महाराणा प्रताप के आखिरी ठीये की मेरी पहली यात्रा

महाराणा प्रताप के आखिरी ठीये की मेरी पहली यात्रा

जयंत कुमार सिन्हा

हिंदू-मुसलमान के बीच पनप रहे घिन्न भरे माहौल में एक ऐसा मुस्लिम सहकर्मी मिला, जिसने तड़क-भड़क की दुनिया से दूर एक अलग जगह दिखाने में रूचि दिखाई। सरकारी काम से राजस्थान जाना हुआ। जैसा कि मैं अक्सर सरकारी दौरे से लखनऊ से बाहर घूमा करता हूं, तो इस बार उदयपुर में था। रेल, पुल नदी नालों के बीच कुछ अगर नया मिला वो था महाराणा प्रताप का निर्वाण स्थल चावण्ड।

महाराणा प्रताप को लेकर किताबों के चंद पन्नों में छपे नायक के इतिहास से ज्यादा कुछ उनके बारे में नहीं जानता। हल्दीघाटी में चमचमाता भाला और घोड़े की टाप तो पढ़ा था। रौबीला चेहरा, सर पर ताज, फरसे जैसी मूछें ही महाराणा प्रताप की छवि के तौर पर दिलो दिमाग पर अंकित रही। कथा आन-बान-शान की, सम्मान के लिए एक दिन घास की रोटी खाने तक की। इससे इतर मैंने आज तक नहीं पढ़ा, हां अब घूमने के दरम्यान कुछ ऐसा भी देखा जिसका मुझे अंदाजा नहीं था।

उदयपुर से यही कोई 50-55 किलोमीटर दूर बाण्डोली। इतिहास बताता है कि 1585 में महाराण प्रताप ने अपने अंतिम 12 वर्ष यहीं गुजारे। हल्दीघाटी युद्ध के बाद एक ऐसा भी दौर आया। दौर था मुफलिसी का। घास की रोटी खा कर दिन गुजारने पड़े थे। और वो मुसीबतों का दौर इस चावण्ड को नसीब होना था। पत्थरों पर लिखे शब्द बताते हैं कि 1585 में भील के कबीले के तौर पर रचे-बसे गांव को महाराणा प्रताप ने अपने लिए सुरक्षित जगह के रूप में पसंद किया। प्रताप जब बाण्डोली आए तब वहां के भीलों ने उनका स्वागत-सत्कार किया, उन्हें अपना राजा बना लिया। सर-ऑखों पर बिठाया। यह उन भीलों का निश्चल स्नेह था, जहां अपनों से मिली गद्दारी ने राजा को रंक बनने तक मजबूर किया था ऐसे में जिनसे कोई उम्मीद नहीं थी उनसे अगाध स्नेह मिला।

शिलापट्ट बताते हैं कि चावण्ड को महाराणा प्रताप ने राजधानी के रूप में संवारा। बबुर के जंगल और दूर तलक वीरान पड़ी जमीन पर मानो नई ऊर्जा ने डेरा डाल लिया। देखते ही देखते पूरे इलाके की तस्वीर बदल गयी। झार-जंगल के बीच सुन्दर सा महल बन गया। जहां भीलों के चहेते महाराणा प्रताप रहने लगे। दरबार लगता, फरियादी आते, सबको न्याय मिलता।

बात अलग है कि हल्दीघाटी की टीस को मन से निकालना महाराणा प्रताप के लिए मुश्किल होगा, लेकिन यहां बेगानों के बीच मिले अपनेपन ने पीछे की घटना को ज्यादा गहरा नहीं होने दिया। पर सबकुछ सामान्य हो जाए शायद नियति को मंजूर नहीं। भीलों के हिस्से जो पीड़ा नसीब हुई उसकी तारीख 19 जनवरी 1597 थी। अंतिम सांस, जिसने महाराणा प्रताप को इनसे काफी दूर कर दिया। नायक के देहावसान के साथ भील अनाथ हो गये तो महल विरान। 12 वर्ष ही बाण्डोली के लिए इतराने वाला समय रहा था। नायक के नहीं रहने पर फिर से बाण्डोली झार-जंगल में तब्दील हो गया। परम्परा के अनुसार महाराणा प्रताप का राजसी शानों-शौकत के साथ अंतिम संस्कार बाण्डोली से दो किलो मीटर दूर चावण्ड में किया गया।

