‘बेजुबान’ हिंदुओं की आवाज़ बनने का दावा करने वाले मोदी क्या अटल से कुछ सीखेंगे?

‘बेजुबान’ हिंदुओं की आवाज़ बनने का दावा करने वाले मोदी क्या अटल से कुछ सीखेंगे?

पुष्यमित्र

फ़ाइल फोटो

अब जबकि मोदी सरकार अपने कार्यकाल का साढ़े चार साल पूरा कर चुकी है, यह बात अब पुख्ता तरीके से कही जा सकती है कि बहुमत होने के बावजूद इस सरकार की उपलब्धियां 1999-2004 की अटल बिहारी वाजपेयी की गठबंधन सरकार के मुकाबले काफी कमतर रहीं। अटल बिहारी वाजपेयी के उस शासन काल में बीजेपी के पास सिर्फ 182 सीटें थीं, सामान्य बहुमत से सौ सीटें कम। उनकी पूरी सरकार सहयोगियों के भरोसे और उनके तमाम नखरों को सहते हुए चलीं। इसके बावजूद वे पांच साल आज भी देश के ज्यादातर लोगों के दिलोदिमाग में दर्ज हैं। उस दौर में काम अधिक हुए और विवाद कम हुए।

अमूमन देश, समाज और राजनीति की गरिमा बरकरार रही। समाज में तनाव कम से कम रहा। कथित रूप से हिंदूवादी सरकार होने के बावजूद अल्पसंख्यकों में उस दौर में असुरक्षा की भावना देखी नहीं गयी। दिलचस्प है कि देश का मुस्लिम बहुल राज्य कश्मीर वाजपेयी राज को बड़ी खुशमिजाजी से याद करता है। उस दौर में खूब सड़कें बनीं, जरूरत की चीजें हासिल करना सहज रहा।

इसके बनिस्पत अगर मोदी सरकार के बारे में बात करें तो 282 सीटें हासिल करने के बावजूद इस सरकार के कामकाज में स्पष्ट बहुमत और मजबूत सरकार की वह ताकत नजर नहीं आती। पिछले साढ़े चार साल का इतिहास उथल-पुथल, बहस-मुबाहिसे और अशांति-तनाव के दौर के रूप में याद करेगा। इस दौर में तीखी बहसें खूब हुईं मगर काम धेले भर का नहीं हुआ। काम के नाम पर जो हुआ भी उसने सिर्फ और सिर्फ आवाम को परेशान किया। फिर चाहे नोटबंदी हो या शौचालय निर्माण के नाम पर गांवों में चली लोटाबंदी, जीएसटी का चाबुक हो या बैंकों के झमेले।

एनपीए, लोन लेकर भागने वाले व्यापारी और कर्ज लेकर मौत को गले लगाने वाले किसान। इस दौरान गोरक्षक, राम रक्षक और हनुमानी सेना के लोग खूब फले-फूले, तलवारों की बिक्री खूब हुई, गाली-गलौज, पत्थरबाजी का अभ्यास खूब हुआ। हमारा परिचय लिंचिंग जैसे शब्द से हुआ। फेकू, पप्पू, भक्त, ट्रोल आर्मी, प्रेस्टीच्यूट जैसे शब्द इसी कड़ी में आये। राष्ट्र नायकों ने हिंदुओं से अधिक बच्चे पैदा करने की अपील की और सेकुलरों को पाकिस्तान चले जाने का फरमान सुनाया।

कुल मिलाकर मोदीजी के राज के इन साढ़े चार सालों पर जब मैं गौर करता हूं तो मुझे लालूजी के राज के वे साल याद आते हैं, जब बिहार में काम कम, झगड़ा अधिक होता था। हम सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय दंगों में झोंक दिये गये थे और सरकारी गुंडों के आतंक की वजह से राज्य के व्यापारी बिहार छोड़ कर कहीं और शिफ्ट कर रहे थे। जब उस दौर की सरकारी व्याख्या होती तो कहा जाता कि लालू जी ने भले कुछ और नहीं दिया, मगर बेजुबानों को आवाज तो दी और इसमें कुछ गलत नहीं था। लालूजी ने सचमुच बेजुबान पिछड़ों-दलितों को आवाज दी। मगर उस दौर में बिहार आगे बढ़ने के बदले मीलों पीछे चला गया और उसे आप सामाजिक न्याय नहीं जातीय दंगा ही कह सकते हैं।

और न जाने क्यों मुझे आज भी लगता है कि लालू जी की तरह कल को मोदी जी भी चुनावी भाषणों में यह न कहने लगें कि हमने भले ही कोई काम नहीं किया, मगर बेजुबान हिंदुओं को आवाज तो दी। कांग्रेस ने तो 70 साल से इस देश में हिंदुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखा था। वे कह भी देंगे तो हम क्या कर लेंगे।

मगर दिक्कत यह है कि वे चाहकर भी 2019 में यह नहीं कह पायेंगे, क्योंकि उनके रणनीतिकारों को मालूम है कि 2019 में उन्हें जुबान सी कर वोट मांगना पड़ेगा, क्योंकि उन्हें अगर एनडीए की सरकार बनी भी तो अटल जी जैसी ही गठबंधन सरकार बनेगी, क्योंकि हिंदी पट्टी के तमाम राज्यों में 2014 में तकरीबन 90 फीसदी सीटें जीतने वाली भाजपा 2019 में 50 फीसदी सीटें भी जीत जाये तो इसे वह अपनी बड़ी सफलता मानेगी और इस घाटे की भरपाई गैर-हिंदी प्रदेश के राज्यों से तमाम कोशिशों के बावजूद हो नहीं पा रही। वहां स्थानीय क्षत्रप मजबूती से डटे हैं। वे न भाजपा को स्पेस दे रहे, न कांग्रेस को।

फाइल फोटो

मोदी जी को अटल जी से सीखना चाहिए कि सबको साथ लेकर कैसे चला जाता है. अगर वे समय रहते नहीं सीख पाये तो उनका कुनबा ही आडवाणी की तरह असमय उन्हें खारिज कर देगा और किसी गडकरी को ढूंढ लायेगा. हालांकि मोदी-शाह की टीम इस बात को जानती समझती है, इसलिए तमाम नुकसान सह कर भी नीतीश-पासवान जैसे लोगों को साथ जोड़े हुए है. क्योंकि भारतीय राजनीति में आज भी भाजपा की स्थिति अछूतों जैसी ही है. उसे स्वीकार्य ऐसे समाजवादी ही बनाते हैं. 1999 में भी फर्नांडीस और शरद यादव की वजह से एनडीए का कुनबा बना और टिका रहा. कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के नाम पर हिंदूवादी कट्टरता को ग्राह्य बनाया गया. इस बार भी अगर दूसरे लोग साथ आयेंगे तो गौरक्षक गुंडों की वजह से नहीं बल्कि नीतीश-पासवान जैसे कथित सेकुलर समाजवादियों की वजह से ही आयेंगे।

पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं