‘पापी’ मीडिया और आप का ‘पाप’, डालो पर्दा ‘गुनाह’ पर

‘पापी’ मीडिया और आप का ‘पाप’, डालो पर्दा ‘गुनाह’ पर

शंभु झा

आप अखबार पढ़ते हैं। क्यों पढ़ते हैं ? आप न्यूज़ चैनल देखते हैं। क्यों देखते हैं? क्या कहा…समाचार जानने के लिए। देश विदेश की स्थिति और परिस्थिति को जानने समझने के लिए। ओके। बहुत बढ़िया। सटीक जवाब। अब ये बताइए कि आपको अखबार पढ़ कर और टीवी देखकर पूरी ख़बर मिल जाती है? कभी आपको लगता है कि जो कुछ आपको ख़बरों के नाम पर परोसा जाता है, वो देश काल और परिस्थिति का पूरा सच नहीं है। पूरी तस्वीर नहीं है।

अगर इन सवालों का जवाब आप ‘नहीं’ में दे रहे हैं तो इस लेख को आगे पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। जाइए, अच्छी धूप खिली है। पार्क में बैठ कर मूंगफलियां खाइए। चाय पीजिए। और तितलियों को देखिए। चार दिन की ज़िंदगी है। उसे बेकार की मगजमारी में लिखने पढ़ने में ‘वेस्ट’ करने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन अगर आपको सजग और सचेत होने का दावा है तो और आप उपर्युक्त सवालों के जवाब हां में दे रहे हैं तो ये लेख आपके लिए है । ध्यान से पढ़िए…क्योंकि पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया।
बात किसी एक न्यूजपेपर या न्यूज चैनल की नहीं है। किसी भी अख़बार में, किसी भी चैनल पर विराट-अनुष्का की ख़बर प्रमुखता से छपती है या दिखती है। मोदी के मन की बात, राहुल गांधी की का बयान और यूपी के यादव परिवार का घमासान जैसे समाचार छाये रहते हैं, लेकिन अगर मध्य प्रदेश या महाराष्ट्र में किसानों को उनकी उपज की सही कीमत नहीं मिलती है। अगर उन्हें अपना टमाटर सड़कों पर फेंक कर खून के आंसू रोते हुए घर लौटना होता है तो वो ख़बर बस एक फिलर की हैसियत रखती है।
हम सब जानते हैं कि पर्यावरण और प्रदूषण का संकट गहराता जा रहा है। साफ़ हवा और शुद्ध पानी, बाघ की तरह दुर्लभ होता जा रहा है। कहते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के सवाल पर होगा, लेकिन आपकी ख़बरों में पर्यावरण और प्रदूषण को कितनी जगह मिलती है। सामाजिक न्याय, सामाजिक सुरक्षा, महिलाओं और दलितों को समानता और सम्मान के मसलों को मेन स्ट्रीम मीडिया कितना कवर करता है। चाहे वो राष्ट्रीय स्तर का समाचार माध्यम हो या क्षेत्रीय। इन सवालों पर कितना फोकस है?
अगर किसी शहर में मेट्रो ट्रेन चलाने का ऐलान होता है, उसकी खूब चर्चा होती है। लेकिन दशकों से उस शहर का ड्रेनेज सिस्टम फेल है। इस पर ज्यादा बात नहीं की जाती और ये हाल तब है जब हर साल बरसात में हमारे ज्यादातर शहरों की हालत खराब हो जातीहै। चार घंटे की बारिश में सड़कों पर कमर तक पानी भर जाता है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई से लेकर श्रीनगर तक हमारे शहरों में ड्रेनेज और सीवर की हालत इतनी खराब है कि अगर जमकर दो दिन बारिश हो जाए तो शहर में बाढ़ आ जाएगी।
इसी तरह देश के ज्यादातर गांवों में 70 साल के बाद भी बेसिक इनफ्रास्ट्रक्चर क्यों नहीं विकसित हुआ? ये सवाल मीडिया के लिए कितना अहम है? वैसे सच ये है कि आपको ये सवाल एक दर्शक और पाठक होने के नाते अपने आप से भी पूछने चाहिए। लोग अक्सर शिकायत करते सुने जाते हैं कि मीडिया में ये क्यों दिखाया जाता है, वो क्यों नहीं दिखाया जाता है? लेकिन जनाब ताली एक हाथ से नहीं बजती है। ऑडियेंस और मीडिया दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। आप अखबारों या टीवी चैनल पर जो कुछ भी देखते सुनते या पढ़ते हैं वो इसी कनेक्शन का आउटपुट होता है। अगर मीडिया जनरुचि को तय करने में एक अहम रोल निभाता है तो दूसरा सच ये भी है कि पब्लिक टेस्ट और इंटेरेस्ट यानी जनता का मूड और उसकी पसंद के हिसाब से कोई भी समाचार माध्यम या संगठन अपनी रणनीति बनाता है।
इसे एक उदाहरण से समझिए तो आसानी होगी। बाजार में नूडल्स खूब बिकते हैं। महानगरों के आलीशान मॉल से लेकर सुदूर गांव की छोटी सी टपरीनुमा दुकान तक आपको नूडल्स के पैकेट मिल जाएंगे। अब अगर मैं आपसे पूछूं कि क्या नूडल बाजार में जमकर बिकते हैं तो इसके लिए सिर्फ उसकी निर्माता कंपनी को पूरा श्रेय जाता है? क्या आम लोगों का टेस्ट, उनका फूड पैटर्न, उनकी लाइफ स्टाइल,उनकी सोच को भी इसका श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए। देखिए, नूडल्स एक विदेशी फास्टफूड है, जिसका देसीकरण हो चुका है, लेकिन सत्तू, चूड़ा-दही, दलिया जैसे बहुत से देसी पारंपरिक हिंदुस्तानी फास्ट फूड हैं, जो बहुत जल्दी तैयार किए जा सकते हैं, बिलकुल फटाफट अंदाज में और देखा जाए तो ये सब व्यंजन नूडल्स के मुकाबले ज्यादा पौष्टिक और सेहत के लिए लाभदायक हैं, लेकिन नूडल्स  का स्वाद लोगों की जुबान पर चढ़ चुका है। वो ज्यादातर लोगों को सुविधाजनक और स्वादिष्ट लगता है और उनके बजट में है। इसलिए बाजार में नूडल्स छाए हुए हैं।
अब इसी बात को न्यूज के संदर्भ में देख लीजिए। आप जो देखते हैं, पढ़ते हैं, वो आपको अच्छा लगता है, तभी आप उसे पढ़ते या देखते हैं। चूंकि न्यूज मीडिया के ऑडियेंस का सबसे बड़ा वर्ग मध्य और उच्च मध्यवर्ग  है। इसलिए ज्यादातर समाचार भी इसी तबके की अभिरुचि के हिसाब से होते हैं। बाजार भी इस बात को अच्छी तरह समझता है कि हमारे शहरी मध्य वर्ग की च्वाइस क्या है। उनकी जागरूकता और चेतना का लेवल क्या है। उसी हिसाब से ख़बरों की प्राथमिकता तय होती है। इसीलिए आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय समाज और उसकी समस्याओं को संपूर्णता में पेश करने के लिए समाचार संगठन और दर्शक दोनों मिल कर प्रयास करें। समाचार संगठन समाज के उपेक्षित हिस्सों को कवरेज दें और इसी तरह पाठक और दर्शक भी समाज के ठोस और गंभीर मुद्दों को तरजीह दें।