ज़मीदोज हो चुके बाण्डोली के किले की कुछ सीढ़ियां और छत ही देखने को मिलेगी। महल ज़मीन में मिलने के कगार पर है। महल के छत पर महाराणा प्रताप की आदमकद एक पत्थर की मूर्ति ही देख संतोष करना पड़ेगा। गांव वालों के प्रयास से एक मंदिर बचा हुआ है जो भवन के मुख्य द्वार पर है। महल के पास लगे लोहे के जंग लगे बोर्ड पर कुछ घटनाओं का जिक्र किया गया है जिसे पढ़कर सपूत की किस्मत गाथा को समझा जा सकता है।

शुक्रिया अटलजी। एकबार फिर आपकी कृति को याद करूंगा और कहूगां कि जो देखा वो अटल बिहारी वाजपेयी के कारण। देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री रहे होंगे जिन्होंने बाण्डोली और चावण्ड का दौरा किया। बतौर श्रद्धाजंली महाराणा प्रताप को बाण्डोली से चावण्ड तक याद करते हुए पूरे जगह का जीर्णोद्वार करवाया। समाधि स्थल जो वीरान पानी के बीच टापू पर बना था उसे चारों तरफ से घेराबंदी करवाकर आने-जाने के लिए पुलिया का निर्माण, जगह-जगह शिलापट्ट पर उससे जुड़ी घटना का वर्णन किया। फिर भी जिन्हें अटल जी के काम का हिसाब चाहिए तो तारीख थी 19 जनवरी 1997 ।

महाराणा और अकबर के बीच युद्ध हुआ था यह तो सभी जानते हैं। कुछ ऐसी बातें है जिसे जानकर आश्चर्य होगा कि महाराणा प्रताप के स्वर्गवास होने पर रोया था अकबर भी। इतिहास के पन्नों में एक किस्सा दफ़न है कि महाराणा के स्वर्गवास के समय अकबर की आंखें नम हो गयी थी। अकबर की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आठ़ा ने राजस्थानी छंद में जो वर्णन किया उसे आज भी याद किया जाता है।

अस लेगो अण्दाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी

(हे गेहलोत राणा प्रतापसिंह तेरी मृत्यु पर शाह ने दांतों के बीच जीभ दबाई और विश्वास के साथ आंसू टपकाए। क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकने नहीं दिया। हालांकि तुमने अपना यश, राज्य तो गंवाये लेकिन फिर भी तुमने अपने राज्य के धुरे को बांए कंधे से ही चलाया। तुम्हारी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गई और ना ही तुम खुद बादशाही डेरों में गये। यहां तक कि तुम कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़े हुए। तेरा रौब दुनिया पर निरंतर बना रहा। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम सब तरह से जीत गये और बादशाह हार गया।)

महान नायक के नाम पर पूरे राजस्थान की पहचान है। देश-विदेश से पर्यटक आते हैं। किले, मेहराब और राजसी ठाठ को दिखाकर करोड़ों की आमदनी होती है। जयपुर से लेकर चित्तौरगढ़ तक को घुमने-घुमाने की व्यवस्था तो है परन्तु चावण्ड के लिए पर्यापत साधन की कमी है। तथाकथित गाइड तरह-तरह की भाषा बोल-बोल कर आपको इधर-उधर घुमाते रहेंगे। सवाल आखिर यह कि महाराणा प्रताप के निर्वाण स्थल पर जाने से क्यों कतराते है ? खैर मैंने जो देखा उसे कैमरे में कैद किया। इसे देख आप उस महान प्रतापी राजा की अंतिम यात्रा के जगह को देख और समझ सकते हैं।


jayant profileजयंत कुमार सिन्हा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व छात्र। छपरा, बिहार के मूल निवासी। इन दिनों लखनऊ में नौकरी। भारतीय रेल के पुल एवं संरचना प्रयोगशाला में कार्यरत।