मजदूर की मन की बात सुनो सरकार!

मजदूर की मन की बात सुनो सरकार!

ब्रह्मानंद ठाकुर

कई साल पहले शिक्षण के दौरान कक्षा में छात्रों से मैंने एक सवाल पूछा  था- मजदूर श्रम क्यों करता है ? तब  छात्रों ने एक स्वर में जवाब दिया था – अपना और अपने परिवार का पेट भरने  के लिए। श्रम और श्रमिकों के प्रति उनका यह अवैज्ञानिक लेकिन पूरी तरह व्यवहारिक दृष्टिकोण था । हालांकि ये दृष्टिकोण समाज के नवनिर्माण में मजदूरों की भूमिका को नजर अंदाज करने वाला है। लिहाजा मैं सवालों के जाल से उन्हें ये बात समझाने में कामयाब रहा कि श्रम का सामाजिक महत्व क्या है । जिसके बिना विकास का हर मॉडल अधूरा है । एक मई यानी अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर बरबस ही मुझे ये पुरानी बातें याद आ गईं । क्योंकि आज हिंदुस्तान में मजदूरों को दशा है वो बेहद चिंताजनक है । मजदूर दिवस पर सरकारी तंत्र मजदूरों के हक की बातें खूब करेगा लेकिन बाकी 364 दिन मजदूरों की सुध तक नहीं लेगा । मजदूरों के तमाम अधिकार लगातार छीने जा रहे हैं, ठेके पर बहाली की नयी व्यवस्था के चलते पेंशन समेत अन्य सुविधाओं से उन्हें वंचित किया जा रहा है, तालाबंदी और छंटनी की तलवार हमेशा लटकी रहती है, आंगनवाडी सेविका, आशाकर्मी , मध्याह्न भोजन रसोईया, नियोजित शिक्षकों, बैंक, बीमा, डाकघर, टेलिफोन के कर्मचारी, स्वास्थ्य कर्मियों को समान काम के बदले समान वेतन न देकर पूर्व से उनको मिलने वाली तमाम सुविधाओं से वंचित कर दिया गया है। यही नहीं जब ये सभी अपने बुनियादी हक के लिए आवाज बुलंद करते हैं तो उसे बड़ी ही बेरहमी से कुचल दिया जाता है।  जेलों में बंद कर दिया जाए, मुकद्दमें चला कर उन्हें सेवा से वर्खास्त करने की साजिश होने लगे तो फिर मजदूर दिवस मनाना बेमानी सा लगने लगता है ।

एक मई अब सिर्फ रश्म अदायगी बनकर रह गया है । तमाम हुक्मकारनों को शायद मजदूर दिवस के मायने भी ना मालूम हों, लेकिन वो मजदूर दिवस के दिन बातें खूब करेंगे । इसलिए सबसे पहले जरूरी है कि एक मई के उस मर्म को समझा जाए । एक मई का दिन मजदूरों  की वीरता पूर्ण संघर्ष और कुर्बानी का इतिहास है। 19वीं शताब्दी में यूरोप और अमरीका के उद्योगपतियों और उनके हितों के लिए समर्पित  सरकारें  मजदूरों  को 12 घंटे काम करने के लिए मजबूर करती थीं। इसके विरोध में तब मजदूरों ने आठ घंटे काम की आवाज बुलंद की । अपनी मांग को लेकर 1856 में आस्ट्रेलिया में पहली बार मजदूरों की हड़ताल हुई थी। दूसरी हड़ताल 1862 में भारत में हावड़ा के 1200 रेल मजदूरों ने की थी। फिर 1886 में  1 मई को अमरीका के मजदूरों ने 8 घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल कर दी । इस सफल हड़ताल से पूंजीपतिवर्ग बौखला गया और शिकागो शहर के हे-मार्केट चौक में मजदूरो के शांतिपूर्ण सभा के दौरान गोलियां चलवा गईं । मजदूरों के खून से उनका झंडा लाल हो गया था। अनेक मजदूर घायल हुए और अनेक  गिरफ्तार कर लिए गये । बाद में उन पर झूठे आरोप लगा कर मुकदमें चलाए गये। 4 मजदूर नेताओं को फांसी की सजा भी हुई ।

तमाम तरह के दमन और उत्पीडन के बाबजूद मजदूरों ने हार नहीं मानी। वे एकजुट होकर लगातार संघर्ष करते रहे और अपना हक लेकर ही दम लिया । फेड्रिक एंगेल्स के आह्वान पर 1890 में 1 मई का दिन सारी दुनिया में मजदूर दिवस के रूप में मनाने का फैसला हुआ । उसी संघर्ष का परिणाम है कि मजदूरों के लिए 8 घंटे कार्यदिवस का कानून बना जो आज भी लागू है। इस तरह मजदूरों के व्यापक हित में  जितने भी कानून बने हैं , वे सब उनके पूर्वजों के त्याग और बलिदान का परिणाम है। इस संघर्ष के 127 साल बाद कमोबेस आज भी हुई हाल हो गया है । पुंजीपति अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं और हमारे हुक्मरान कारोबारियों की हाथ की कठपुतली बनते जा रहे हैं । आज पूंजीपति अपने फायदे के लिएमजदूरों के हित में बने तमाम कानूनों की धज्जियां उड़ा रहा है ।