अब जनाब ये तो नहीं हो सकता है कि आप चाय-पान की दुकान से लेकर अपने ड्राइंगरूम तक सिर्फ पॉलिटिक्स, मूवी और क्रिकेट पर चर्चा  करके चटखारा लें और अखबारों और चैनलों से उम्मीद करें कि आपको ग्रामीण बेरोजगारी, शहरी विकास, खराब सड़कें और बेरोजगारी दर जैसे सीरियस टॉपिक पर समाचार दिखाएं। ((और दिखा भी दें तो देखेगा कौन ? ) याद रखिए मीडिया समाज का दर्पण है जैसा समाज होगा, मीडिया भी वैसा ही होगा।


sambhuji profile

शंभु झा। महानगरीय पत्रकारिता में डेढ़ दशक भर का वक़्त गुजारने के बाद भी शंभु झा का मन गांव की छांव में सुकून पाता है। दिल्ली के हिंदू कॉलेज के पूर्व छात्र। आजतक, न्यूज 24 और इंडिया टीवी के साथ लंबी पारी। फिलहाल न्यूज़ नेशन में डिप्टी एडिटर के पद पर कार्यरत। 

One thought on “‘पापी’ मीडिया और आप का ‘पाप’, डालो पर्दा ‘गुनाह’ पर

  1. शम्भूनाथ जी की चिंता तो जायज है ।वे इस बात को भी बखूबी जानते होंगे की मीडिया की य ह स्थिति क्यों और कैसे हुई। भाई मीडिया तो वही करेगा जो उसके मालिक उससे करायेंगे। कबीर का जो घर जारे आपना , चले हमारे साथ वाला समय तो अब रहा नही कि अखबार घाटा सहकर या पत्रकार.फटा पैन्ट और टूटा जूता पहन कर पत्रकारिता के गौरव (अतीत वाला )की रक्षा में स्वयं आहुति देदे ।भाई कारपोरेट घराने का भी तो अपना हित है और व ह साधित होता है देश की बहुसंख्यक जनता के अहित से ।मीडिया उद्योग है ।और अखबार उसका उत्पाद ।कौन उद्योग पति अपना घर फूंक तमाशा देखना चाहेगा ? शंभूनाथ जी वर्गविभाजिय समाज में वर्गीय दृष्टिकोण से सोंचिए न ः।

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