सुहाग की रक्षा के लिए संतान का सौदा क्यों?

सुहाग की रक्षा के लिए संतान का सौदा क्यों?

साभार- एएनआई

ब्रह्मानंद ठाकुर

हमारा समाज और सरकार देश को किस ओर ले जाना चाहता है, आज के दिनों में ये एक बड़ा सवाल बना हुआ है । पिछले कुछ दिनों से ऐसी ख़बरे पढ़ने को मिल रही है जिससे दिल बेचैन हो उठता है । आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि एक बेटा मां को छत से फेंकने में तनिक भी संकोच नहीं करता, एक मां सिने पर पत्थर रखकर अपने लाडले को बेंचने पर विवश हो जाती है । एक मां पर क्या बीतती होगी जब अपने सुहाग की रक्षा के लिए संतान का सौदा करने पड़ता होगा ।

ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिससे ना सिर्फ समाज कलंकित होता है बल्कि हमारी सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं के दावे की पोल भी खोलता है । पिछले दिनों यूपी के बरेली से अखबारों में एक ख़बर छपी कि 30 साल की एक मां ने अपने 15 दिन के बच्चे को 42 हजार में बेच दिया, क्योंकि पति के इलाज के लिए उसके पास पैसा नहीं था ।

30 साल की संजू मौर्य का पति हरस्वरूप मौर्य भूमिहीन मजदूर है। वह गरीबी रेखा के नीचे है मगर उसे बीपीएल कार्ड नहीं मिला है और, बीपीएल कार्ड नहीं है तो गरीबी रेखा से नीचे के परिवार को जो सुविधा मिलनी चाहिए, उससे भी वह वंचित है।  उसके पास जीने के लिए अपना श्रम बेचने के अलावा दूसरा कोई जरिया नहीं है। लिहाजा वह उत्तराखंड में भवन निर्माण कार्य में मजदूरी करता था। करीब तीन महीने पहले वह काम करने के दौरान निर्माणाधीन भवन के ऊपरी हिस्से से नीचे गिर गया और उसकी रीढ की हड्डी टूट गई  । डाक्टरों ने उसे शल्य चिकित्सा लिए लखनऊ ले जाने की सलाह दी। संजु मौर्य के पास इसके लिए पैसे नहीं थे।  उसने अपने पडोसियों से उधार मांगा । किसी ने पैसे नहीं दिए। उसका पति तीन माह तक विस्तर पर पड़ा रहा । उसकी तकलीफ उससे देखी नहीं गई लिहाजा उसने अपने तीन बच्चों में सबसे छोटे 15 दिन के मासूम को एक संतान विहीन व्यक्ति को बेंचना पड़ा ।

दूसरी घटना गाजियावाद जिले के वैशाली की है जो सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोलती है। यहां की सुमन सोरी  कैंसर से पीडित थी।  शुरुआती दौर में ही बीमारी की जांच में  कई लाख खर्च हो गये। उसे अपना घर  तक बेचना पड़ गया ।

ये तो महज कुछ उदाहरण हैं लेकिन देश में न जाने कितनी ऐसी घटनाएं हर रोज घटती होंगी जो हमें पता भी नहीं होती ।सवाल ये है कि जनता  के स्वास्थ्य चिकित्सा के नाम पर सरकारें बड़ी-बड़ी घोषणाएं चलाने का दावा करती हैं । प्रधानमंत्री बीमा योजना, प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम, स्वास्थ्य बीमा योजना,  मिशन इन्द्र धनुष जैसी ये तमाम योजनाओं के होने के बावजूद किसी मां को अपना बच्चा बेचना पड़ता है तो किसी को अपना घरबार ।

बालेश्वर. फोटो-पुष्यमित्र।

हमारी सरकारें जिस संविधान का शपथ लेती हैं उसी संविधान ने नागरिकों के अधिकार और स्वास्थ्य सुरक्षा की देखभाल करने की जिम्मेदारी सरकारों को दी है, लेकिन क्या हमारी सरकारें देश के वंचित और जरूरतमंदों के उस अधिकार की रक्षा कर पा रही हैं । साधारण से साधारण बीमारी में भी लोग सरकारी अस्पतालों का रुख करने से कतराते हैं।  गरीब को इलाज के लिए अपना सबकुछ बेचना पड़ता है । ऐसा नही हैं कि ऐसी स्थिति अचानक पैदा नहीं हुई है। वैश्वीकरण की आड़ में स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण का दौर प्रारम्भ हुआ। निजी अस्पताल तभी फल-भूल सकते थे जब सरकारी अस्पतालों की हालत खराब रहती, लिहाजा हुआ भी वही  । धीरे-धीरे सरकारी अस्पतालों की सुविधाएं घटने लगीं और लोग निजी अस्पतालों की ओर रुख करने को विवश हो गये । इसी बीच विश्व बैंक ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए वित्तपोषण के नाम पर विकासशील देशों पर अनेक शर्तें लागू कर दीं। इस सम्बंध मे विश्वबैंक ने  सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मरीजों द्वारा किए जाने वाले भुगतान की राशि में वृद्धि करने,  निजी स्वास्थ्य बीमा को विकसित करने, स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की  भागीदारी को प्रोत्साहित करने, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का विकेन्द्रीकरण करने आदि का सुझाव भी दिया।

मुनाफे की अपार सम्भावनाओं को देखते हुए बड़े-बड़े पूंजीपतियों और कारपोरेट्स घरानों ने इसमें पूंजी निवेश करना शुरू कर दिया। इसी मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी नीति का परिणाम है कि आज शहरी क्षेत्र  से लेकर सुदूर ग्रमीण क्षेत्रों मे भी निजी नर्सिंग होम , अस्पताल, ट्रामासेंटर और पैथोलाजी लैब का जाल बिछ चुका हैं जिसपर लगाम लगाने में भी हमारी सरकारें बेबस नजर आती हैं। बड़े-बड़े सरकारी अस्पतालों में बेड के अभाव में भरीजों को बरामदे या वार्ड में फर्श पर लिटा कर आलाज करने की खबरें अक्सर समाचारपत्रों की सूर्खियां बनती रही है। जरुरी जांच और दबा खरीदने के लिए अपस्ताल से  बाहर दबा दुकान और प्राइवेट जांच घर  का रास्ता दिखाया जाता है। मरीजों को मोटी रकम लेकर  इलाज करने और दुर्भाग्य से किसी गरीब मरीज की मौत अगर  उस अस्पताल में हो गई तो लाश रोक कर बकाए राशि वसूलने में भी संकोच नहीं होता ।

हमारा संविधान समानता की बात करता है, आखिर हमारे देश में समानता है कहां, पहले वर्ण व्यवस्था की असानता थी आज अमीर-गरीब की खाई है । लिहाजा जरूरत है कि कम से कम स्वास्थ्य और शिक्षा पूरे देश में अनिवार्य किया जाये ताकि हर गरीब को वही स्वास्थ्य सुविधा मिल सके जो एक अमीर को मिलती है।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।