा। रायगंज, पश्चिम बंगाल में पली बढ़ी सर्बानी इन दिनों गाजियाबाद में रहती हैं। बीएनएमयू से एलएलबी की पढ़ाई। संगीत और रंगमंच में अभिरुचि।

2 thoughts on “मां की ‘ख़ामोशी’ की भाषा समझते हैं हम

  1. सर्बानी शर्मा जी , आपका ‘मांकी खामोशी की भाषा समझते हैं हम ‘संसमरणात्म आलेख मातृ दिवस पर एक बेटी का अपनी मां को इस तरह याद करना मन को भावुक बना ही देता है। आपने जिस तरह की भावनाओं को व्यक्त किया है , वह केवल बेटी ही कर सकती है। अफसोस , सर्बानी जी मेरी न कोई बेटी है और न मुझै मेरी मां ही याद है। एक बेटी हुई थी , डेढ दो साल की थी और सच कहूं , एक बेरोजगार बाप उसका इलाज नहीं करा सका और वह मर गयी। उसका वह भोला चेहरा अब भी याद है। खैर ।आपका यह संस्मरण काफी गहराई तक हिला दिया। शुभकामना ।

  2. बेसन की सोंधी रोटी पर
    खट्टी चटनी जैसी माँ

    याद आती है चौका-बासन
    चिमटा फुकनी जैसी माँ

    बाँस की खुर्री खाट के ऊपर
    हर आहट पर कान धरे

    आधी सोई आधी जागी
    थकी दोपहरी जैसी माँ

    चिड़ियों के चहकार में गूंजे
    राधा-मोहन अली-अली

    मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
    घर की कुंडी जैसी माँ

    बिवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
    थोड़ी थोड़ी सी सब में

    दिन भर इक रस्सी के ऊपर
    चलती नटनी जैसी माँ

    बाँट के अपना चेहरा, माथा,
    आँखें जाने कहाँ गई

    फटे पुराने इक अलबम में
    चंचल लड़की जैसी माँ
    ___________________निदा फाजली

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