आल्हा-ऊदल की धरती पर कजरी के रंग

कीर्ति दीक्षित

कहते हैं जो सभ्यता या संस्कृति वक्त के साथ खुद में बदलाव नहीं लाती वो दम तोड़ देती है, कुछ ऐसा ही परंपराओं के साथ भी है । तमाम परंपराएं ऐसी हैं जिसे 21वीं सदी के युवा रूढीवादिता का नाम देकर छोड़ देते हैं, लेकिन कुछ ऐसी परम्पराएँ हैं जिन पर बुढ़ापे का असर नही होता, बल्कि समय के साथ ढलकर अधिक युवा होती रहती हैं, और जब पुरातन परम्पराएं लोकवासियों में नवीन होकर बहने लगें तो उनके सौन्दर्य में भी चार चाँद लग जाते हैं । हम आपको ऐसी ही बुन्देली परम्परा से रू-ब-रू कराने वाले हैं जो है तो सदियों पुरानी लेकिन नई पीढ़ी का लगाव देख ये और निखर गई है ।

वैसे तो सावन माह में कजली उत्सव अलग-अलग स्थानों पर भिन्न भिन्न स्वरूपों में मनाया जाता है, लेकिन बुन्देलखण्ड में आल्हा ऊदल की नगरी महोबा के कजली उत्सव की अपनी अलग पहचान है, दूर-दूर से लोग इस कजली मेले को देखने आते हैं ।  कजली उत्सव रक्षाबन्धन के दिन पूरे बुन्देलखण्ड में मनाया जाता है लेकिन महोबा में कजली का ये उत्सव राखी के दूसरे दिन से आरम्भ होता है । गलियों में गाजे-बाजे के साथ झाकियां निकलती हैं जो देखते ही बनता है । आधुनिकता के साथ ऐतिहासिकता का ऐसा संगम बहुत कम ही देखने को मिलता है । सइस कजली यात्रा में भुजरियों की लड़ाई के स्वांग के साथ-साथ आल्हा-ऊदल, चंदेल राजकुमार ब्रम्हा, राजा परमार और रानी मल्हना की सुसज्जित झांकियां निकाली जाती हैं और विशेष आकर्षण का केन्द्र होती है चन्द्रावल के डोले की झांकी । इस शोभा यात्रा को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं । इतिहास में ये प्रसिद्ध युद्ध भुजरियों की लड़ाई के नाम से जाना जाता है, वीर रस से ओतप्रोत  इस प्रकार के आल्हा गायन के साथ बड़ी शोभा यात्रा निकाली जाती है –

mahoba kajaliबारह बरिस लौ कूकर जीबै,  औ तेरा लौ जिएं सियार ।    

            बरिस अठारा क्षत्री जीबैआगे जीवन को धिक्कार ।।

मुर्चन मुर्चन नचै बुन्देला, ऊदल कहें पुकार-पुकार।

भग न जइयो कोऊ मोंहरां ते ,यारो राखियो धरम हमार।

खटिया पर कैं जौ मरि जैहो, बढ़िहै सात साख के नाम।

रन मां मरिकें जौ मरि जैहो, होइहे जुगन-जुगन लौ नांव।।

महोबा की कजली उत्सव के पीछे ऐतिहासिक लोक कहानी प्रचलित है, कहते हैं जब महोबा में चन्देल वंश का शासन था, तब दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने कजली वाले दिन महोबा पर आक्रमण कर दिया और चन्देलों की अति सुन्दर राजकुमारी चन्द्रावल का डोले सहित हरण कर लिया, तत्कालीन चंदेल राजा परमार अपने दरबारियों के बहकावे में आकर अपने सेनानायकों आल्हा और ऊदल को देश निकाला दे चुके थे, अतः पृथ्वीराज चौहान की सेना तमाम बुन्देली सेना को परास्त कर महोबा के भीतर तक प्रवेश कर गई, जब इस आक्रमण की सूचना आल्हा, ऊदल को मिली तब वे कन्नौज से महोबा के लिए कूच कर गए, साधु वेश धारण कर उन्होनें महोबा में प्रवेश किया, महोबा के कीरत सागर पर पृथ्वीराज चौहान और आल्हा, ऊदल के बीच घमासान युद्ध हुआ और उन्होने पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर राजकुमारी चन्द्रावल के डोले को पृथ्वीराज चौहान से आजाद कराया, तब रक्षाबन्धन के दूसरे दिन महोबा में कजली विसर्जन का उत्सव मनाया गया ।

इन प्राचीन पारम्परिक उत्सवों के साथ ही महोबा के इस कजली मेले में आधुनिक संस्कृति  के अनुरूप बॉलीवुड नाइट, कवि सम्मेलन, गजल संध्या और कई तरह के कार्यक्रम आयोजित  होते हैं लेकिन इस सब के बीच परम्पराओं पर धूल नहीं पड़ती क्योंकि जितने लोग आधुनिक गानों को सुनने वाले होते हैं उससे अधिक आल्हा गायन पर झूमने वाले होते हैं । इस प्रकार नई पुरानी परम्पराओं का सुन्दर संयोजन जब मिलकर एक साथ सामने आता है तो लोकसंस्कृति पर भी इन्द्रधनुषी छटा बिखर जाती है, महोबा के इस कजली महोत्सव के विषय में तो कम से कम ये कहा ही जा सकता है।


कीर्ति दीक्षित। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले के राठ की निवासी। इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट रहीं। पांच साल तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों में नौकरी की। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता। जीवन को कामयाब बनाने से ज़्यादा उसकी सार्थकता की संभावनाएं तलाशने में यकीन रखती हैं कीर्ति।

 

2 thoughts on “आल्हा-ऊदल की धरती पर कजरी के रंग

  1. बहुत सार्थक जानकारी । अपनी मिटटी की खुशबू समेटे बहुत महत्वपूर्ण लेख ।

  2. अपनी विरासत और गौरवशाली इतिहास और लोक परंपराओं से जोड़ने का एक सराहनीय प्रयास ।
    लेखिका को साधुबाद ।

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