हिंदुस्तान में उदारवाद के साथ आये पूंजीवाद ने मालिक और मजदूर दोनों को एक दूसरे के विरोध में ला खड़ा किया है । एक (मजदूर) अपनी श्रम शक्ति बेंचता है और दूसरा मालिक (पूंजीपति वर्ग) श्रम शक्ति खरीदता है। जिसका नतीजा ये हुआ कि इस क्रय-विक्रय से जहां पूंजीपति वर्ग लगातार अमीर होता जा रहा है वहीं से मजदूर दिन-ब-दिन मजबूर होता जा रहा है । शोषण मूलक पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को लाया तो गया था आर्थिक मंदी से उबारने के लिए, लेकिन हुआ उसका उल्टा । इन्हीं नीतियों के चलते आज शिक्षा और स्वास्थ्य लगातार आम आदमी से दूर होती जा रही है । आर्थिक, सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक संकट चरम पर हैं। मजदूर कर्मचारियों की नौकरियां छीनी जा रही हैं। सेवा क्षेत्र का निजीकरण, व्यापारीकरण धड़ल्ले से किया जा रहा है। कर्मचारियों की पेंशन योजना बंद कर उनके वेतन से अंशदान के रूप में कुछ पैसे प्रतिमाह काट कर पेंशन की नयी योजना शुरु की गयी है। इसके विपरीत सांसद, मंत्री और विधायक का पेंशन कई गुणा बढ़ा दिया गया है। ये हमारी सरकारों की मजदूर विरोधी नीति नही है तो और क्या है ।

आज हालत ये हो गई है कि स्थाई काम भी ठेका प्रथा पर कराया जाने लगा है। एमडीएम रसोईया को 1250 रूपये मासिक मानदेय पर काम कराया जा रहा है। नियोजित शिक्षकों को प्रशिक्षण क्षेत्र के राज मिस्त्री से थोड़ा ही अधिकक्ष वेतन मिलता है। बिहार के कस्तुरबा विद्यालय के ज्यादातर कर्मचारियों का वेतन साढ़े सात हजार से चार हजार रूपये तक हैं । जबकि इतने कम पैसे में उन्हें 24 घंटे की सेवा देने की बाध्यदाता है । आंगनवाड़ी सेविका , सहायिका, आशा, ग्रामीण चौकीदार, ये सभी सरकारी काम तो करते हैं लेकिन उन्हें सरकारी कर्मी का न तो दर्जा मिलता है और ना ही वेतन ।

जाहिर है 1886 में मजदूरों का जितना शोषण हो रहा था, आज उससे कहीं ज्यादा शोषण हो रहा है। भवन निर्माण कारीगर ,मजदूर-मिस्त्रियों के कल्याण एवं बोर्ड में उनके निबंधन की प्रक्रिया इतनी जटिल बना दी गयी है कि  वे अपना पंजीयन भी नहीं करा पाते और इस प्रकार उससे मिलने वाले लाभ से वंचित रह जाते हैं। मजदूर विरोधी मानसिकता का ही नतीजा है कि अगर कभी-कभार कोई मजदूरों के हक की आवाज बुलंद करना चाहते हैं तो उनमें फूट पैदा कर दी जाती है। जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्रवाद के खेमों में बांट कर मजदूरों की एकता को खंडित कर दिया जाता है। यह पूंजीपतियों की एक खतरनाक चाल है जिसे समझने की जरूरत है। चूंकि मजदूर चाहे जहां का भी हो, उसका हित समान है। वे आपस में कभी लड़ना नहीं चाहते। आज जरूरत इस बात की है कि पूंजीपतियों के चाटुकार तमाम सियासतदानों चाल और चरित्र को समझने की। ताकि एक बार फिर मजदूर वर्ग की चट्टानी एकता स्थापित की जाए और पूंजीपतियों और उनके सरकारी नुमाइंदों  का असली चेहरे जनता के सामने लाया जाए । जो कहने के लिए तो जनता के नुमाइंदे होते हैं लेकिन काम पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए करते हैं । एक मई का दिन सिर्फ इतिहास को याद कर गर्व महसूस करने का नहीं बल्कि अपने हक के लिए आंदोलन करने के लिए तैयार रहने का है । इस  मौके पर कुछ पंक्तियां भी याद आ रही हैं–

“फौज हक को कुचल नहीं सकती

फौज चाहे किसी यजीद की हो

उठती है लाश अलम बनकर

लाश चाहे किसी शहीद की हो। ”


ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।